आज स्वावगाहन की आवश्यकता क्यों है? |
आज स्वावगाहन की आवश्यकता क्यों है?आज के इस अर्थप्रधान भौतिक युग में हर इंसान धन कमाने की लालसा में इतना उलझता जा रहा है कि वह अपने आपको भूल गया है वह उस बुनियादी तथ्य को भूल गया है कि वह उस परमात्मा का अंश है जिससे अखिल ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है। हमारी आत्मा, जो मूल रूप से परमात्मा का ही अंश है, त्रिगुणमयी माया से मोहित हो इस संसार में विविध शरीर धारण करती है। जिनमें हमारा मानव शरीर सर्वश्रेष्ठ माना गया है। हालांकि मानव शरीर भी है तो नाशवान, पर आत्मसाक्षात्कार के महत्वपूर्ण कार्य में यही नाशवान शरीर एक महत्वपूर्ण सीढ़ी का कार्य करता है। लेकिन अफसोस की बात है कि अपने अंशी परमात्मा से मिलने का 'माध्यम' बनने वाले इस अति महत्वपूर्ण शरीर रूपी उपकरण को, हमने विषय भोगों में बर्बाद कर आज इसे अनेको प्रकार के रोगों से ग्रसित कर दिया है। हम अपने ही दुश्मन बन चुके हैं। इस संदर्भ में अक्सर कहा भी जाता है कि 'मनुष्य ही अपना शत्रु हुं और मनुष्य ही अपना मित्र', इसका सीधा सा मतलब है, मेरे कर्म और मेरे विचार ही मेरे शत्रु अथवा मित्र हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो अशुभ कर्म व अशुभ विचार ही मनुष्य के शत्रु होते हैं तथा शुभ कर्म व शुभ विचार ही मनुष्य के मित्र हैं। भौतिकवाद की चकाचौंध को देखकर मनुष्य इस शरीर को ही सत्य मान बैठा है। अपने शरीर को ही सुख-सुविधायें देना ही मानों मनुष्य का अंतिम लक्ष्य बन गया है। यह मेरा है, यह तेरा है, ऐसा वर्गीकरण करके मनुष्य स्वयं को शरीर की आसक्ति में बांधकर, अंततः दुःख ही भोगा करता है। लेकिन जब दुःखों का पहाड़ हमारे ऊपर टूट पड ता है तब हम तलाश करने लगते हैं उस ईश्वर की, जो सर्वव्यापी है, जो हमारे अंदर भी विद्यमान है, जिसकी सत्ता से हमारे श्वांस चल रहे हैं। श्वांस जो हमको जीवन प्रदान करते हैं, हमारे प्राणों को संचालित करते हैं। जो जीवनदाता है, जो हमारे रक्त विकारों को दूर करते हैं, जो हमारे शरीर के रोम रोम तक पहुंचकर, हमारे अंदर जीवन जीने की उमंगें बढ ाते हैं। यह एक समान्य समझदारी की बात है कि जहां हम रहते हैं उस स्थान को हम साफ-सुथरा रखते हैं। लेकिन जिस शरीररूपी घर में 'आत्मा' रहती है, उस शरीर को हम दूषित विचारों से, दूषित भावनाओं से, निराशा के कूड़ा-कर्कट से प्रदूषित करते जा रहे है। फलस्वरूप हमारे अंदर दिन-प्रतिदिन नकारात्मक विचारों का जमघट बढ ता चला जा रहा है और हमारे गाढ े पसीने की कमाई का एक बहुत बड ा भाग डाक्टरों और दवाइयों पर खर्च होता जा रहा है। कहते हैं खर्च से कर्ज बढ ता है, और मज र् से दर्द बढ ता है। इस प्रकार दर्द से कराहते लोग उससे मुक्ति के लिए अपने-अपने तरीके से प्रयास करते हैं। किंतु एक प्रकार की पीड ा से मुक्त होते ही दूसरे प्रकार की पीड ा सिर पर सवार हो जाती है। ऐसा किसी एक व्यक्ति के साथ नही होता। लगभग सभी पीड ा के दलदल में फंसे नजर आते हैं। वास्तव में इस संसार में किसी सुखी आदमी को ढूंढ निकालना टेढ़ी खीर है। यदि हमें कोई सुखी नजर आता है तो उसके नजदीक जाने पर पता चलता है कि वह वास्तव में बहुत दुखी है। अमीर से अमीर व्यक्ति के अंतरमन में झांकने पर हमें पता चलता है कि वह तो गरीबों से भी ज्यादा दुखी है। यदि हम अमीरों की अमीरी में गौर से झांके तो हमें वहां भी विभिन्न प्रकार के दुःख नजर आयेंगे। कोई धन के बिना दुःखी है, तो कोई धनसंपन्न होने के बाद भी उसे भोग न पाने की अशक्तता से दुःखी है। दुःख हरेक को है। कोई किसी बात से दुःखी है तो कोई किसी बात से। संसार मे हमें हर तरफ दुःख ही दुःख नजर आता है। मानसिक तनाव, क्रोध, चिड़चिड ापन, क्लेश, चिंता, अनिंद्रा, मादक प्रदार्थों की लत, हीनभावना, अहंकार, असंतुष्टि, भय, व्यग्रता, हृदय रोग, रक्तचाप, और मधुमेह जैसी अनेकों बीमारियों के प्रभाव से हर दूसरा व्यक्ति दुःखी है। इस दुःख के कारण मनुष्य के अंदर नकारात्मक भावों ;छमहंजपअम ज्ीपदापदह) में दिन ब दिन बढ ोतरी होती जा रही है और सकारात्मक भावों (च्वेपजपअम ीपदापदह) में लगातार कमी आती जा रही है। फलस्वरूप हम जिन्दगी को बोझ समझकर, निराश होकर उससे दूर भागते जा रहे है। जिन्दगी भर हम सांसारिक स्तर पर कुछ न कुछ सीखते रहते हैं। हमारे जीवन में विभिन्न प्रकार के ज्ञान-विज्ञान, संगीत व अन्य कलाएं सीखने का दौर चलता ही रहता है। लेकिन सही मायने में क्या हम सही ढंग से जीने की कला भी सीख पाते हैं। शायद नहीं। बावजूद इसके, सभी चाहते हैं कि उनका जीवन खुशहाल हो, शांति से भरा हो और निरोगी काया हो। लेकिन कैसे हो, यह जिज्ञासा प्रत्येक के मन में उठती है। दुःखों से दूर होने का उपाय हमारे धर्मशास्त्रों में, योगशास्त्रों में विभिन्न नामों एवं विभिन्न प्रकारों से बताया गया है। पर धर्मशास्त्रों को, धार्मिक पोथी समझकर एक तरफ रख दिया जाता है और तर्क दिया जाता, धर्मानुकूल आचरण से सिर्फ भिक्षा मांगकर गुजारा किया जा सकता है। आज धर्म के मायने ही गलत हो गये हैं। धर्म का मतलब किसी कर्मकांड से नहीं हैं, बल्कि 'धर्म' तो एक विशिष्ट प्रक्रिया (Process) है जिसका उद्देश्य है मानव समुदाय का 'बहुमुखी विकास' (Multidynamic development) लेकिन हमने भौतिक विकास को ही सच्चा विकास मान लिया है। जबकि सच्चा विकास तो तब होता है जब हमारे मन के भावों का उत्तरोत्तर विकास हो। यदि विकास में कोई बाधा आ रही है, तो निश्चित ही हमारे विचार, या कर्म बाधक बन रहे है। तब हमें आवश्यकता पड़ती है उपचार की, हमें आवश्यकता है स्वयं को सुधारने की और आवश्यकता है अपने विचारों को नियंत्रित करने की। जब मनुष्य को यह बात सुनने को मिलती है कि अपने विचारों को नियंत्रित कर लेने से अपरिमित शक्ति की प्राप्ति होती है तो हर कोई चाहता है कि उसका स्वयं पर, स्वयं के विचारों पर नियंत्रण हो जाये। पर हो कैसे? इसका मार्ग तो धर्मशास्त्रों के पास है अथवा आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त हुये सिद्ध पुरुषों और योगियों के पास है। इसलिये मनुष्य आसानी से उपलब्ध होने वाले धर्मशास्त्रों की ओर भागता है। लेकिन उन शास्त्रों की क्लिष्ट भाषा और शब्दावलियों से वह परिचित नहीं होता। इसलिये थककर निराशा के गर्त में डूबने लगता है। इस बात को मैंने महसूस किया और उनके 'सामाजिक संरचना को सुदृढता प्रदान करने वाले प्रयास को और विचारों को' तीव्रतम स्थिति तक लाने के लिये, अपने आसपास के स्वजनों को, धर्मशास्त्रों एवं योगशास्त्रों में वर्णित जटिल प्रक्रियाओं को, अति सरल बनाकर, समझाकर प्रयोग करना शुरू किया, जिसमें मुझे आशातीत सफलता मिली। मैंने लोगों को उसके परिणाम से रू-ब-रू कराया। मेरा यह छोटा सा प्रयोग आज बरगद के विशाल वृक्ष का रूप धारण कर चुका है। अनेकों व्यक्ति इस सरल योगाभ्यास की प्रक्रिया से फायदा उठाकर अपने जीवन को सार्थक कर रहे हैं। साथ ही जीवन के कर्त्तव्यों को भलीभाँति निभा भी रहे हैं। उनके जीवन में अब तनाव का कोई स्थान नहीं रहा, क्रोध अब उनसे कोसों दूर है। इस प्रयोग की प्रक्रिया कोई कठिन नहीं है, और न ही कोई कठिन साधना है। न इसमें एकांतवास, और न उपवास की। सिर्फ कुछ दिनों की अवधि वाले इस प्रयोग से ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाभ मिले, इसके लिये मैंने इस प्रायोगिक प्रक्रिया को, नियमित Course के रूप में संचालित करने का निर्णय लिया, और उसको नाम दिया स्वावगाहन Self-Contemplation Course - SCCA |
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आसनों से आरोग्य लाभ |
आसनों से आरोग्य लाभशारीरिक स्वास्थ्य को सुधारने की दृष्टि से किये जाने वाले आसनों को मुखयतया चार वर्गों में बांट सकते हैं - १. शरीर के विभिन्न अंगों के खिंचाव प्रधान आसन, २. प्राणायाम सहित किये जाने वाले आसन, ३. शारीरिक बल और शक्ति बढ़ाने वाले आसन, ४. शरीर के स्नायु-संस्थानों के संचालन में सहायक आसन। परंतु उक्त वर्गीकरण केवल लोगों को सुविधापूर्वक समझाने के लिए है। व्यावहारिक दृष्टि से ऐसा कोई आसन नहीं जो उक्त वर्गीकरणों में से केवल एक विधा में फिट हो सके। वास्तव में योग का हर आसन हमारे लिए अनेक दृष्टियों से लाभप्रद है और उसे उक्त वर्गो में से कई वर्गों में सम्मिलित किया जा सकता है। हर आसन की अपनी खास विद्गोषता होती है। किंतु उसके अलावा भी वह कई प्रकार का लाभ देता है। द्गारीर और मन दोनों के आरोग्य लाभ में सहायक होता है। यहां एक बात और स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि आसनों के उपयोग से मनुष्य के आध्यात्मिक, मानसिक व शारीरिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। ध्यान रहे, आसनों का अभ्यास करने के पूर्व शौचादि से निवृत्त होकर पेट को पूरी तरह साफ कर लेना आवश्यक है। आसन करते समय अधिक कपड़े पहनना असुविधाजनक हो जाता है। अतः कम से कम वस्त्र धारण करना चाहिए। हो सके तो केवल कच्छा और बनियान पहनना चाहिए। अगर मौसम अत्यधिक ठंडा हो तो ढीले-ढाले वस्त्र धारण किये जा सकते हैं। योग साधिकाएं सलवार-कमीज धारण कर सकती हैं। आसन करने का स्थान स्वच्छ, सीलन रहित, समतल और हवादार भी होना चाहिए। आसन करने का समय प्रातःकाल सर्वश्रेष्ठ माना गया है, लेकिन सुविधानुसार इस नियम में कुछ बदलाव भी लाया जा सकता है। किन्तु किसी भी हालत में भोजन करने के बाद श्रमसाध्य आसनों का अभ्यास नहीं करना चाहिए। यदि शारीरिक अस्वस्थता हो, बुखार हो तो आसन का अभ्यास वर्जित है। गर्भावस्था में भी आसनों का अभ्यास छोड़ देना चाहिए अन्यथा गर्भ में विकार आ जाने की संभावना रहती है। मार्ग दर्शक की सलाह पर गर्भवती महिलाएं कुछ वैसे साधारण आसन कर सकती हैं जो गर्भस्थ शिशु व माता के लिए हानिकर न हों। चुस्त कपड ों का इस्तेमाल आसन-अभ्यास के उपयुक्त नहीं होता। आसन करने के बाद कम से कम एक घंटा तक किसी भी प्रकार का भोजन नहीं करना चाहिए। एक घंटा बाद ही सुबह का नाश्ता किया जा सकता है। यदि नाश्ते में केवल दूध लिया जाये तो अति उत्तम है। मिर्च मसाले से परहेज करना आसन अभ्यासियों के लिए आवश्यक है। अन्यथा लाभ के बदले हानि भी हो सकती है। नये व्यक्तियों को पहले साधारण व सुगम आसनों का अभ्यास करना चाहिए। बाद में उत्तरोत्तर अभ्यास सिद्ध होने पर क्रमानुसार कठिन आसनों का भी अभ्यास किया जा सकता है। किंतु कभी भी जल्दीबाजी में आसनों का अभ्यास नहीं किया जाता। ऐसा करने से हानि हो सकती है। केवल पुस्तकों में पढ़कर आसन नहीं करना चाहिए, इसके लिए किसी कुशल मार्गदर्शक का होना आवश्यक है। प्रारंभिक अवस्था में योगाभ्यासियों को आसनाभ्यास आरंभ करने के दो-चार दिन तक मांस-पेशियों में तनाव व जोड़ों पर दर्द की अनुभूति होती है, किन्तु इनसे घबराना नहीं चाहिए। अभ्यास जारी रखने पर ये बाधाएं स्वतः समाप्त हो जाती हैं। मार्गदर्शक के निर्देश के अनुसार ही कुंभक-रेचक आदि का आसनों में पालन करना चाहिए, क्योंकि सब आसनों के लिए यह विधान निर्धारित हैं कि किस आसन की किस अवस्था में कुभक-रेचक किया जाता है। सामान्य आसनों में स्वांसों को सहज रखने का नियम है। आसनों के अभ्यास के दौरान आने वाले पसीने को पोंछ लेने से शरीर में एक नयी स्फूर्ति आ जाती है। आसनों के अभ्यास के अंतिम चरण में ८-१० मिनट शवासन का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। इससे योग साधक को काफी आराम व नयी स्फूर्ति मिलती है। आसनों के अभ्यास से योग साधक के शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति व आध्यात्मिक विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। कुछ रोगों के उपचार में भी ये उपयोगी होते हो। स्वस्थ व्यक्ति की तबीयत भी इनसे सही रहती है। आसनों के नियमित अभ्यास से मन-मस्तिष्क शांत व निर्मल रहता है। आसनों के अभ्यास से शरीर के जोड़ों, पेट, यकृत, फेफड े, हृदय व मस्तिष्क आदि में रक्त का संचार यथेष्ठ होने लगता है। इनसे मांसपेशियां भी स्वस्थ व सुडौल बनती हैं। आसन करने से शरीर के हर अंग और हर तंतु में सक्रियता आ जाती है और वे रोगों से लड ने की अपनी क्षमता बढ ा लेते हो। शरीर के हर अंगों के सक्रिय होने से शरीर में आवश्यक लचीलापन बढ ता है। हडि्डयां और उनके जोड ों की जकड न दूर होती है। सुषुम्ना आदि नाडि यां सक्रिय होकर योग साधक के मानसिक व आध्यात्मिक विकास में सहायक होती हैं। आसनों के अभ्यास से हमारे शरीर में स्थिति विभिन्न ग्रंथियां भी प्रभावित होती हैं। शरीर के विभिन्न भागों में स्थित इन ग्रंथियों से समय-समय पर एक विशिष्ट द्रव का स्राव होता है जिनसे हमारे शरीर, मन एवं चेतना केन्द्र प्रभावित होते हो। इस प्रकार आसनों का अभ्यास हमारे पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित करता है और यह हर वर्ग के मनुष्य के लिए लाभकारी है। सर्वप्रथम हम कुछ सरल आसनों का उल्लेख करते हो, जिनके अभ्यास से योगसाधकों का शरीर व मन स्वस्थ रहे और इस प्रकार वे अपने परम लक्ष्य स्वरूपस्थिति का संधान बड़ी आसानी से कर सकते हो। हमारे महर्षियों ने योग साधकों के लौकिक व पारलौकिक विकास में विशेष रूप से उपयोगी तथा तरह-तरह की व्याधियों से मुक्ति दिलाने में सहयोगी कुछ सरल आसनों का उल्लेख किया है। इसलिए पहले हम उन्हीं आसनों की चर्चा करते हुए बाद में अन्य आसनों का उल्लेख करेंगे। इस सन्दर्भ में एक बात याद रखनी चाहिए कि आसनों की विशेषता को इंगित करने के लिए जिन रोगों का उल्लेख आसनों के नामों के प्रारंभ में किया गया है, वे आसन मात्र उन्हीं रोगों के निवारण हेतु नहीं हैं बल्कि उनके अलावा भी कई प्रकार के लाभ होते हैं जिनका विवरण यथास्थान कर दिया गया है। १. मर्कटासन (१) - मर्कटासन करने के लिए सर्वप्रथम कंबल बिछाकर उस पर चित्त लेट जाएं और दोनों हाथों की हथेलियां ऊपर की ओर खुली रहें फिर दोनों पैरों को मोड़कर नितम्ब के पास रखें। फिर बायां घुटना दाएं घुटने पर टिका दें। उसके बाद दाएं पैर की एड ी बाएं पैर की एड ी पर टिका दें। अपनी गर्दन को बाईं ओर घुमाकर रखें। इसे मर्कटासन की पहली स्थिति कहते हैं। २. मर्कटासन (२) - मर्कटासन की दूसरी स्थिति के लिए सर्वप्रथम पहली स्थिति की तरह चित्त लेंटे और घुटनों को मोड़कर नितम्ब के पास ले आयें। पैरों में डेढ फुटा का अंतर रहना चाहिए। फिर दाएं घुटने को झुकाते हुए भूमि पर टिका दें। उसे इतना झुकायें कि बायां घुटना दाएं पंजे के पास पहुंच जाये तथा बाएं घुटने के पास भूमि पर टिका दें। इस आसन में गर्दन को बायीं ओर घुमाकर रखा जाता है। इसी तरह दूसरे पैर से भी इस आसन को करें। यह मर्कटासन की दूसरी स्थिति कही जाती है। ३. मर्कटासन (३) - मर्कटासन की तीसरी स्थिति के अभ्यास के लिए पहले आसन की तरह लेटकर दायें पैर को १० डिग्री में उठाकर बायें हाथ के पास ले जायें और गर्दन को दाईं ओर मोड़कर रखें। इसी तरह पैर बदल कर दूसरी ओर से भी किया जाता है। गर्दन को बाईं ओर मोड ते हुए बाईं ओर देखें। यह मर्कटासन की तीसरी स्थिति है। लाभ - ये आसन कमरदर्द, सर्वाइकल, स्पेंडेलाइटिस, स्लिपडिस्क एवं सियाटिका, पेट दर्द, दस्त, कब्ज, पेट गैस, मेरूदण्ड की सभी विकृतियां, नितम्ब व जोड़ों के दर्द में राहत देते हैं। ४. मकरासन - मकरासन करने के लिए स्वच्छ व सुखकर आसन कंबल बिछाकर उस पर पेट के बल लेट जाइए, दोनों हाथों को स्टैण्ड बनाकर हथेलियों को ठोड़ी के नीचे लगाइए। फिर छाती को ऊपर उठाते हुए कोहनियों और पैरों को मिलाकर रखे। उसके बाद श्वास भरते हुए पहले एक-एक बाद में दोनों पैरों को एक साथ मोड कर नितम्ब से स्पर्श करें। फिर श्वास को बाहर निकालते हुए अपने पैर सीधा कर लें। लाभ - यह आसन सर्वाइकल, स्लिपडिस्क, सियाटिका, घुटनों के दर्द, अस्थमा और फेफड़ों संबंधी रोगों के लिए लाभकारी होता है। ५. भुजंगासन - भुजंगासन करने के लिए कंबल बिछाकर उस पर पेट के बल लेट जाइये और अपनी हथेलियों को भूमि पर छाती के दोनों ओर रखें। उस समय अपनी कोहनियां ऊपर और भुजाएं छाती से सटी हुई होनी चाहिए। पैर सीधे पंजे मिलाकर पीछे की ओर तने हुए भूमि पर टिके हुए रहना चाहिए। फिर फेफड़ों में श्वास भरकर छाती व सिर को ऊपर उठाइये। इस आसन का अभ्यास करने वाले को अपने सिर को उठाते हुए ग्रीवा को जितना मोड सकें उतना मोड ना चाहिए। लाभ - इस आसन का नियमित अभ्यास करने से सर्वाइकल, स्पेंडेलाइटिस, स्लिपडिस्क और मेरूदण्ड की सभी विकृतियां दूर हो जाती हैं। ६. शलभासन (१) - शलभासन की पहली स्थिति का अभ्यास करने के लिए पेट के बल लेटकर दोनों हाथों की जंघाओं के नीचे लगाना चाहिए और, श्वास अंदर भरकर दाएं पैर को इस प्रकार ऊपर उठाना चाहिए कि घुटने से पैर नहीं मुड़े। इस दौरान ठोड ी भूमि पर टिकी रहनी चाहिए। १०-३० सैकण्ड तक इस स्थिति में रहें और इसकी ४-७ आवृत्ति करनी चाहिए। इसी तरह दोनों पैरों से भी शलभासन का अभ्यास २ से ४ बार तक करना चाहिए। शलभासन (२) - इस आसन की दूसरी स्थिति के लिए भी पेट के बल लेटकर दाएं हाथ को कान तथा सिर से स्पर्श करते हुए सीधा रखें तथा बाएं हाथ को पीछे कमर के ऊपर रखें। श्वास अंदर भरते हुए आगे से सिर एवं दाएं हाथ को पीछे से बाएं पैर को भूमि से ऊपर उठाइये। थोड़ी देर इस स्थिति में रूक कर धीरे-धीरे आसन को छोड दें। इसी तरह से बाईं ओर से इस आसन को करें। ८. शलभासन (३) - इस आसन की तीसरी स्थिति के अभ्यास के लिए पहले वाले अभ्यास की तरह लेट जायें और उसके बाद दोनों हाथों को पीठ के पीछे ले जाकर एक दूसरे हाथ की कलाइयों को पकड़िए। श्वास अंदर भरकर पहले छाती को यथाशक्ति उठाकर ऊपर की ओर देखें। फिर दोनों ओर से शरीर को धीरे-धीरे ऊपर उठायें। श्वास को छोड ते समय वापस पूर्व स्थिति में आ जायें। लाभ - इन अभ्यासों से अभ्यासकर्त्ता को कमरदर्द, सियाटिका और मेरूदण्ड के नीचे वाले भाग में होने वाले सभी रोगों को दूर करने में राहत मिलती है। ९. नौकासन - सर्वप्रथम दोनों हाथों को जंघा के ऊपर रखते हुए सीधे लेट जाइये। श्वास को भीतर भरते हुए सिर और कंधों को जमीन से करीब सवा फीट ऊपर उठाएं और फिर पैरों को उठाएं। सिर हाथ और पैर तीनों एक सीध में नाव की भांति होने चाहिए। दृष्टि अंगूठे के ऊपर रखें और अंगूठे खिंचे हुए होने चाहिए। लाभ - पेट, लीवर, आंतों व अमाशय, अग्नाशय संबंधी सभी बीमारियों में राहत साथ ही हृदय और फेफड़े भी प्राण वायु के प्रवेश से संबंल बनते हैं। १०. दीर्घ नौकासन - पहले आप एकदम शांत सर्वासन में लेट जाइये दोनों हाथों को सिर के पीछे मिलाते हुए एकदम सीधा कर दें श्वास को भीतर भरते हुए सिर हाथ और पैर धीरे-धीरे भूमि से करीब डेढ़ फीट ऊपर उठाएं, नितंब और पीट का निचला हिस्सा भूमि से एकदम जुड ा रहे दृष्टि छाती के ऊपर रखें। इस अवस्था में करीब ३० सैकण्ड तक रूकें। तत्पश्चात धीरे-धीरे श्वास छोड ते हुए यथावस्था में आ जाएं। यह आसन करीब ३ से ६ बार करना चाहिए। ११. विपरीत नौकासन (नाभि आसन) - विपरीत नौकासन करने के लिए कंबल बिछाकर उसके ऊपर पेट के बल लेट जाइये और दोनों हाथों को मिलाकर सिर की तरफ फैला दीजिए। अपने दोनों पैरों को भी पीछे मिले हुए तथा सीधे रखें। ध्यान रहे, पंजे पीछे की ओर तने हुए रहें। फिर श्वास अन्दर भरकर दोनों हाथों और पैरों को शरीर के ऊपर उठाइए। उस समय पैर छाती, सिर एवं हाथ भूमि से ऊपर उठे होने चाहिए। इस स्थिति को ४-५ बार दुहराएं। लाभ - इस आसन का नियमित अभ्यास करने से मेरूदण्ड की सभी विकृतियां, नाभि प्रदेश की दुर्बलता, गैस संबंधी शिकायतें, मोटापा, यौन रोग व कमजोरी आदि दूर होती है। नोट - याद रखें, यह आसन स्त्रियों के लिए वर्जित है। १२. ऊर्ध्वताड़ासन - ऊर्ध्वताड ासन करने के लिए सबसे पहले सीधे खड े होकर दोनों हाथों की अंगुलियों को आपस में डालते हुए सिर पर रखिए। फिर दोनों पैरों को मिलाकर रखें। इसके बाद श्वास को अन्दर भरते हुए हाथों को ऊपर की ओर तानिए तथा एडि यों को भी साथ-साथ ऊपर उठायें। फिर श्वास छोड ते हुए नीचे आ जायें। उस समय भी हाथ सिर पर ही रहेंगे। इस प्रकार इस प्रक्रिया को ५-७ बार दुहरायें। १३. तिर्यक ताड़ासन - तिर्यक ताड ासन करने के लिए पहले की तरह ही अपने हाथों को ऊपर ले जाकर अंगुलियों को एक दूसरी में डालकर ऊपर सीधा करके स्थिर कीजिए। फिर अपनी हथेलियां ऊपर की ओर खुली हुई रखें, और दोनों पैरों के बीच में लगभग एक फुट का अंतर रहना चाहिए। उसके बाद श्वास अंदर भरते हुए दाईं ओर बिना आगे-पीछे झुके, जितना संभव हो सके अपने हाथों को झुकाइये। ध्यान रहे, उस समय कोहनियों से हाथ नहीं मुड ने चाहिए। फिर श्वास बाहर छोड ते हुए सिर के ऊपर अपने हाथों को पुनः ले आइए। इसी प्रकार यह प्रक्रिया बाईं ओर से भी दुहरायें। इस प्रकार दायीं-बायीं ओर से ५-५ बार उक्त प्रक्रिया को दुहरायें। १४. तिर्यक भुजंगासन - यह आसन के लिए सर्वप्रथम कंबल बिछाकर उसके ऊपर पेट के बल लेट जाएं और दोनों हाथों को छाती के दोनों ओर कन्धों को समीप रखें। इस दौरान कोहनियां दोनों बगल में लगी हुई तथा ऊपर उठी हुई रखें। दोनों पैरों के बीच में लगभग एक फुट का फासला रखते हुए पंजों को पीछे की ओर तान करके रखें। फिर श्वास अंदर भरते हुए छाती को उठाइये। नाभि तक अगला हिस्सा उठने पर दायें ओर के कंधे के ऊपर से बायें पैर की एड़ी को देखिए। उसके बाद श्वास को छोड ते हुए नीचे आ जाइये। इसी प्रकार का अभ्यास बाईं ओर से कीजिए। १५. मण्डूकासान (१) :- यह आसन करने के लिए सर्वप्रथम आप वज्रासन में बैठ जाइये। दोनों हाथों की मुट्ठी बांध दीजिए और अंगुठे को अंगुलियों के अंदर दबा कर रखें। और दोनों मुट्ठीयों को नाभि के दोनों तरफ लगाकर श्वास को बाहर छोड़ते हुए आगे की ओर झुके और दृष्टि सामने रखें। १६. मण्डूकासान (२) :- इस आसन में मण्डूकासन की पहली अवस्था की तरह बैंठे। बायें हाथ की हथेली नाभि पर रख दें उसके ऊपर दायां हाथ की हथेली नाभि पर रखते हुए पेट को अंदर दबाइये और श्वास को बाहर छोड़ते हुए पहली अवस्था के अनुसार आगे झुक जायें और दृष्टि सामने रखें। लाभ - पेट संबंधी सारी बीमारियों के लिए महत्वपूर्ण आसन, साथ ही इन्सुलिन अधिक मात्रा में बनने में सहयोगी, आग्नाशय और पैन्क्रियाज को सक्रिय करता है। १७. उतानपादासन :- यह आसन करने के लिए सर्वप्रथम पीठ के बल सीधे लेट जाइये। दोनों हथेलियां भूमि को स्पर्श करते हुए रहे, पैर सीधे और पंजे मिले हुए हों। श्वास को अंदर भरते हुए पैरों को ४५ डिग्री तक धीरे-धीरे ऊपर उठायें और ३० सैकण्ड से करीब १ मिनट तक वहीं रोके रहें। धीरे-धीरे श्वास छोड़ते हुए पैरों को नीचे लायें और इस क्रिया को करीब ५ से ७ बार करें। बीच में विश्राम आवश्यक है। १८. पवनमुक्तासन (१) :- सर्वप्रथम सीधे लेट जाइये। दायां पैर के घुटने को छाती पर रखें। दोनों हाथों की अंगुलियों को कैची बनाते हुए घुटने को पकड़ लें। श्वास को बाहर निकालते हुए घुटने को दबाकर छाती से लगायें और सिर को ऊपर उठाते हुए नाक से घुटने को स्पर्श करें। २० से ३० सैकण्ड के लिए। श्वास को बाहर रोकते हुए धीरे-धीरे पैर को सीधा कर दें। यह क्रिया ३ से ६ बार करें। १९. पवनमुक्तासन (२) :- उपरोक्त विधि बायें पैर से करें। २०. पवनमुक्तासन (३) :- उपरोक्त विधि दोनों पैरों से करें। लाभ - मोटापा, उदरगत वायु विकार, गठिया, कटि पीड़ा, हृदय रोग, गर्भाशय पीड ा, स्त्री रोग। |
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सहज जीवन जीने की कला है स्वावगाहन ध्यान योग |
सहज जीवन जीने की कला है स्वावगाहन ध्यान योगजीवन एक ऐसा अनमोल उपहार है जो हम जीवों को जीवनदाता द्वारा अति अनुग्रह पूर्वक प्रदान किया गया है। यही वजह है कि अपने जीवन को पूरी समग्रता से जी लेने की गहरी इच्छा हर प्राणी के अंदर जन्म से ही मौजूद रहती है। फलस्वरूप संसार के प्रत्येक प्राणी, चाहे वे छोटे हों या बड़े, सभी जीवित रहना चाहते हैं। कोई प्राणी मरना नहीं चाहता और न ही कोई दुःख पाना चाहता है। सभी चाहते हैं कि मेरा जीवन सुखों से परिपूर्ण हो और मैं इसका उपभोग पूरी समग्रता से करूं। मेरा सम्पूर्ण जीवन सुखमय व्यतीत हो, किसी भी प्रकार की प्रतिकूलताएं मेरे जीवन के मार्ग पर दुःख के कांटें न बिछा दें। अतः जीवित रहने के लिए जो कुछ भी जरूरी है, उसके लिए समस्त प्राणी सदैव प्रयत्नद्गाील रहते हैं और अपने अनमोल जीवन को बचाने के लिए बड े से बड े जोखिम को उठाने से भी कतराया नहीं करते। आपने देखा होगा एक नन्हीं सी चींटी भी अपने जीवन को बचाने और इसे सुखमय बनाने के लिए कितनी सजग व सचेष्ट रहती है। जीवित रहने के लिए आवद्गयक आहार और आवास आदि की व्यवस्था करने में वह निरंतर लगी रहती है, साथ ही अगली पीढ़ी की सुरक्षा आदि की भी समुचित व्यवस्था बिना किसी द्गिाकवा-द्गिाकायत के करती रहती है। यही बातें प्रकारांतर से अन्य पद्गाु-पक्षियों पर भी लागू हैं। मनुष्य जिसे सभी प्राणियों का सिरमौर माना गया है, वह भी नैसर्गिक रूप से सुख पूर्वक जीवित रहने और सुख पाने के लिए हमेशा कोशिश करता रहता है। लेकिन मैं पूछता हूं कि यदि अन्य प्राणियों की तरह ही मनुष्य भी अपना जीवन जैसे-तैसे भाग-दौड करते हुए ही गुजार दे तो उसमें और अन्य प्राणियों में अंतर ही क्या रह जायेगा? फिर क्यों उसे सभी प्राणियों से श्रेष्ठ बताया गया है? ज्यादातर लोग सोचते हैं कि मानव बुद्धि की विशिष्ट क्षमता की वजह से ही उसे समस्त प्राणियों का सरताज मान लिया गया है। लेकिन हमारे प्राचीन मनीषियों ने इसे कर्म प्रधान योनि होने की वजह से श्रेष्ठ माना है। क्योंकि एकमात्र मनुष्य को ही कर्म करने का विशेषाधिकार मिला हुआ है और यदि वह चाहे तो जन्म-मरण के सनातन भवचक्र से मुक्त होने की विशिष्ट साधना का महान कार्य भी इस मानव शरीर में संपादित कर सकता है। अधिकांश मनुष्यों का मन मायाकृत प्रपंचों से मोहित हो जाता है और वे इंद्रिय-विषयों की प्राप्ति को ही अपना परम लक्ष्य मान लेते हैं। इस प्रकार वे आकाश, वायु, अग्नि, जल व पृथ्वी आदि पंचमहाभूतों के विषय शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध आदि तन्मात्राओं की उपलब्धि से अपने कान, त्वचा, आंख, नाक, जीभ आदि ज्ञानेन्द्रियों को तृप्त करने के लिए ही अपनी सभी कर्मेन्द्रियों को पूरी तरह लगा देते हैं। इस प्रकार अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए इंद्रिय-विषयों का संग्रह करने की जितनी भी कोशिश मनुष्य द्वारा की जाती है, उतनी ही प्रचंडता से नयी कामनाओं की भी आग भड़क उठती है। मनुष्य की ऐसी कोशिश आग को घी से बुझाने के समान मूर्खता भरी होती है, जिससे विषय-वासनाओं की, तरह-तरह की कामनाओं की आग पहले से भी अधिक धधक उठती है। यही वजह है कि हमारे प्राचीन मनीषियों ने विषयों के भोग में संलिप्त रहने वाली मानसिकता से ऊपर उठने के लिए मनुष्य को बार-बार सचेत किया है। किंतु माया-मोह के बंधन में पड़े लोग प्राचीन मनीषियों के उपदेशों को बड े हल्के ढंग से लेते हैं और सोचते हैं - ये उपदेश अन्य लोगों के लिए हैं, हमारे लिए नहीं। किंतु याद रहे, हमारे प्राचीन मनीषियों ने जो कुछ भी उपदेश दिया है, मानव मात्र की भलाई के लिए दिया है। सच कहिए तो हमें उनके उपदेशों व आदेशों पर इस प्रकार से अमल करना चाहिए, मानो वे उपदेश व आदेश मेरे और सिर्फ मेरे लिए हैं। क्योंकि वह मानव मात्र की भलाई के लिए है और मैं भी एक मनुष्य हूं। इसलिए सबसे पहले वे मेरे लिए ही कहे गये हैं। यदि हम इस प्रकार की सोच रखते हैं तो इनसे हमारा अपना ही भला होता है। मत्रो, जीवन का जो यह अनमोल उपहार जीवनदाता द्वारा प्रदान किया गया है, वह सबको मिला है। लेकिन क्या कोई व्यक्ति ऐसा सोचता है कि यह तो सबको मिला है, सब लोग जीवन जी ही रहे हैं, फिर मैं क्यों जीऊं? मेरे जीने या न जीने से क्या अंतर पड़ता है? लेकिन हममें से कोई भी ऐसा सोच नहीं पाता बल्कि सभी लोग अपने जीवन को बचाने के लिए पूरी शक्ति से संघर्ष किया करते हैं। इस संसार में आत्महत्या आदि की जो इक्की-दुक्की घटनाएं घटती हैं, वे भी आत्महत्या करने वालों द्वारा मानसिक संतुलन खो देने की वजह से ही संभव होती हैं और सच पूछिये तो जीवन-मरण के कगार पर पहुंचे उन लोगों को भी यदि अपना जीवन बचा पाने का कोई मौका मिलता है तो वे किसी भी कीमत पर उसके लिए पूरी शक्ति से चेष्टा किया करते हैं। जानते हैं, इसका कारण क्या है? इसका कारण हमारी अपनी मूल प्रकृति है जो जीवनदाता ने हमें जीवन का अनमोल उपहार देते समय ही पूरी समग्रता से प्रदान कर दिया है। फलस्वरूप एक चींटी से लेकर हाथी तक सभी जीवों को जीवित रहने के लिए हमेशा सचेष्ट रहने का संदेश अंदर से निरंतर प्राप्त होता रहता है। वह हर प्राणी के प्राणों को अनवरत संचालित करते हुए उन्हें हर श्वांस के साथ सजग करती रहती है कि इस जीवन को पूरी समग्रता से जीओ और इसमें समाये परमसुख के अमृत के एक-एक बूंद को समेटते जाओ। मनुष्य से भिन्न अन्य प्राणियों को प्रारब्धवश जो भी अनुकूल या प्रतिकूल फल उपलब्ध हो रहे हैं, वे उसे भोगा ही करते हैं। किंतु मनुष्य होने के नाते हमें जीवनदाता ने जो एक महान सुअवसर प्रदान किया है, उसका समुचित उपभोग कर हम अपने जीवन के परमलक्ष्य की सिद्धि बड़ी आसानी से कर सकते हैं। इसके लिए हमें अपने अंदर में प्रवेश कर उस गहराई तक डूबना होगा, जहां से हमारे प्राणों के संचालन का कार्य हो रहा है। वह विशिष्ट कार्य जिसके द्वारा संचालित हो रहा है, उसे जीवनी शक्ति अथवा प्राणों को संचालित करने वाली शक्ति भी कहा जा सकता है। वह क्या और कैसी है, उसे किसी भी माध्यम से व्यक्त नहीं किया जा सकता। हमारे प्राचीन मनीषियों ने भी बार-बार स्पष्ट किया है कि वह खुद अनुभव करके जानी जा सकती है, कहकर या लिखकर समझायी नहीं जा सकती। उसे जानने के कार्य में सहयोग देने के लिए किसी ज्ञानी गुरू के द्वारा साधना की कोई विशिष्ट युक्ति भले ही मिल जाये किंतु उसका अनुभव खुद ही हासिल करके उसे व्यावहारिक रूप से समझा जा सकता है। ऐसा नहीं है कि उसे जानबूझ कर किसी को बताया नहीं जाता। लाख कोशिश करने के बाद भी उसे किसी भाषा या इशारों से समझाया नहीं जा सकता। हमारे प्राचीन मनीषियों ने उसे समझने और समझाने के लिए जिन अनेक प्रकार की साधनाओं का उल्लेख किया है। उनमें प्राणों की साधना को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। माना देश, काल, परिस्थितियों के भेद से उन साधनाओं को हमारे प्राचीन मनीषियों व योगाचार्यों ने विविध नामों से पुकारा है किंतु आज के बदलते परिवेश में अधिकांश व्यक्ति योग-साधना व जप-तप आदि का नाम सुनते ही बिदक जाया करते हैं। कुछ लोग सुनी-सुनायी बातों के आधार पर ऐसी मानसिकता की कैद में अपने आप को डाल लेते हैं कि मैं तो एक सामान्य मनुष्य हूं। इस प्रकार की साधनाएं तो सिद्ध योगियों के लिए हैं। यह सब मेरे लिए नहीं है। यही वजह है कि मैं लोगों के समक्ष जो संदेश देता हूं, उनमें इस बात को भली प्रकार से स्पष्ट कर देने की चेष्टा करता हूं कि यह कोई दुरूह योग साधना या भक्ति आदि की कठिन क्रियाएं नहीं हैं। यह तो जीवन को समग्रता पूर्वक जीने की आदर्श कला सिखाने वाली विद्या है जिसे मैं स्वावगाहन कहा करता हूं। यह अद्भुत स्वावगाहन विद्या एक आभ्यांतरिक विज्ञान है जो जीवन के खेल को कुशलता पूर्वक खेलने की कला सिखलाती है। वास्तव में हमारे प्राण तो एक सहज संगीत के नैसर्गिक धुन की तरह हैं जो आपकी श्वांसों के अंदर स्पंदन पैदा कर आपको जीवित रखे हुए हैं। हमारे प्राणों की ताल बद्धता को इस जीवन के अनमोल उपहार का पूरी समग्रता से उपभोग करने वाला एक रोमांचक खेल भी कहा जा सकता है जिसमें संकल्प पूर्वक उतरने के साथ ही मनुष्य को विजयी होने का मैडल निश्चित रूप से ही प्राप्त हो जाता है। आएं, हम सब स्वावगाहन के माध्यम से अपने जीवन की अनमोलता को पहचानने के लिए खेल भावना से अपने अंतरतम की गहराइयों में उतर कर प्राणों में बसे सुगम संगीत पर थिरकते हुए अपने जीवन के परम लक्ष्य तक पहुंचने की कोशिश करें। इसके लिए आएं, सबसे पहले अपने प्राणों से परिचित होने का प्रयास करें और उसी के सहारे जीवन के इस अनमोल उपहार का समग्रता पूर्वक उपभोग करने की चेष्टा करें। इसके लिए प्रकृति ने समस्त जीवों के शरीर में प्राणों का संचार कर उन्हें प्राणी बना दिया है। उन प्राणों के स्पंदनों से निकले नैसर्गिक संगीत पर थिरकते हुए हम अपने जीवन के खेल की कला में महारत हासिल कर उस विज्ञान को अपने अंतरतम में पूरी समग्रता से समझ सकते हैं। हमारे प्राचीन मनीषियों ने इस विद्या को विविध नामों से पुकारा है जिसे मैं स्वावगाहन कहना ज्यादा पसंद करता हूं। क्योंकि यह 'स्व' में 'अवगाहन' करने की विद्या है, अपने आप में डुबकी लगाने की कला है। आएं, सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त हो सबसे पहले अंतरतम में संचालित प्राणों से परिचित होने का प्रयत्न करें जिसके अभाव में किसी भी प्राणी का जीवित रह पाना संभव नहीं। इसलिए हम सब जीवन के खेल की कला के विज्ञान को समझने के लिए स्वावगाहन के क्षेत्र में प्रवेश करें। उससे पहले एक बार फिर हम इस बात को अच्छी तरह जान लें कि आज स्वावगाहन की आवश्यकता क्यों है? 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मानसिक अवसादों से बाहर आने का प्रयोग |
Self-Contemplation Course - SCC
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निज शक्ति जागरण कला योग |
निज शक्ति जागरण कला योगSelf-Contemplation Course - SCC में है, 'जीवन जीने की कला' और जीवन को सुख शांति से जीने का मूलमंत्र। इसके माध्यम से हमें पता लगता है कि Self-Contemplation Course - SCC हमें बताता है कि यदि हम अपने श्वांसों पर ध्यान देंतो मस्तिष्क में उठने वाले हर प्रकार के विचारों पर नियंत्रण रखा जा सकता है। फिर हम जिस विचार को चाहें उसे नियंत्रित कर सकते हैं या उन्मुक्त छोड़ सकते हैं, यह पूरी तरह हम पर निर्भर करता है। Self-Contemplation Course - SCC हमें बताता है कि हम स्वयं अपने आप के अस्तित्व को कैसे व्यक्त करें और हमें अपने आध्यात्मिक जीवन और सांसारिक जीवन में सही संतुलन कैसे प्राप्त हो। Self-Contemplation Course - SCC की विशेषताएं A natural way to recovery from : - यह एक व्यावहारिक Course है जिसमें शिक्षार्थी, यौगिक क्रियाओं के माध्यम से शरीर की श्वसन प्रक्रिया और रक्त संचार को सामान्य करने का मार्ग जानकर शरीर को निरोग और स्वस्थ बनाता है। इस व्यावहारिक Course में यौगिक क्रियाओं के द्वारा वे रोग जो लाइलाज समझे जाते हैं जैसे दमा, डायबिटीज, कैंसर, डिप्रेशन, माइग्रेन, उच्च रक्तचाप आदि पर बड़ी सरलता से काबू पाया जा सकता है। इस व्यावहारिक Course के माध्यम से शिक्षार्थी यह जान सकते हैं कि जीवन में मानसिक एवं शारीरिक तनावों से कैसे मुक्ति पाई जाये। इस व्यावहारिक Course के माध्यम से कोई भी मनुष्य अपनी नकारात्मक सोच (Negative Thinking) को सकारात्मक सोच (Positive Thinking) में बदलने की कला को जान जाता है। इस व्यावहारिक ब्वनतेम के माध्यम से हमें यह ज्ञान मिलता है कि कैसे हम अपने असाध्य रोगों से भी मुक्ति पाने का प्रयास कर सकते हैं। यह निराशा की भावना मिटाने में भी सहायक है। Self-Contemplation Course - SCC को दो भागों में विभाजित किया गया है Self-Contemplation Course - SCC - I Basic Course स्वावगाहन के प्रमुख सोपान एवं विधि Self-Contemplation Course - SCC - I Basic Course के आठ चरण हैं |
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सुमिरण में जाने के लिए ऊँकार का सहयोग |
सुमिरण में जाने के लिए ऊँकार का सहयोगसुमिरण और ध्यान में जाने के लिए अब मैं आपको ऊँकार के माध्यम से किस तरह मनुष्य ध्यान के परम रहस्यों को जान सकता है, समझाऊंगा। पहले मैं आपको ऊँ क्या है, ऊँ का क्या महत्व है, कैसे ऊँ की साधना मानव जीवन पर प्रभाव डालती है उसके बाद व्यावहारिक क्रियाओं पर प्रकाश डालूंगा। आएं, हम समझें ऊँ के बारे में। हमारे धर्मद्गाास्त्रों में ऊँकार को परमात्मा का वाचक कहा गया है। उसके माध्यम से हम बड़ी आसानी से अपनी अंतरात्मा के देद्गा की सैर कर सकते हैं। क्योंकि ऊँ कोई साधारण द्गाब्द नहीं है बल्कि यह अपने आप में संपूर्ण ब्रह्मांड का सार है, ब्रह्मांड-नायक परमात्मा का वाचक है, समस्त द्गाब्दों के सार द्गाब्द ब्रह्म का व्यक्त स्वरूप है। यह अखिल ब्रह्मांड के कण-कण में समाया हुआ है। मित्रो, जहां हम अपनी मन-बुद्धि की सहायता से नहीं पहुुंच सकते, वहां की भी यात्रा हम ऊँकार की सहायता से बड ी आसानी से पूरी कर सकते हैं। जब हम ऊँकार का गूढ़ रहस्य जानने वाले किसी गुरु से ऊँकार साधना में लीन होने की विधि सीखकर उसमें लीन हो जाते हैं तो बड ी आसानी से हम सर्व व्यापक परमात्मा तक, जो हमारे अंदर हमारी ही अंतरात्मा के रूप में विराजमान है, उसके सान्निध्य में पहुंच जाते हैं। फलस्वरूप हम अविनाद्गाी व आनंद स्वरूप परमात्मा के ही अंद्गा अपनी अंतरात्मा में स्थित सच्ची द्गाान्ति व सकून को हासिल कर पाने में सफल होते हैं। इस प्रकार हम इस नाद्गावान भौतिक द्गारीर से भिन्न अपने अविनाद्गाी स्वरूप में स्थित होकर अमरता के झूले में झूलने लगते हैं। तब उस अवस्था में हमें सांसारिक चिंताएं, उलझनें व नाना प्रकार की समस्याएं घेर कर हमें दुःखी करने में असमर्थ हो जाती हैं। साथ ही नाना प्रकार की शारीरिक व्याधियां भी इस साधना से दूर हो जाती हैं। ऊँकार के बाद से ही इस सृष्टि की उत्पत्ति मानी जाती है। ऊँकार का बहुत महत्व है। सबसे पहले ऊँकार की ध्वनि हुई। ध्वनि से नाद उत्पन्न हुआ और नाद से ही इस सृष्टि की द्गाुरुआत हुई। इस चराचर जगत में जो कुछ भी है, जो भी जड़ पदार्थ या चेतन प्राणी हैं, सब नाद ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति हैें। अब विचार करने की बात है कि हमें ऊँकार से उत्पन्न नाद ब्रह्म की अनुभूति कैसे होती है? ऊँकार नाद एक अलौकिक तरंग जब ऊँकार नाद हमारे अंदर ध्वनि बनकर प्रवेद्गा करता है तब उस ध्वनि से एक अलौकिक तरंग उत्पन्न होती है, उस तरंग से एक प्रतिध्वनि पैदा होती है और वह प्रतिध्वनि जो नाद पैदा करती है, वही नाद बाद में ब्रह्म के रूप में परिवर्तित हो जाता है। और तब वह हमारे अंदर अनहद रूप में प्रकट हो कर हमें अपना साक्षात्कार करा देता हैं। जब हम ऊँकार का उच्चारण करते हैं तो उससे हमारे आस-पास का पूरा परिवेद्गा अनादि ब्रह्म के सुरताल से तारतम्य स्थापित कर पवित्र हो जाता है। इसका लाभ यह होता है कि बुरे विचार हमारे अंदर आसानी से पहुंच नहीं पाते और जब हम अपने अंदर में ऊँकार के अनहद नाद की अनुभूति करते हैं तो हमारे अंदर का सारा कलुष भी धुलने लगता है, हमारी मानसिक उथल-पुथल द्गाान्त होने लगती है। ऊँकार की ध्वनि अनहद बनकर हमारे अंदर प्रवेद्गा कर जाती है। और नाद की तरंगों का ऐसा प्रभाव पड़ता है कि हमारे अंदर असीम परमात्मा के द्गाान्ति स्वरूप की अनुभूति होने लगती है। ऊँकार नाद की उत्पत्ति नाभि से होती है, जहां कुंडलिनी योग के अनुसार मणिपुर चक्र स्थित है। नाभि में ही अमृत ऊर्जा भरी हुई है और जब हम उसे ऊँकार के उच्चारण के माध्यम से जाग्रत करते हैं तो मणिपुर चक्र में समाया अग्नि तत्व भी जाग्रत हो जाता है और सुषुम्ना नाड़ी के माध्यम से ऊपर उठने लगता है। सुषुम्ना नाड ी हमारी रीढ की हडि्डयों के बीचों बीच प्रवाहित होती है, उसके सहारे ऊपर उठती हुई अग्नि तत्व की तरंगें और अधिक तेजस्वी होते हुए हमारे हृदय स्थित अनाहत चक्र, कंठ स्थित विद्गाुद्ध चक्र, भौंहों के मध्य स्थित आज्ञा चक्र होते हुए अंततः ब्रह्म रंध्र में स्थित सहस्त्रसार चक्र में पहुंच जाती हैं और वहां से वह पहले से भी ज्यादा परिष्कृत व प्रखर होकर अपनी ही आत्मा में स्थित परमात्मा के प्रकाद्गा से हमारे अपने ही आपा के अंदर आनंद की बाढ ला देती है। होता यह है कि जब नाभि से उत्पन्न होने वाली परावाणी से ऊँ का उच्चारण होता है तो वहां से उठने वाली तरंगें हमारे पिण्ड के ब्रह्मांड में स्थित पतली झिल्ली को राहत पहुंचाती हैं जिसके घर्षण से वहां ऋण व धन आवेद्गा का सृजन होता है। उनके मिलने से वहां प्रकाद्गा की उत्पत्ति होती है जो आनंद रस से सराबोर रहता है। हमारे अपने ही आप के अंदर स्थित परमात्मा में ज्ञान का एक ऐसा अनमोल खजाना भरा हुआ है जो हमारे जीवन की सारी दुःख-दरिद्रता को दूर कर हमें सही मायनों में मालामाल कर देता है। जब हमारी बूंद जैसी छोटी सी हैसियत समुद्र के समान असीम परमात्मा से जुड़ अति विद्गााल हो जाती है तब हम अज्ञानता के बंधन में जकड े मात्र जीव नहीं रहते, द्गिाव स्वरूप हो जाते हैं। किन्तु इस स्थिति तक पहुंचने के पहले हमें ऊँकार के उच्चारण से बाह्य व आन्तिरिक परिवेद्गा को पवित्र करने की प्रक्रिया के प्राथमिक चरण को समझना होगा। ऊँकार अ, उ और म का एकीकृत रूप हैं। इसका उच्चारण नाभि, हृदय, कंठ और होंठों की समवेत सहायता से निष्पादित होता है। उसे बाह्य उच्चारण से पलट कर आत्म-केंद्रित करना चाहिए। इस चक्र को गुरु चक्र भी कहते हैं। इस चक्र पर सफेद दो दलों वाले कमल पर आसीन सफेद वस्त्र पहने हुए गुरुजी की मूर्ति का ध्यान करने का विधान है। उस समय में यह भावना भी करनी चाहिए कि वहां चारों ओर सफेद प्रकाद्गा फैल रहा है। अभ्यास प्रगाढ़ होने पर साधकों को स्वतः रंग-बिरंगे प्रकाद्गा व आवृत्तियों की झलक भी देखने को मिलने लगती हैं जिससे साधकों को अलौकिक आनंद की अनुभूति होती है। अंतर्यात्रा की बुनियाद है ऊँकार साधना इसलिए बहुत जरूरी है गुरु के निर्देद्गाों का पालन करते हुए नियमित अभ्यास करने से साधकजनों को ऊँकार के माध्यम से ब्रह्म-रंध्र स्थित सहस्त्रार पर परम ज्योति के भी दर्द्गान होने लगते हैं। सारी की सारी परेद्गाानी सारी चिंताएं और सारी समस्याएं ब्रह्म की अग्नि में भस्म हो जाती हैं और वह अपने अंदर एक नयी ऊर्जा और नये उत्साह का समुद्र लहराता हुआ देखता है। उसे जीवन में आने वाले सांसारिक सुख-दुख प्रभावित नहीं करते और वह अपनी अंतरजगत की यात्रा में हुए सुकून का आनंद लेता रहता है। लेकिन उक्त स्थिति में कोई भी साधक एकाएक नहीं पहुंच सकता। इसके लिए साधक को दृढ़ सकल्प का धनी और धैर्य की साक्षात मूर्ति बनना पड ता है। थोड ी सी भी जल्दीबाजी सारे किये-कराये पर पानी फेर सकता है, साधक को लाभ के बदले हानि उठानी पड सकती है। वास्तव में उक्त स्थिति बिना मानसिक व वैचारिक उथल-पुथल को द्गाांत हुए किसी भी तरह प्राप्त नहीं हो सकती। किसी मानसिक तनाव से ग्रसित व्यक्ति के लिए तो उक्त स्थिति की प्राप्ति की कल्पना करना भी टेढ ी खीर है। इसलिए बेसिक कोर्स में शारीरिक व मानसिक स्थिति को किस तरह संतुलित किया जाये, मैं सिखाता हूं। जब आप पूर्णरूपेण उस कोर्स में महारत हासिल कर लेते है और आपको लगता है कि आप इसे बड़े आराम से कर सकते हैं, तब मैं उन लोगों को इस कोर्स में आने के लिए आमंत्रण देता हूं। ऊँकार की साधना की द्गाुरुआत करने के पहले इस तथ्य को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यह साधना बाह्य संसार की यात्रा से पूर्णतः भिन्न है और इसके लिए की जाने वाली तैयारी भी अपने आप में अनूठी और बेजोड़ है। बाह्य संसार की किसी भी कार्य पद्धति से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। इसके लिए हमें अपने मन को विचार द्गाून्य, सुस्थिर और अथाह धैर्य से युक्त बनाना आवद्गयक है। सनातन काल से इस विषय पर भरपूर प्रकाद्गा डाला गया है कि हम किस प्रकार अपने मन को नियंत्रित कर सकते हैं। हमारे ऋषि-मुनियों ने मन को नियंत्रित करने के जिन उपायों का जिक्र किया है उनमें मंत्र साधना को विद्गोष महत्व दिया गया है। वास्तव में जब हम 'मंत्र' द्गाब्द की व्युत्पत्ति पर विचार करते हैं तो हमारे समक्ष यही बात स्पष्ट होती है कि जिसके द्वारा मन पर नियंत्रण किया जा सके, जो मन रूपी घोड़े को नियंत्रण की लगाम से काबू में रखने की द्गाक्ति से युक्त हो, उसी को मंत्र कहते हैं। किंतु हमारे प्राचीन महर्षियों ने बिना किसी पूर्व तैयारी के एकाएक मंत्र साधना में कूद पड़ने की इजाजत नहीं दी है। उसके पहले किसी अनुभवी मार्गदर्द्गाक द्वारा विधिवत दीक्षा ग्रहण कर उसके द्वारा बतायी गयी विधियों का अनुसरण करना आवद्गयक बताया गया है। जिज्ञासु साधकों को सर्वप्रथम समय के मार्गदर्द्गाक के सान्निध्य में जाकर मंत्र के विनियोग और न्यासों की जानकारी हासिल करनी होती है जिसके माध्यम से वे अपने द्गारीर को भी मंत्र साधना के लिए अपेक्षित परिवेद्गा में सुस्थिर रहने का अभ्यासी बना सकें। देद्गा, काल, पात्र और परिस्थिति भेद से मार्गदर्द्गाक जिज्ञासुओं को आवद्गयक यम, नियम, आसन, बंध, मुद्राओं व प्राणायाम आदि का सहारा लेने का निर्देद्गा देता है। कुछ लोग किताबें पढ कर या दूसरों की देखा-देखी स्वतः मंत्र साधना के क्षेत्र में अग्रसर होते हैं। किंतु वैसे लोगों को कभी भी लक्ष्य तक पहुंचते नहीं देखा गया है। अधिकतर लोग लाभ के बदले हानि उठाते हैं और लक्ष्य भ्रष्ट होकर इधर-उधर भटक जाते हैं। किंतु हमारे प्राचीन महर्षियों ने बिना किसी पूर्व तैयारी के एकाएक मंत्र साधना में कूद पड़ने की इजाजत नहीं दी है। उसके पहले किसी अनुभवी मार्गदर्द्गाक द्वारा विधिवत दीक्षा ग्रहण कर उसके द्वारा बतायी गयी विधियों का अनुसरण करना आवद्गयक बताया गया है। जिज्ञासु साधकों को सर्वप्रथम समय के मार्गदर्द्गाक के सान्निध्य में जाकर मंत्र के विनियोग और न्यासों की जानकारी हासिल करनी होती है जिसके माध्यम से वे अपने द्गारीर को भी मंत्र साधना के लिए अपेक्षित परिवेद्गा में सुस्थिर रहने का अभ्यासी बना सकें। देद्गा, काल, पात्र और परिस्थिति भेद से मार्गदर्द्गाक जिज्ञासुओं को आवद्गयक यम, नियम, आसन, बंध, मुद्राओं व प्राणायाम आदि का सहारा लेने का निर्देद्गा देता है। कुछ लोग किताबें पढ कर या दूसरों की देखा-देखी स्वतः मंत्र साधना के क्षेत्र में अग्रसर होते हैं। किंतु वैसे लोगों को कभी भी लक्ष्य तक पहुंचते नहीं देखा गया है। अधिकतर लोग लाभ के बदले हानि उठाते हैं और लक्ष्य भ्रष्ट होकर इधर-उधर भटक जाते हैं। इसमें समय के मार्गदर्द्गाक का सान्निध्य पाना एक अहम् पहलू है जिसे कभी भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता। अनुभवी मार्गदर्द्गाक किसी भी साधक की द्गाारीरिक व मानसिक स्थिति देखते हुए ही उसके लिए उचित साधन का निर्देद्गा देता है। उसकी समझ के स्तर को ध्यान में रखते हुए ही उसको उसकी बोली में समझाता है। साधक जिस स्तर पर रहता है। मार्गदर्द्गाक उसी स्तर पर उतर कर उसे और आगे बढ़ने की प्रेरणा व प्रोत्साहन देता है। आज के बदलते परिवेद्गा में लोग जिस प्रकार की जीवन द्गौली के आदी हो गये है, उन्हें ध्यान में रखते हुए मैं मंत्र-साधना के माध्यम से अंतर्यात्रा करने के इच्छुक लोगों को उनके समझने के स्तर और लगन के अनुरूप मंत्रदीक्षा और आवद्गयक निदेद्गा देता है। साधना में आवश्यक सावधानी मंत्रों में अपार द्गाक्ति होती है और उनकी संखया भी महाप्रभु की अनंतता की तरह ही असंखय है। सभी मंत्रों की साधना के ढंग अलग-अलग हैं और उनसे मिलने वाले फल भी भांति-भांति के होते हैं। किंतु सभी मंत्रों से निकलने वाले स्थूल व सूक्ष्म नाद ऊँकार जैसी ध्वनि से ओतप्रोत होते हैं और उनकी साधना पूर्ण होने पर जो फल साधकों को उपलब्ध होते हैं, उनमें आनंद का रस इतना प्रगाढ़ होता है कि साधक उस रस का पान करने में मस्त हो जाता है। उसे यह देखने-सुनने की भी फुरसत नहीं रहती कि दूसरे साधकों के फलों की आकृति व सुगंध कैसी है। वह तो अपनी झोली में मिले फल के रस का रसपान करने में ही लीन हो जाता है। उसे तो अपनी झोली में मिले फल के रसास्वादन में ही इतना रस मिलने लगता है कि उसे दूसरों की झोली की ओर देखने की फुरसत ही नहीं होती। केवल वही लोग दूसरों की झोली में ताकने-झांकने के चक्कर में पड ते हैं, जिनकी अपनी झोली में कुछ नहीं रहता। सावधान, साधना के दौर में या साधना की सिद्धि के उपरांत भी दूसरों की झोली में ताकने-झांकने की प्रवृत्ति को अपने ऊपर हावी नहीं होने चाहिए, ऐसी प्रवृत्ति बड ी निकृष्ट होती है। ऐसे लोग कभी भी अपने परम लक्ष्य तक पहुंच नहीं सकते। संभव है आप में से कई लोगों के अंदर यह प्रद्गन उठ रहा हो कि जब मंत्र अनंत हैं तो मैं आप सबको ऊँकार के ही माध्यम से साधना की द्गाुरुआत करने की बात क्यों कह रहा हूं। लेकिन इस प्रकार का प्रद्गन बेमानी है। क्योंकि यदि आपने ऊँकार के संबंध में दिये गये परिचय पर गौर किया होगा तो यह अपने आप स्पष्ट हो गया होगा कि ऊँकार कोई साधारण द्गाब्द नहीं है। यह स्वयं उस परमसत्ता का वाचक है जिसकी सत्ता से हम, आप, यह अखिल विद्गव और सारे मंत्र-तंत्र, पूजा-पाठ अथवा योग-साधनाएं जीवंत हो रही हैं। ऊँकार उस परमसत्ता का वाचक या प्रतिनिधि मात्र ही नहीं, साक्षात वह परमसत्ता ही है। बस जरूरत है, उसे उस दृष्टि से निहारने की जिस दृष्टि से वह अपने असली रूप में नजर आता है। किंतु उस दृष्टि से निहारने की योग्यता हासिल करने के लिए हमें अपने मन को तैयार करना होगा और मन को तैयार करने के पहले अपने तन को संभालना व समेटना होगा। ऊँकार साधना की महिमा ऊँकार साधना प्रारंभ करने से पहले मेरे विचार से एक बार पुनः ऊँकार के संबंध में विविध ग्रथों व अनुभवी मनीषियों के उद्गारों पर भी गौर कर लेना आवद्गयक है। ऊँ परमात्मा को इंगित करने वाला सर्वश्रेष्ठ एकाक्षर मंत्र है। आद्य द्गांकराचार्य के अनुसार जिस प्रकार हम लोग अपने प्रिय नाम से संबोधित करने पर प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार परमात्मा भी ऊँकार से पुकारे जाने पर द्गाीघ्र प्रसन्न होकर साधक को वांछित आनंद प्रदान कर उसे कृतकृत्य करते हैं। भारत की पवित्र धरती पर विकसित वैदिक, तांत्रिक, द्गौव, वैष्णव, गणपत्य, बौद्ध, जैन और सिख आदि सभी संप्रदायों में ऊँकार को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। यहां तक कि इस्लाम व ईसाई मतावलंबी भी 'आमीन' व 'ओमन' का उच्चारण कर ऊँकार ध्वनि की उपादेयता और सर्वश्रेष्ठता की हामी भरते हैं। वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते समय सर्वप्रथम ऊँकार का उच्चारण करने की सनातन परंपरा निरर्थक नहीं है। बल्कि इसके पीछे एक गूढ़ बात छिपी हुई है कि यह एक ऐसी कुंजी है जिसके बिना कोई भी मंत्र सार्थक नहीं हो पाते। गोपथ ब्राह्मण में 'ऊँकारः एकाक्षरा ऋक्' कहते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी वेद मंत्र के उच्चारण से पूर्व तथा यज्ञानुष्ठान के समय सबसे पहले ऊँकार का उच्चारण इसलिए किया जाता है, ताकि मंत्रगत, तपोगत, द्गाूश्रुषा-साहित्य अथवा अनध्याय के कारण यदि कोई न्यूनता रह गयी हो, तो उसकी पूर्ति करते हुए उन्हें तेजस् से प्राप्त करने योग्य बनाया जा सके। अथर्ववेद से संबद्ध मुंडकोपनिषद में तो एक बड़े ही सुंदर रूपक के द्वारा ऊँकार की महिमा का गान किया गया है प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते। अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥ यानी साधक को चाहिए कि वह ऊँकार रूपी धनुष पर आत्मा रूपी बाण का संधान करके वह परब्रह्म रूप लक्ष्य का वेध करने के लिए प्रमाद रहित होकर निद्गााना साधे। अपने इस कार्य में उसे बाण की तरह एकाग्र और खींची हुई धनुष की प्रत्यंचा द्वारा प्रदत्त गति के साथ तन्मय हो जाना चाहिए। इसी उपनिषद् में एक स्थान पर रथ के पहिये से तुलना देते हुए स्पष्ट घोषित किया गया है कि रथ के पहिये की नाभि केन्द्र में जुड़े अरों यानी डंडों की भांति, जिसमें संपूर्ण द्गारीर में व्याप्त नाडि यां एकत्र स्थित हैं, उसी नाभि में वह बहुत प्रकार से उत्पन्न होने वाला अंतर्यामी परमसत्ता निवास करती है। अतः उस परमसत्ता का संधान ऊँकार नाम से करो। अज्ञानमय अंधकार से परे उस परमात्म सत्ता के समीप पहुंचने, उसी में लीन हो जाने में प्रयत्न रत तुम लोगों का कल्याण हो। मांडूक्योपनिषद् के प्रथम मंत्र में तो इस बात का और भी खुलासा किया गया है कि ऊँकार ही सर्वस्व है। वह मंत्र कहता है कि 'ऊँ' अक्षर अविनाद्गाी परमात्मा है। यह संपूर्ण जगत उन्हीं की महिमा को दद्गर्ााने वाला है। जो भूतकाल में हो चुका है, जो इस समय वर्तमान है और जो आगे होने वाला है, वह सब का सब क्ककार ही है, वह ऊँकार ही है। कृष्ण यजुर्वेदीय द्गवेताद्गवतर उपनिषद् में भी परमात्म सत्ता के साक्षात्कार के साधन के रूप में ऊँकार की महिमा का गान करते हुए यहां तक कहा गया है कि ''जिस प्रकार आश्रयभूत काठ में छिपी आग का स्वरूप दिखायी नहीं देता किंतु उससे उसके अस्तित्व-चिन्ह का विनाद्गा नहीं होता, क्योंकि वही छिपी हुई आग फिर रगड़ने के प्रयत्न द्वारा प्रज्वलित हो जाती है। ठीक उसी प्रकार ऊँकार के द्वारा साधना करने पर इसी द्गारीर में उस परमात्म सत्ता की अभिव्यक्ति हो जाती है।'' ऋषि कहते हैं कि ''साधक अपने द्गारीर को नीचे की अरणि बनाकर तथा ऊँकार को ऊपर की अरणि बनाकर ध्यान का निरंतर मंथन करें। इससे वह छिपी हुई अग्नि के प्रकटीकरण के सदृद्गा परमात्मा का साक्षात्कार कर लेगा।'' यही वजह है कि याज्ञवल्क्य स्मृति में खुले आम यह घोषणा की गयी है कि इतना ही नहीं भगवद् गीता के आठवें अध्याय में तो यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि इस जीवन यात्रा के अंतिम पड़ ाव पर यानी महाप्रस्थान के समय ऊँकार का उच्चारण करने वाला व्यक्ति परम गति को प्राप्त करता है। किंतु उस महाप्रस्थान के समय हमसे यह महत्वपूर्ण कार्य हो पायेगा या नहीं, इसकी क्या गारंटी है? अतः मैं चाहता हूं कि हम ऊँकार के माध्यम से अंतर्यात्रा का अभ्यासी बनकर अपने तन-मन में ऊँकार नाद को इस प्रकार रचा-बसा लें कि वहां किसी अन्य के लिए कोई स्थान ही न बचे। हम भीतर-बारह हर तरफ से ऊँकारमय हो जायें, हमारा हर पल ऊँकारमय हो जाये तब हम बड ी आसानी से महाप्रस्थान के समय परम गति से परमपद को प्राप्त कर परमानंद के सागर में गोते लगायेंगे। क्यों न हम अपने आपको आज से ही अपने महाप्रस्थान को परमानंद रूप बनाने के लिए प्रयत्नद्गाील हो जाएं। ऊँकार में इतनी द्गाक्ति निहित है कि यह आपको पूर्णतया बदल सकता है। यह आपमें नई उमंग और क्रान्ति ला सकता है। एक परमानंद रूपी सोने का खजाना जो आपके अन्दर स्थित है, उसे यदि आप चाहें तो ऊँकार साधना द्वारा उस पर पड़ी परत को हटा कर बड ी सहजता से उस परम आनंद के स्वामी बन सकते हैं। लेकिन इसके लिए उस खजाने पर पड ी अज्ञानता की परत को हटाना बहुत जरूरी है। और ऊँकार साधना के माध्यम से यह आसानी से संभव भी है। सभी मंत्रों का नायक है ऊँकार मंत्रों में बहुत द्गाक्ति होती है। और ऊँकार सभी मंत्रों का नायक है, प्राण है। इसे प्रणव भी कहते हैं। यह महामंत्र मन को मार देता है। द्गारीर से मन के संबंध को यह महामंत्र अलग कर देता है। और इनसे अलग होना ही अपनी असली सत्ता को पाना है। इस साधना में धैर्य का होना बहुत जरूरी है। वरना धैर्य के बिना बड़ा से बड ा मंत्र भी बोझ बन जायेगा। इसकी साधना करने से फल तो अच्छा मिलता है परंतु देर से। महामंत्र ऊँकार के माध्यम से साधना का प्रारंभ करने के लिए सबसे पहले द्गारीर को सुस्थिर करने का उद्योग किया जाता है। चूंकि हमारे द्गारीर की मूल प्रकृति सक्रिय रहने की, जाग्रत अवस्था में चलते-फिरते रहने की है। अतः अंतर्यात्रा की साधना में बैठने के पूर्व द्गारीर को बाह्य क्रिया-कलापों से कुछ थका देना चाहिए ताकि हमारे द्गारीर को कुछ समय तक स्थिर बैठने में आनंद आये, यह सुस्थिर रह पाये। उसके बाद साधना में बैठना चाहिए और इसी के लिए इस साधना में जाने से पहले सभी साधकों को स्वावगाहन प्रक्रिया को २० मिनट तक अवश्य करना चाहिए। ऊँकार मंत्र भी बीज है यह ऊँकार भी बीज-मंत्र है और यह भी बीज की भांति अंकुरित हो कुछ समय बीतने के बाद ही बढ़ता है और बाद में फल देता है। इसका फल इतना स्वादिष्ट होता है कि चखने के बाद ही किसी को इसके स्वाद का पता चल पाता है। परंतु फल का स्वाद पाने के लिए प्रतीक्षा जरूरी है, बहुत जरूरी। ऊँकार साधना के इस मंजिल पर पहुंच कर अब आप जीवन और मृत्यु के बीच स्थित हो जायेंगे। याद रहे, सुख और दुःख के मध्य ही वह परम-आनंद स्थित है। पर इसके लिए खुद को मन से थोड़ा अलग करना बहुत जरूरी है। क्योंकि किसी भी चीज को हम बिल्कुल करीब से देख नहीं सकते। अतः थोड ी दूरी भी बनाये रखना जरूरी है। ऊँकार साधना द्वारा आप अपने को सुख और दुःख से परे एक अलौकिक द्गाांति के महासागर में ले जा सकते हैं। लेकिन कुछ दिनों के सतत् अभ्यास के पद्गचात ही आप सुख या दुःख को लगातार नहीं भोग सकते क्योंकि मन को ऊब होती है, इसको एकरसता पसन्द नहीं। अतः सुख और दुःख के मध्य में स्थित रहकर ही आप सदा आनंद प्राप्त करते रह सकते हैं। किसी भी एक ओर होकर नहीं। यहां आनंद तो है पर प्रखर नहीं। बिल्कुल सौम्य, द्गाांत, द्गाीतल आनंददायक। आप ऊँकार का जाप करें और उसका प्रभाव आप खुद देखेंगे। यह महामंत्र मन को पूरी तरह दबा देता है। मन के अस्तित्व को समाप्त कर देता है। और तब जाकर आप न अंदर रहते हैं और न बाहर। मध्य में स्थित रहकर ही आप उस परम को, उस परमात्मा को पा सकेंगे जो पहले से ही आपके अंदर है। पहले से ही सुख की अभिलाषा करना परमानंद पाने के रास्ते में रुकावट पैदा करती है। अतः बीच का मार्ग सर्वोत्तम है। परमात्मा तो हमारा अंतिम पड़ाव है। पूर्णतया खिलना ही परमानंद में लीन होना है। आप द्गारीर से साधना आरंभ कर धैर्य के साथ परमानंद और द्गाांति की उपलब्धि कर सकते हैं। आमतौर पर हम ऊँ शब्द को ओम समझते हैं और बैखरी, मध्यमा, पश्यन्ती के द्वारा उच्चारित होने वाले ओम को ही ऊँ का असली उच्चारण मान लेते हैं। ऊँ के जो तीन अक्षर अ, उ, म, हैं, जब हम 'अ' बोलते हैं तो हृदय पर दबाव पड़ता है। 'उ' उच्चारण के समय कंठ पर और 'म' का मुंह के अगले भाग पर दबाव पड ता है। यानी ऊँ के उच्चारण में क्रमशः पश्यन्ती, मध्यमा और बैखरी वाणी का प्रयोग होता है। अतः हमारे द्वारा बोला गया ऊँकार का उच्चारण उक्त तीन वाणियों के अंतर्गत ही होता है। मगर भगवान श्रीकृष्ण कह रहे हैंङ्क'ऊँ-इति'। 'इति' का अर्थ है समाप्ति। मगर यहां 'इति' को तीन अर्थों में कहा गया है, यानी पहला 'अंत में', दूसरा 'परे' और तीसरा है 'जैसा'। बैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती इन तीनों के अंत में है परावाणी। यहां परावाणी की ओर ही संकेत किया गया है। यानी निःशब्द वाणी से तात्पर्य लिया गया है। अतः यहां 'ओम इति' का अर्थ है कि जहां ऊँ समाप्त होता है, यानी ऊँ के भी पार। साधना की प्रारंभिक अवस्था में साधक 'ऊँ' का जो उच्चारण करते हैं, वह निद्गचय ही पद्गयंती, मध्यमा व बैखरी वाणी से संपादित होती है। जैसे-जैसे साधक ऊँकार साधना अथवा उक्त तीन वाणियों से उच्चरित होने वाले नामों के सुमिरण की साधना की गहराई में उतरता जाता है, वैसे-वैसे उक्त वाणियों से उच्चरित होने वाले द्गाब्द काफी पीछे छूटते चले जाते हैं। नाम-सुमिरण की साधना और शाश्वत मौन नाम-सुमिरण की साधना करते हुए जब साधक इसकी परम अवस्था में पहुंचता है तो सारे द्गाब्द निःद्गाब्द हो जाते हैं और एक ऐसा द्गााद्गवत मौन साधक के अंतरतम व बाहर स्पंदित होने लगता है जिसकी अनुभूति उसे परावाणी के झूले पर ही होती है। जो भी उस स्थिति में पहुंचता है, वही उस अविनाद्गाी परमात्मा के मूल स्पंदन का ही एक हिस्सा बन जाता है। मगर परावाणी का जो मूल विषय है, वह परमात्मा है और उसकी व्याखया हम लौकिक प्रकार से नहीं कर सकते। यहां फिर सवाल उठता है कि वह कैसा है? तो कहना चाहिए कि वह अविनाशी 'अक्षर-ब्रह्म' है, जिसका कभी भी, किसी भी अवस्था में नाश नहीं होता। वह मन-बुद्धि की पहुंच से परे है। संसार की कोई भी भाषा उसकी उचित व्याखया में सक्षम नहीं है। हमारे शास्त्रों में अक्षर-ब्रह्म के लिए एक शब्द है ऊँ जिसके सुमिरण के लिए गीता में ''व्याहरन् मामनुस्मरन'' कहा गया है। लेकिन सामान्यतः इसका अर्थ लगाया जाता है, ओम का उच्चारण करता हुआ क्योंकि 'व्याहरन' शब्द का अर्थ ही है उच्चारण करना। लेकिन यहां सोचने वाली बात यह है कि यदि समस्त इन्द्रियों के द्वार बंद कर दिये तो फिर मुंह से या कंठ से उच्चारण द्वारा वाणी का प्रयोग कैसे हो सकता है? क्योंकि वह तो अव्यक्त है, और प्राणों में निरंतर स्फुरित हो रही है। अतः जो स्पंदन हमारे भीतर हो रहा है, उस अवस्था में केवल परब्रह्म का अपने अंदर स्मरण ही किया जा सकता है। वहां इन्द्रियों का कोई काम नहीं है। क्योंकि यह घटना इन्द्रियातीत कही गयी है ऊँ यानी जो बिना इन्द्रियों के संभव हो, ऐसा अनुभव है। स्पष्ट है, यहां 'व्याहरन्' द्गाब्द से तात्पर्य हृदय की पुकार से है, अंतरतम की आवाज से है। क्योंकि हम जानते हैं कि ऊँ द्गाब्द के बाह्य उच्चारण से जो व्यक्त होता है, वह अव्यक्त परमात्मा का वाचक भले हो सकता है, स्वयं वह वाच्य परमात्मा नहीं हो सकता। क्योंकि वाणी से व्यक्त होने वाले ऊँकार नाद को अविनाद्गाी अक्षर, अनंत व अव्यक्त नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उस व्यक्त ध्वनि का नाद्गा, क्षरण, अंत व अभिव्यक्ति भी होती है। अतः साधकों को हमेद्गाा यह बात स्मरण रखनी चाहिए कि अपरा वाणी से उच्चारण किया जाने वाला ऊँकार नाद व्यक्त और नाशवान होता है। मगर उसका वाच्य शब्द ब्रह्म अव्यक्त और अविनाशी होता है। गीता के आठवें अध्याय के २१वें श्लोक में इसी बात को स्पष्ट किया गया है। अव्यक्तोह्णक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमांगतिम्। अर्थात् जो अक्षर है, वह संसार की किसी भाषा द्वारा व्यक्त नहीं हो सकता, उसी अव्यक्त अक्षर को परमगति कहते हैं। उक्त श्लोक में भगवान श्री कृष्ण अपना स्वयं का वास्तविक परिचय देते हुए कहते हैं अव्यक्तोह्णक्षर। यानी उनका अव्यक्त और अक्षर रूप है। अब जरा गौर करें कि इस संसार में अव्यक्त क्या है? जैसा कि पहले भी इस बात की चर्चा की जा चुकी है कि संसार की समस्त भाषाएं बैखरी, मध्यमा और पश्यन्ती के अंतर्गत आती हैं। लेकिन एक भाषा या वाणी वह है जो बोली नहीं जाती, मगर फिर भी सुन ली जाती है। उसे हम मूक भाषा या गूंगों की भाषा भी कहते हैं। गूंगों की भी एक भाषा होती है जिसे मूक भाषा कहते हैं, उसमें व्यक्ति इशारे या संकेत से अपनी बात कहते हैं। उसी प्रकार जब साधक साधना की उच्च भाव भूमि पर पहुंचता है तो इंद्रियों को कौन कहे मन-बुद्धि भी काफी पीछे छूट जाते हैं। इसलिए उस स्थिति में जो अनुभूति होती है, उसे व्यक्त करने के लिए गूंगों जैसी भाषा में भी उसकी अभिव्यक्ति की कोद्गिाद्गा भर की जा सकती है, सही अर्थों में उसे इद्गाारों से भी इंगित नहीं किया जा सकता। भगवान श्री कृष्ण भी गीता के आठवें अध्याय के २१वें श्लोक में जिस नाम की चर्चा कर रहे हैं, वह किसी भी भाषा या संकेत का विषय नहीं है। इसीलिए उसको 'अव्यक्तोह्णक्षर' कहा गया है। क्योंकि उसे किसी भी प्रकार से समझाया नहीं जा सकता। आगे अपनी बात जारी रखते हुए उन्होंने कहा है 'अक्षर'। 'अ' का अर्थ होता है - नहीं और 'क्षर' का अर्थ है जिसका क्षरण यानी नाश नहीं होता। अर्थात् वह जिसका कभी विनाद्गा नहीं होता। विविध धर्मग्रंथों में सृष्टि की रचना और विघटन की चर्चा आयी है। उनमें यह स्पष्ट उल्लेख है कि जब सारी सृष्टि महाप्रलय के अंतर्गत पूरी तरह समाप्त हो जायेगी तो उसके साथ सभी कुछ नष्ट हो जायेगा। लेकिन तब भी एक अक्षर ब्रह्म ऐसा है जिसका नाश नहीं होता। यही अक्षर-ब्रह्म प्रभु का वह सच्चा नाम है जिसे साधक को साधना के दौरान अपने अंतरतम में अनुभव करना है। इसी बात को गीता के आठवें अध्याय के १८वें अध्याय में इस तरह व्यक्त किया गया है व्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे। ङ्करात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्तथैव्यक्तसंज्ञके ॥ अर्थात् संपूर्ण सृष्टि ब्रह्मा के दिन के प्रवेश काल में अव्यक्त हिरण्य गर्भ से उत्पन्न होती है और उस (ब्रह्मा) की रात्रि के प्रवेश काल में वह हिरण्यगर्भ में ही लय हो जाती है। मैंने अपने निज अनुभव व शास्त्रो को आधार बना कर हर तरह से ऊँकार को समझानेका प्रयास किया। मैंने सूक्ष्म रूप से ऊँकार की चारों विधियों का भी वर्णन किया अब मैं आपको इन चारों चरण को व्यावहारिक रूप से करवाने जा रहा हूं। आप सभी लोग शांतचित्त होकर बैठ जायें। मेरुदंड सीधा हो, नेत्र कोमलता से बंद रखें और चारों चरण को जैसा मैं समझा रहा हूं वैसा करें। नमो नारायण। |
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प्राणविद्या का प्रथम चरण व उसके लाभ |
प्राणविद्या का प्रथम चरण व उसके लाभप्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के इस प्रथम चरण के अभ्यासकर्त्ता को सर्वप्रथम किसी ध्यान करने के लिए सुखपूर्वक बैठने वाले पद्मासन, सुखासन या स्वतिकासन आदि में बैठकर अपने मेरूदंड को सीधा रखते हुए इसका अभ्यास प्रारंभ करना चाहिए। इसके लिए अभ्यासकर्त्ता को सर्वप्रथम नाक के दाहिने छेद को बंद करके नाक के बायें छेद से श्वास को अन्दर भरना चाहिए। पूरा श्वास अन्दर भर जाने पर प्राण को यथाशक्ति अन्दर ही रोककर मूलबंध व जालंधर बंध लगा लेना चाहिए। फिर जालंधर बंध हटाकर श्वास को अत्यंत धीमी गति से नाक के दाहिने छेद से बाहर छोड़ना चाहिए। पूरा श्वांस बाहर होने पर नाक के दाहिने छेद से श्वास को धीरे-धीरे अंदर भरकर अभ्यासकर्त्ता को यथाशक्ति अपने श्वास को अंदर रोके रखना चाहिए। फिर नाक के बाएं छेद से श्वास को धीरे-धीरे बाहर निकाल देना चाहिए। यह प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के पहले चरण का एक चक्र पूर्ण हुआ। इस प्रक्रिया को नासिकाओं पर बिना हाथ लगाये मानसिक एकाग्रता के साथ किया जाए तो उससे अभ्यासकर्त्ता को अधिक लाभ मिलता है, क्योंकि इससे अभ्यासकर्त्ता के मन की भी पूरी एकाग्रता श्वासों पर यानी प्राणों पर केन्द्रित रहती है तथा उसका मन निश्चल व एकाग्र हो जाता है। याद रहे, श्वास को लेते व छोड़ते समय श्वास की कोई ध्वनि नहीं निकालनी चाहिए। इस चरण के अभ्यास को कम से कम तीन बार अवश्य ही करना चाहिए। अभ्यास कर्त्ता अपनी इच्छानुसार इस प्रक्रिया को बार-बार दुहरा भी सकता है। अपने फेफड ों में श्वासों को भरने, रोकने और छोड ने की अवधि का अनुपात १ः२ः२ का रखना चाहिए अर्थात् १० सैकण्ड में श्वास ले तो २० सैकण्ड तक उसे भीतर रोके रखना चाहिए तथा २० सैकण्ड में ही धीरे-धीरे उसे बाहर निकाल देना चाहिए। बाद में इसका अनुपात १ः४ः२ तक बढ ाया जा सकता है। इतने का अभ्यास सिद्ध हो जाने के बाद इसके साथ हम श्वांसों को यथाशक्ति बाहर ही रोके रखने की प्रक्रिया को भी जोड ा जा सकता है और उसका अनुपात १ः४ः२ः२ होना चाहिए। याद रहे, इस चरण का अभ्यास अत्यंत धीमी गति से ही करना चाहिए। संखया के चक्कर में न पड़कर यथाशक्ति सहजता से इस चरण के अभ्यास को करते हुए श्वास की गति जितनी दीर्घ व सूक्ष्म रखी जाती है, उतना ही इससे लाभ अधिक होता है। सच कहिए तो श्वास को लेना, छोड ना व रोककर रखना ही इस चरण के अभ्यास का वास्तविक परिमाप है। ऐसा करते हुए बीच में अभ्यासकर्त्ता को किसी प्रकार के भी विश्राम की कोई आवश्यकता नहीं पड ती। प्राणविद्या का दूसरा चरण और लाभ प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के इस चरण में सबसे पहले नाक के दोनों छिद्रों को किस प्रकार बंद करते हैं, उसकी विधि को समझ लेना जरूरी है। सबसे पहले अभ्यास कर्त्ता को दाएं हाथ को उठाकर दाएं हाथ के अंगूठे के द्वारा नाक के दायें छिद्र तथा अनामिका व मध्यमा अंगुलियों के द्वारा नाक के बायें छिद्र को बन्द करना चाहिए। हाथ की हथेली को नाक के सामने रखते हुए थोड़ा ऊपर उठाकर रखना चाहिए। यह सावधानी बरतते हुए इस चरण का अभ्यास प्रारंभ करना चाहिए। सर्वप्रथम दाहिने हाथ के अंगूठे से दाहिनी नासिका-छिद्र को बंद करके अभ्यासकर्त्ता को नाक के बायें छेद से श्वास धीरे-धीरे अन्दर भरना चाहिए। श्वास पूरा अन्दर भरने पर, अनामिका व मध्यमा उंगलियों से नाक के बायें छिद्र को बन्द करके नाक के दाहिने छिद्र से पूरा श्वास बाहर छोड़ देना चाहिए। तेज गति से पूरी शक्ति के साथ श्वास अन्दर भरें व बाहर निकालें व अपनी शक्ति के अनुसार श्वास-प्रश्वास की गति मंद और तीव्र करें। तीव्र गति से श्वास लेने व छोड ने से प्राण की तेज ध्वनि होती है। श्वास पूरा बाहर निकलने पर नाक के बायें छेद को बंद रखते हुए ही नाक के दाएं छेद से श्वास पूरा अन्दर भरना चाहिए तथा अंदर पूरा भर जाने पर नाक के दाएं छेद को बन्द करके नाक के बायें छेद से श्वास बाहर निकाल देना चाहिए। इस प्रकार इस चरण की यह एक प्रक्रिया पूरी हुई। इस प्रकार इस विधि को लगातार करते रहना चाहिए अर्थात् बाईं नासिका से श्वास लेकर दाएं से बाहर छोड़ देना, फिर दाएं से लेकर बाईं ओर से श्वास को बाहर छोड देना। इस क्रम को लगभग एक मिनट तक करने पर थकान होने लगती है। थकान होने पर बीच में थोड ा विश्राम करके, थकान दूर होने पर यह अभ्यास फिर प्रारंभ करें। इस प्रकार ५ मिनट से प्रारंभ करके इस चरण का अभ्यास १० मिनट तक किया जा सकता है। कुछ दिनों तक इसका नियमित अभ्यास करने से अभ्यासकर्त्ता की सामर्थ्य-शक्ति बढ ने लगती है और एक माह में वह बिना रूके पांच मिनट तक इस चरण के अभ्यास को करने लगता है। पांच मिनट तक इसका अभ्यास प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। इसके अभ्यास का अधिकतम समय १० मिनट का है। गर्मी में इस चरण का अभ्यास ३ से ५ मिनट तक ही करना पर्याप्त है। पांच मिनट तक यह अभ्यास करने से योगाभ्यास करने वालों के मूलाधार चक्र में सन्निहित शक्ति का जागरण होने लगता है। यह अभ्यास करते समय प्रत्येक श्वास-प्रश्वास के साथ ऊँ का मानसिक रूप से चिन्तन मनन भी करते रहना चाहिए। ऐसा करने से मन ध्यान की उन्नत अवस्था में पहुंचने के योग्य बन जाता है। इससे योगाभ्यासियों को ध्यान योग की साधना में भी सहायता मिलती है। दूसरे चरण के समय की मानसिक अवधारणा इस चरण का अभ्यास करते समय योगाभ्यास करने वाले अभ्यासकर्त्ता को अपने मन में यह विचार करना चाहिए कि इड़ा व पिंगला नाडि यों में श्वास का घर्षण व मंथन होने से मेरी सुषुम्णा नाड ी जागृत हो रही है और मेरूदंड के सहारे मूलाधार से सहस्त्रार चक्र पर्यन्त एक दिव्य ज्योति का नीचे से ऊपर स्फुरण हो रहा है। इस चरण का अभ्यास करने के दौरान अभ्यासकर्त्ता को अपने हृदय में लगातार इस भावना का संचार करते रहना चाहिए कि मेरी पूरी देह दिव्य आलो से देदीप्यमान हो रही है। शरीर के बाहर व भीतर दिव्य ज्योति व शक्ति का ध्यान करते हुए अभ्यासकर्त्ता को यह अवधारणा प्रगाढ़ करनी चाहिए कि विश्वनियन्ता परमेश्वर द्वारा दिव्य शक्ति, दिव्य ज्ञान की वृष्टि चारों ओर से हो रही है। वह सर्वशक्तिमान परमात्मा अपनी दिव्य शक्ति से मुझे ओतप्रोत कर रहा है। इस अवधारणा से अभ्यासकर्त्ता को विशेष रूप से शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक लाभ मिलता है। योगाभ्यासी अभ्यासकर्त्ताओं के मूलाधार चक्र से स्वतः एक ज्योति स्फुरित होने लगती है और उनमें कुण्डलिनी जागरण की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाती है और वे ऊर्ध्वरेता बन शक्तिपात की दीक्षा से स्वतः दीक्षित हो जाया करते हैं। इससे अभ्यासकर्त्ता को ये लाभ होते हैं - इस चरण के अभ्यास से बहत्तर करोड़, बहत्तर लाख, दस हजार दो सौ दस नाडि यां परिशुद्ध हो जाती हैं। सम्पूर्ण नाडि यों की शुद्धि होने से अभ्यासकर्त्ता का संपूर्ण शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं कान्तिमान हो जाता है। २. जोड़ों के दर्द की बीमारी, आमवात, गठिया, कम्पावात, स्नायु दुर्बलता आदि समस्त वात रोग, मूत्ररोग, धातुरोग, शुक्रक्षय, अम्लपित्त, शीतपित्त आदि समस्त पित्त रोग, सर्दी, जुकाम, पुराना नजला, साइनस, अस्थमा, खांसी, टान्सिल आदि समस्त कफ रोग भी इसके अभ्यास से दूर होते हैं। दूसरे शब्दों में इससे त्रिदोषों का शमन होता है। ३. इससे हृदय की शिराओं में आए हुए अवरोध खुल जाते हैं। इस चरण का नियमित अभ्यास करने से लगभग तीन-चार माह में तीस प्रतिशत से लेकर ५० प्रतिशत तक अवरोध खुल जाते हैं। मैं ऐसा केवल सैद्धांतिक रूप से नहीं कह रहा हूं। इसका अनेक रोगियों पर प्रयोग करके मैंने खुद देखा है। कॉलेस्ट्रोल आदि की अनियमितताएं भी इससे दूर हो जाती हैं। ४. इससे अभ्यासकर्त्ता के नकारात्मक सोच में भी बदलाव आता है और उसके मस्तिष्क में सकारात्मक विचार बढ़ने लगते हैं। उसे आनन्द, उत्साह व निर्भयता की भी प्राप्ति होने लगती है। अभ्यास करने वाले की देह के समस्त रोग दूर हो जाते हैं तथा उसका मन परिशुद्ध होकर प्रभु के ध्यान में लीन होने लगता है। प्राणविद्या का तीसरा चरण और लाभ प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के तीसरे चरण में श्वासों को बाहर छोड़ने और अंदर लेने में समानरूप से श्वास-प्रश्वास पर दबाव डालते हैं। इसमें श्वास को भरने के लिए अलग से प्रयत्न नहीं करते, अपितु सहजरूप से जितना श्वास अन्दर चला जाता है, जाने देते हैं और पूरी एकाग्रता श्वास को बाहर छोड ने में ही होती है। ऐसा करते हुए स्वाभाविक रूप से पेट में भी सिकुड न व प्रसारण की क्रिया होती है। योगमार्ग के अभ्यासियों को इस चरण के अभ्यास में स्पष्ट महसूस होता है कि इससे मूलाधार, स्वाधिष्ठान व मणिपूर चक्र पर विशेष बल पड ता हैं। इस चरण के अभ्यास को कम से कम ५-७ मिनट तक अवश्य करना चाहिए। तभी उसका लाभ शीघ्र परिलक्षित होता है। तीसरे चरण के समय की मानसिक अवधारणा इस चरण का अभ्यास करते समय मन में ऐसा विचार करना चाहिए कि जैसे ही मैं अपनी श्वास को बाहर छोड़ रहा हूं, इस प्रश्वास के साथ ही मेरे शरीर के समस्त रोग बाहर निकल रहे हैं। यदि किसी व्यक्ति को कोई विशेष रोग व्यथित कर रहा हो तो उसे उस रोग विशेष से मुक्त होने की अवधारणा के साथ अन्य शारीरिक व मानसिक रोगों व काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, राग, द्वेष आदि को बाहर छोड ने की भावना करते हुए श्वासों को बाहर निकालने का प्रयत्न जारी रखना चाहिए। इस प्रकार रोग के नष्ट होने का विचार श्वास छोड ते वक्त करने का विशेष लाभ अभ्यासकर्त्ता को शीघ्र परिलक्षित होने लगता है। इस चरण का अभ्यास कम से कम तीन और अधिक से अधिक पांच मिनट तक करना चाहिए। प्रारंभ में जब-जब थकान अनुभव हो तब-तब बीच में विश्राम भी कर लेना चाहिए। एक से दो माह के अभ्यास के बाद इस चरण के अभ्यास की अवधि को पांच मिनट तक बिना किसी रूकावट के पूरा किया जा सकता है। यह इसका पूरा समय है। प्रारंभ में इस चरण का अभ्यास करते समय पेट या कमर में दर्द हो सकता है। लेकिन अभ्यास करने वाले को उसके लिए चिंतित होने की जरूरत नहीं। वह दर्द धीरे-धीरे अपने आप मिट जाता है। गर्मी में पित्त प्रधान प्रकृति वाले व्यक्ति को करीब २ मिनट तक ही इस चरण का अभ्यास करना चाहिए। इससे ये लाभ होते हैं - १. अभ्यासकर्त्ता के मस्तिष्क में शांति व मुखमण्डल पर ओज व सौंदर्य की छटा निखरने लगती है। २. इससे समस्त कफ रोग, दमा, श्वास रोग, एलर्जी, साइनस आदि बीमारियां नष्ट हो जाती हैं। ३. इसके अभ्यास से हृदय, फेफड़ों एवं मस्तिष्क के समस्त रोग दूर करने में सहायता मिलती है। ४. इससे मोटापा, मधुमेह, गैस, कब्ज, अम्लपित्त, किडनी व प्रोस्ट्रेट से संबंधित रोगों से भी छुटकारा मिलता है। ५. इसके नियमित अभ्यास से कब्ज जैसा खतरनाक रोग भी दूर हो जाता है। लेकिन इस चरण का अभ्यास ५ मिनट तक प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए। मधुमेह रोग भी बिना औषधि के इस चरण के अभ्यास से ठीक किया जा सकता है तथा पेट आदि का बढ़ा हुआ भार एक माह में ५ से १० किलो तक कम किया जा सकता है। हृदय की शिराओं में आए हुए अवरोध भी इसके नियमित अभ्यास से खुल जाते हैं। ६. इसके नियमित अभ्यास से अभ्यासकर्त्ता का मन स्थिर, शांत व प्रसन्न रहने लगता है तथा उसके नकारात्मक विचार नष्ट हो जाते हैं जिसके फलस्वरूप डिप्रेशन आदि रोगों में शीघ्र लाभ मिलता है। ७. इस चरण का अभ्यास करने से आमाशय, अग्न्याशय (पेन्क्रियाज), यकृत, प्लीहा, आन्त्र, प्रोस्ट्रेट एवं किडनी के रोग विशेष रूप से ठीक होने लगते हैं। पेट के लिए बहुत से आसन करने पर भी जो लाभ नहीं हो पाता, मात्र इसके अभ्यास से ठीक होने लगते हैं। दुर्बल आंतों को सबल बनाने के लिए भी इस चरण का अभ्यास बहुत लाभप्रद है। प्राणविद्या का चौथा चरण और लाभ प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के चौथे चरण का अभ्यास करने के लिए तीनों बंध - जालंधर, उड्डीयान, मूल को लगाना जरूरी होता है। प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के इस चरण में अभ्यासकर्त्ता को अभ्यास प्रारंभ करने के लिए सर्वप्रथम सिद्धासन या पद्मासन में विधिपूर्वक बैठकर श्वास को एक ही बार में यथाशक्ति बाहर निकाल देना चाहिए। फिर मूलबंध, उड्डीयान बंध व जालंधर बंध लगाकर श्वास को यथाशक्ति बाहर ही रोककर रखना चाहिए। उसके बाद जब श्वास लेने की इच्छा हो तब बन्धों को हटाते हुए धीरे-धीरे श्वास लेना चाहिए। लेकिन श्वास भीतर लेकर उसे बिना रोके ही पुनः पूर्ववत् श्वसन क्रिया द्वारा बाहर निकाल देना चाहिए। इस प्रक्रिया को अभ्यासकर्त्ता ५ से लेकर २५ बार तक कर सकते हैं। चौथे चरण के समय की मानसिक अवधारणा प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के इस चरण के अभ्यास में श्वास को बाहर छोड़ते समय समस्त विकारों, दोषों को भी बाहर फेंका जा रहा है, इस प्रकार के मानसिक चिन्तन की धारा अनवरत बहनी चाहिए। विचार शक्ति जितनी अधिक प्रबल होगी अभ्यासकर्त्ता के समस्त कष्ट उतनी ही तेजी से दूर होते जाते हैं। मन की यह प्रबल अवधारणा हर प्रकार की आधि-व्याधि की संहारक और शीघ्र फल देने वाली होती है। इससे ये लाभ होते हैं - इस चरण के अभ्यास से साधक को कोर्इ्र हानि पहुंचने की संभावना नहीं रहती। इससे मन की चंचलता दूर होती है और जठराग्नि भी तेज हो जाती है। उदर रोगों में यह विशेष लाभप्रद है। यह वीर्य को उर्ध्वगति करके स्वप्न-दोष, शीघ्रपतन आदि धातु विकारों की निवृति करने में भी विशेष उपयोगी है। इस अभ्यास से पेट के सभी अवयवों पर विशेष बल पड़ता है। इसलिए प्रारंभ में पेट के कमजोर या रोगग्रस्त भाग में हल्के दर्द का भी अनुभव होता है। अतः पेट को विश्राम तथा आरोग्य देने के लिए इस चरण का अभ्यास करना चाहिए। प्राणविद्या का पांचवा चरण और लाभ प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के इस चरण में अभ्यासकर्त्ता को ध्यान करने के उपयुक्त किसी भी आसन में सुविधानुसार बैठकर दोनों नासिकाओं से श्वास का पूरा अंदर भर व बाहर भी पूरी शक्ति के साथ छोड़ने को अभ्यास किया जाता है। इस प्रक्रिया में अभ्यासकर्त्ता को अपने-अपने सामर्थ्य के अनुसार मंद, मध्यम व तीव्र तीनों प्रकार से श्वास लिये और छोड े जा सकते हैं। जिन अभ्यासकर्त्ताओं के फेफड े व हृदय कमजोर होते हैं, उनके लिए उचित है कि वे मन्दगति से श्वास लें और श्वास छोड ें। स्वस्थ व्यक्ति व पुराने अभ्यासी को भी धीरे-धीरे श्वास-प्रश्वास की गति बढ ाते हुए मध्यम और फिर तीव्र गति से श्वास लेने और छोड ने का अभ्यास करना चाहिए। प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के इस पांचवे चरण का अभ्यास लगभग ४-५ मिनट तक करना चाहिए। पांचवें चरण के समय की मानसिक अवधारणा इस चरण में श्वास को अन्दर भरते हुए मन में यह विचार करना चाहिए कि ब्रह्माण्ड में विद्यमान दिव्य शक्ति, ऊर्जा, पवित्रता, शांति व सात्विकता बढ़ाने वाले जो गुण हैं, वे श्वास के साथ मेरे देह में प्रविष्ट हो रहे हैं। मैं अनेक दिव्य शक्तियों से युक्त हो रहा हूं। इस प्रकार की मानसिक अवधारणा के साथ किया हुआ अभ्यास विशेष लाभप्रद होता है। सावधानी १. जिन व्यक्तियों को उच्च रक्तचाप व हृदय रोग हो, उन्हें इस चरण का अभ्यास कभी नहीं करना चाहिए। २. इस चरण के अभ्यास के समय जब श्वास को अंदर भरा जाता है तब पेट को फुलाना नहीं चाहिए। ३. गर्मी में इस चरण का अभ्यास कम करें। ४. जो व्यक्ति कफ प्रधान स्वभाव के हैं, अथवा कफ की अधिकता या साइनस आदि रोगों के कारण जिनके नाक के दोनों छिद्र ठीक से खुले हुए नहीं होते, उन लोगों को पहले दाएं नाक को बंद करके बाएं से श्वास छोड़ना व लेना चाहिए। फिर नाक के बाएं छेद को बंद करके दाएं छेद से यथाशक्ति मंद, मध्यम या तीव्र गति से श्वास लेने व श्वास छोड ने का अभ्यास करना चाहिए। फिर अंत में नाक के दोनों छिद्रों से श्वास लेने व छोड ने का काम करते हुए इस चरण का अभ्यास शुरू करना चाहिए। ५. यह अभ्यास चार से लेकर पांच मिनट तक प्रतिदिन अवश्य करना चाहिए। ६. याद रहे, इस चरण में श्वास लेने व छोड़ने की क्रियाएं करते समय आंखों को बंद रखना चाहिए और मन में प्रत्येक श्वास-प्रश्वास के साथ ऊँ का मानसिक रूप से चिंतन-मनन भी करते रहना चाहिए। इस चरण के अभ्यास से ये लाभ होते हैं - १. इससे सर्दी-जुकाम, एलर्जी, श्वांस रोग, दमा, पुराना नजला, साइनस आदि समस्त कफ रोग दूर होते हैं। २. इससे फेफड़े सबल व सशक्त बनते हैं तथा हृदय व मस्तिष्क को भी शुद्ध प्राणवायु मिलती है जिससे आरोग्य लाभ में सहायता मिलती हैं ३. इससे थायराइड व टान्सिल आदि गले के समस्त विकार मिटाने में मदद मिलती है। ४. इससे त्रिदोषों के शमन में सहायता मिलती है और रक्त परिशुद्ध होता है तथा शरीर के विषाक्त, विजातीय द्रव्य दूर होते हैं। ५. इससे प्राण व मन स्थिर होता है। योग साधकों को प्राणोत्थान व कुण्डलिनी जागरण में विशेष मदद मिलती है। प्राणविद्या का छठा चरण और लाभ प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के इस चरण में अभ्यासकर्त्ता को श्वास को बाहर छोड़ते समय भ्रमर के गुंजन की तरह ओंकार नाद मुख बंद रखते हुए किया जाता है। इस चरण का अभ्यास करते समय अभ्यासकर्त्ता को चाहिए कि वह श्वास पूरा अन्दर भरकर मध्यमा अंगुलियों से नासिका के मूल में आंख के पास से दोनों ओर से थोड ा दबाएं और अपने मन को भौंहों के बीच में केन्द्रित रखें। अंगूठों के द्वारा कानों को भी पूरा बन्द कर लें। उसके बाद भ्रमर की भांति गूंजन करते हुए नाद रूप में ऊँ का उच्चारण करते हुए श्वास को बाहर छोड दें। इस प्रक्रिया को बार-बार दुहराएं। इस चरण का अभ्यास कम से कम तीन बार अवश्य करें। इसे अधिक से अधिक २१ बार तक किया जा सकता है। छठे चरण के समय की मानसिक अवधारणा इस चरण में अभ्यासकर्त्ता को अपने अंतरमन में अपनी चेतना को ईश्वरीय सत्ता के साथ जोड़े रखने की अवधारणा प्रगाढ करनी चाहिए। उसके हृदय में यह भावना भी बलवती रहनी चाहिए कि मुझ पर भगवान की कृपा, शांति व आनंद बरस रहा है। मेरे भौंहों के बीच में भगवान ज्योतिपुंज के रूप में प्रकट होकर मेरे समस्त अज्ञान का अंधेरा दूर कर मुझे उचित-अनुचित का निर्णय करने वाले विवेक से सम्पन्न बना रहे हैं। इस प्रकार के शुद्ध भाव से युक्त हो इस चरण का अभ्यास करने से एक आलौकिक ज्योतिपुंज अभ्यासकर्त्ता के भौंहों के बीच में प्रकट होता है और उसे उसका स्वतः ध्यान होने लगता है। उस समय अभ्यासकर्त्ता को ध्यान के लिए अलग से कोई प्रयास नहीं करना पड ता। इससे ये लाभ होते हैं - इस चरण के नियमित अभ्यास से अभ्यासकर्त्ता के मन की चंचलता दूर हो जाती है। मानसिक तनाव, उत्तेजना, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग आदि में भी इस चरण का अभ्यास विशेष लाभप्रद रहता है। ध्यान के लिए यह एक अति उपयोगी अभ्यास है। प्राणविद्या का सातवां चरण और लाभ प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के इस चरण में अभ्यासकर्त्ता द्वारा एक विशेष विधि से ऊँकार का जप किया जाता है। पिछले चरणों का अभ्यास करने के बाद अभ्यासकर्त्ता को चाहिए कि वह श्वास-प्रश्वास पर अपने मन को टिका कर प्राण के साथ ऊँ का ध्यान करें। हमारे भौंहों की आकृति प्राकृतिक रूप से ऊँ के आकार जैसी बनाई है। यह देह तथा समस्त ब्रह्माण्ड ऊँकारमय है। सच कहिए तो ऊँकार कोई मजहबी चिह्न या संकेत नहीं है। यह तो अखिल ब्रह्मांड में समायी उस अनादि नाद के नैसर्गिक ध्वनि की ओर इंगित करती है जो कण-कण में रहते हुए सृष्टिचक्र की समस्त क्रियाओं को प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से संचालित कर रही है। वास्तव में ऊँंकार एक दिव्य शक्ति है। जो इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड का संचालन कर रही है। इसलिए प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के इस चरण में अभ्यासकर्त्ता को ऊँकार का ध्यान करते हुए द्रष्टा बनकर दीर्घ व सूक्ष्म गति से श्वास को लेते व छोड़ते समय अपने मन को भौंहों के बीच केंद्रित करना चाहिए। इस समय श्वास की गति इतनी सूक्ष्म होनी चाहिए कि स्वयं को भी श्वास की ध्वनि की अनुभूति न हो तथा यदि नासिका के आगे रूई भी रख दें तो वह हिले नहीं। धीरे-धीरे इसका अभ्यास बढ़ाने का प्रयास करें कि एक मिनट में एक बार ही श्वास तथा एक प्रश्वास चले। अभ्यासकर्त्ता को इस प्रक्रिया में श्वास को भीतर तक देखने का भी प्रयत्न करना चाहिए। अभ्यास के दौरान प्रारंभ में श्वास के स्पर्श की अनुभूति मात्र नासिकाग्र पर होती है। धीरे-धीरे अभ्यासकर्त्ता श्वास के गहरे स्पर्श का भी अनुभव करने लगते हैं। इस प्रकार कुछ समय तक श्वास के साथ साक्षी भाव पूर्वक ऊँकार का जप करने से अभ्यासकर्त्ता का ध्यान स्वतः प्रभु के दिव्यज्योति स्वरूप में केंद्रित होने लगता है। अभ्यासकर्त्ता का मन अत्यन्त एकाग्र व ऊँंकार में तन्मय व तद्रूप हो जाता है। ऊँकार जप के साथ-साथ वेदों के सर्वश्रेष्ठ मंत्र गायत्री का भी अभ्यासकर्त्ता अर्थपूर्वक जप व ध्यान कर सकता है। इस प्रकार अभ्यासकर्त्ता ध्यान करते-करते सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्म के स्वरूप में ही खो जाता है। प्राणविद्या के अभ्यास की प्रक्रिया के सातवें चरण में अभ्यासकर्त्ता को इसका अभ्यास इतना बढ़ा लेने की कोशिश करनी चाहिए कि सोते समय भी वह इस प्रकार ध्यान करते हुए सोचा करे कि उसकी नींद भी योग साधकों की योग निद्रा में तब्दील हो उसके मन को पूरी तरह आनंद से सराबोर कर दें। |
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स्वावगाहन क्या है? |
स्वावगाहन क्या है?'स्वावगाहन' क्या है स्वावगाहन? इस विषय को समझाने के लिए मैं थोड़ा आपको विज्ञान की ओर ले जाना चाहता हूं और बताना चाहता हैं कि मानव द्गारीर की संरचना कितनी दिव्य है। यह मानव द्गारीर छः सौ खरब कोद्गिाकाओं से बना यह सूक्ष्म शरीर संसार के जटिलतम यंत्रों से सुसज्जित कारखानों से भी जटिल है। मानव शरीर की प्रत्येक अंग प्रत्यंग की अपनी विशेषता एवं विलक्षणता है। आप देखेंगे कि एक सिक्के के बराबर एक आंख का हिस्सा होता है जिसमें एक करोड बीस लाख कोन और सत्तर लाख रोड कोशिकाएं तथा दस लाख नर्व वाली (ऑप्टिक नर्व) मस्तिष्क के दृष्टि केन्द्र को देखा हुआ दृश्य पहुंचाती हैं। साथ ही याददाशत यानि स्मृति कोश में स्थित चित्रों को पहचान कर अभिव्यक्ति प्रदान करती है। बाह्य जगत को देखने और पहचानने की यह क्रिया आंखों और मस्तिष्क से प्रति क्षण होती रहती है। देखने की इस क्रिया से दूसरों की पहचान तो हो जाती है किन्तु अपने आपको पहचानने के लिए भीतर की आंख की जरूरत होती है। स्वयं द्वारा स्वयं को देखने या अपने में डूबना स्वयं में डूबकी लगाकर स्वयं की पहचान करना अपने आप को जानना का दूसरा नाम ही स्वावगाहन है। - स्वावगाहन ध्यान जीवन का एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह ध्यान 'यथार्थवाद' पर आधारित है जो वातावरण को, परिस्थितियों को, वस्तुओं को यथारूप में हमारे सामने रखती है। बहुत साधारण सा नियम है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। यदि कोई वस्तु हमारी नजर के सामने आये तो हमारे मस्तिष्क में वस्तु से संबंधित, विभिन्न प्रकार के विचार उठना स्वाभाविक है। - 'स्वावगाहन' ध्यान, हमारे अतीत और भविष्य की ओर ले जाने वाले विचारों का नियमन करती है, तथा वर्तमान से संबंधित विचार को प्रगति की ओर अग्रसारित करती जाती है। - इस स्वावगाहन के माध्यम से, हमें अतीत और भविष्य से छुटकारा पाकर, वर्तमान में जीने की कला आती है। जब हम इस क्रिया को जान जाते है तो लगता है- यह क्रिया कितनी आसान है, कितनी महत्वपूर्ण है और कितनी रहस्यमय है जो हमें वर्तमान में जीने की प्रेरणा देती है, उमंगें देती है और खुशियां देती है। - यह स्वावगाहन हमारे सामने से भ्रम के अथवा माया के सारे पर्दे हटाकर हमारे 'तीसरे नेत्र' को जागृत करने में सहायक होती है, जिससे हमें संसार का वास्तविक ज्ञान हो पाता है। जो वस्तु जैसी है, उसे उसी रूप में देखने की क्षमता प्रदान करने का नाम 'स्वावगाहन' है। - 'स्वावगाहन' जीवन का एक ऐसा कल्याण है जो परम लक्ष्य तक बड़ी आसानी से पहुंचा देता है। यह चेतना की धर्म गंगा है। तन मन के समस्त तापों को दूर कर सम्पूर्ण आरोग्य लाभ का ही दूसरा नाम 'स्वावगाहन' है। - 'स्वावगाहन' अपने आप में अवस्थित परम शांति का नाम है। 'स्वावगाहन' जीवन को मंगलमय बनाने का एक विशिष्ट पथ है। -'स्वावगाहन' अंतर प्रज्ञा जाग्रत करने की एक अनूठी तकनीक है। - जीवन संग्राम के दौरान मनुष्य अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों, उत्तेजनाओं और असंतुलन का शिकार होकर दुखी हो जाया करता है। उसका विवेक और अंतरप्रज्ञा साथ नहीं देते। वह पूर्णतः मानसिक विकृतियों से घिर जाता है। मगर ऐसी प्रत्येक अवस्था के समय प्रज्ञा और विवेक के जागृत होने का दूसरा नाम 'स्वावगाहन' है। - 'स्वावगाहन' मानव जीवन की परम औषधि है, जीवन की सही दिशा है। यह मानव जीवन को संवारने की कला है। 'स्वावगाहन' करुणा की निर्मल धारा है। प्रत्येक व्यक्ति 'स्वावगाहन' का अपने में प्रयोग करके जीवन में परम द्राांति व परमानंद को प्राप्त कर सकता है। - 'स्वावगाहन' सकारात्मक सोच और जीवन को प्रगतिशील बनाने का उपाय है। - स्वावगाहन जीवन का एक समाधान है। एक दिशा है सुख, द्राांति और वैभव को पाने की। मेरा मानना है कि Swawagahan ध्यान का वो सेतू है जो हमारे भीतर के सारे भावों को, पीड़ा, वेदना को बाहर निकाल फेंकता है और सारे तनावों व सारी कुंठाओं को बाहर निकालता है। - 'स्वावगाहन' का श्वांस से गहरा संबंध है और श्वांस का संबंध 'ध्यान' से है। ध्यान का पूरा प्रभाव हमारे क्रियाकलाप और व्यक्तित्व पर पड़ता है। - हम सब लोगों जानते है, जब हम गतिशील, क्रियाशील होते है तो श्वांस की गति अलग प्रकार से चलती है और जब हम शांत रहते तब श्वांस की गति अलग प्रकार की होती है। क्रोध में श्वांस अलग तरह और करुणा में श्वांस अलग होता है। - जब हमारा चित् मौन रहता है, तब श्वांस अलग होगी, क्योंकि श्वांस ही शरीर और आत्मा को जोड़ने का सेतु है। ऐसा क्यों? - यह एक ऐसा ध्यान है जो हमारे श्वांस को संतुलित करता है और विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि सांस को ठीक प्रकार से न लेने के कारण, फेफड़ों के हजारों छिद्रों में से सिर्फ कुछ ही हजार छिद्र ही काम करते हैं। उससे हमारे मन में बेचैनी, डिपरेशन, टेंशन जैसी बीमारियों घर कर लेती है। - यदि इस Swawagahan को हम अपने जीवन में अपनाये तो हम अपने श्वांसों के माध्यम से ही, अपने जीवन को संतुलित कर सकते है। - Swawagahan हमारे मनीषियों की एक अनूठी खोज है। विशेषकर इस साधना की खोज का श्रेय भगवान बुद्ध को जाता है जिन्होंने अपने समय में इस क्रिया पर विशेष ध्यान दिया था। वास्तव में यह ध्यान मानव जीवन के लिए बहुत उपयोगी है। श्वांसों की यह क्रिया मानव जीवन को कई प्रकार के रोगों और पीड़ाओं से मुक्त कराती है। Swawagahan जीवन एक अनूठा हिस्सा है। इस ध्यान के प्रयोग से शरीर में एक नई ऊर्जा शक्ति का संचारण होता है और हमारे भावों को नवीनता मिलती है। |
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स्वावगाहन |
स्वावगाहनSelf-Contemplation Course - SCC - II Semi Advance Course Self-Contemplation Course - SCC - II के दूसरे चरण में हम अपने मन व शरीर को शांति व सुख प्रदान करने का एक अनूठा प्रयास करते हैं। इसके द्वारा हम अपने हृदय अंतरतम तक जाते हैं जहां अपनी पहचान पाकर शिक्षार्थी पारलौकिक सुख का आनंद लेते हैं। इसके फलस्वरूप हमें अपनी मानसिक तनावों व शारीरिक व्याधियों से मुक्ति मिलती है। Self-Contemplation Course - SCC - II Semi Advance Course :- इस कोर्स की अवधि सात दिनों की है बेसिक कोर्स की सभी क्रियाओं के अलावा इस कोर्स के तीन चरण और होगें हैं: १. सूक्ष्म यौगिक क्रियाएं २. आरोग्यकारी आसन ३. मुद्रायें ४. प्राणविद्या प्रयोग ५.स्वावगाहन क्रिया १. निज शक्ति जागरण प्रयोग २. साक्षी भाव का एहसास ३. अपना परिचय पाने की जिज्ञासा का सशक्तिकरण प्रयोग ४. निज स्वरूप के ज्ञान की प्रतिष्ठा का प्रयोग ५. संकल्प की दृढ़ता से मुक्ति की युक्ति का वरण Self-Contemplation Course - SCC - II Semi Advance Course : के तीन चरण - १. सत्संग : सत्संग हमारी ऊर्जा शक्ति को संचित करता है। जिससे हमारी सोच सकारात्मक बनती है और हम अपने जीवन को एक सही दिशा की ओर आगे बढ़ाते हैं। २. सुमिरण : सुमिरण हमें अपने आप से परिचित कराने की एक गूढ़ व महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इससे हमारे भीतर के मार्ग को प्रकाश मिलता है और अपने से तादात्मय करने में आसानी होती है। ३. सेवा : सेवा के माध्यम से हमारे कष्टों को दूर करने के लिये एक ऐसी ठोस पृष्ठभूमि तैयार होती है। जो हमारे किये गये पापों का प्रायश्चित कर प्राप्त होने वाले अशुभ कर्मफलों का शमन करती है। - शरीर, मन व दिमाग को संतुलित कर हमारी सोच को सकारात्मक दिशा प्रदान करती है और जीवन की प्राणदायिनी ज्योति बन हमारी उम्र भी बढ़ाती है। 'स्वयं की खोज' : सुमिरन शक्ति ''सुमिरन (ध्यान) एक ऐसी कला है जो हमें कुछ न करने का बोध कराती है। सुमिरन (ध्यान) का परिणाम स्वयं की असली पहचान के रूप में हासिल होती है।'' - सुमिरन (ध्यान) एक ऐसी क्रिया है जो हमारे चित् को शून्य पर ला कर खड़ा कर देती है। सुमिरन (ध्यान) शांत मस्तिद्गक व शांत मन का प्रतीक है। सुमिरन (ध्यान) शक्ति को जीवन में पूर्ण रूप से उतार कर, जीवन को सरल व सुंदर बनाया जा सकता है। बिना प्रयास के हम चौबीसों घंटे सुमिरन कर सकते हैं। यह एक सरल क्रिया है जो हम सोते, जागते, उठते, बैठते कर सकते हैं। यह क्रिया हमको तेजस्विता की ओर ले जाती है। सुमिरन (ध्यान) शक्ति के लाभ : - सुमिरन (ध्यान) का जीवन में प्रयोग हमें बुद्धिजीवी बनाता है। जब हम किसी से बात करें और साथ में सुमिरन भी करें तो वह निश्चित रूप से हमारा मार्गदर्शन भी करता है। - सुमिरन (ध्यान) करने से छात्रों का ध्यान पढ़ाई की ओर एकाग्र होता है। - यदि सुमिरन (ध्यान) सोते वक्त किया जाए तो हमारे शरीर, मन व दिमाग को पूरी तरह से विश्राम मिलता है और नींद की क्वालिटी बदल जायेगी। जो नींद आठ घंटे में पूरी नहीं होगी वह एक घंटे में पूरी हो जायेगी और दिनभर अपने आपमें तरोताजा महसूस करेंगे। - 'सुमिरन (ध्यान) ही मार्ग है शांति का। - सुमिरन (ध्यान) ही खोज है स्वयं की। - सुमिरन (ध्यान) ही द्वार है परमानंद का। - सुमिरन (ध्यान) करते वक्त हमारे नेत्र एकाग्र हों, हमारी श्वांसों की गति में स्थिरता हो, शरीर शांत हो और मन शांत हो - तभी हम अपने आप को परमानंद की ओर ले कर जा सकते हैं। |
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प्राण जीवन का आधार हैं पांच प्राण और पांच कशे को समझने से मिटती हैं सारी समस्याएं कशे... |
प्राण जीवन का आधार हैं पांच प्राण और पांच कशे को समझने से मिटती हैं सारी समस्याएं कशे और प्राण का संक्षिप्त परिचय और भेदयह कितनी विचित्र बात है कि जो प्राण हमारे अंदर निरंतर संचारित हो रहे हैं, उनसे हमारा परिचय बहुत कम है। प्राणों की वजह से ही हम प्राणियों का अस्तित्व है किंतु इसके गुण, स्वभाव व शक्ति आदि से हम पूरी तरह अनजान हैं। चूंकि हमारे अंदर प्राणों का प्रवाह बिना किसी प्रयास के हो रहा है, इसके लिए हमने न कोई धन खर्च किया है और न कोई परिश्रम किया है। यह तो प्रकृति द्वारा हमें अनायास और मुफ्त में प्राप्त हुआ है। मुफ्त की किसी चीज की खास कद्र नहीं होती। इसी वजह से संभवतः हम अपने मुफ्त में मिले प्राणों को विशेष महत्व नहीं देते। लेकिन हमारे प्राण कितने कीमती हैं, इसका अहसास उस समय होने लगता है जब ये बंद होने लगते हैं। उस समय पता चलता है कि हमारे प्राण कितने बेशकीमती हैं। हम सब जानते हैं कि वह परम सर्वोच्च व सर्वशक्तिमान सत्ता जिसके सनातन संकल्प से चराचर जगत के समस्त पदार्थ व प्राणियों का प्रादुर्भाव हुआ है, जिसकी सनातन सत्ता से सब कुछ उसकी इच्छानुसार बरकरार है तथा जिसकी योजना से सबका समाहार हो रहा है, वह वास्तव में कैसा है, ठीक-ठीक कहा नहीं जा सकता है। हां, जिस पर उसकी विशेष कृपा हो जाती है, वह उसकी अनुभूति अवश्य कर लेता है। किंतु उसे अभिव्यक्त कर पाने की सामर्थ्य किसी भी प्राणी में मौजूद नहीं है। वह परमसत्ता पूरी तरह स्थिर है या गतिशील, यह नहीं कहा जा सकता। फिर भी उसके होने का आभास सृष्टिचक्र के प्रवर्त्तन व विश्व प्राणों के स्पंदनों से ही परिलक्षित होता है। सच कहिए तो वह परमसत्ता ही विश्व प्राण बन कर सारी सृष्टि में गतिशीलता पैदा कर रही है। इस प्रकार स्पष्ट है कि हमारे अंदर जो प्राण संचालित हो रहे हैं, उसी विश्व प्राण से उत्पन्न हुए हैं। परम पुरुष व प्रकृति के संयोग से उत्पन्न होने वाले उस आदि स्पंदन से ही प्राणों का जन्म हुआ है। जो स्वभाव से ही गतिशील हैं। हर प्रकार की गतिशीलता, चाहे वे कहीं भी दृष्टिगोचर हों, प्राण ही उसके पर्याय बन गये हैं। प्राण मूलतः स्पंदन युक्त होते हैं। प्राणों में गत्यात्मकता होती है। इस सृष्टि में जो गति हमें परिलक्षित होती है, वह वायु में पायी जाती है। यही वजह है कि लोग वायु को भी अक्सर प्राण कह कर ही पुकारा करते हैं। हमारे शरीर में होने वाले स्पंदन मुखयतः हमारे श्वांस-प्रश्वांसों के रूप में ही सर्वप्रथम दृष्टिगोचर होते हैं। एक जीवित व्यक्ति में गतिशीलता होती है, मुर्दे में नहीं। जीवित व्यक्ति की गतिशीलता कई प्रकार की होती है। इसी वजह से प्राणों की विवेचना करते हुए हमारे मनीषियों ने प्राणों के पांच भेद बतलाये हैं। वास्तव में प्राण शक्ति तो एक ही होती है किंतु उनके कार्यों व क्रियाशीलता के क्षेत्रों के भेद से ही प्राणों के पांच भेद व पांच उपभेद बतलाए गये हैं। अब आपके समक्ष प्राणों के पांच भेदों, कार्यों तथा शरीर में उनकी क्रियाशीलता के क्षेत्रों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहा हूं - १. प्राण :- हमारे शरीर में कंठ से लेकर हृदय तक जो वायु कार्य करती है, उसे प्राण कहते हैं। प्राणों का यह पहला भेद है और यह नासिका-मार्ग, कंठ, स्वर-तंत्र, वाक-इन्द्रिय, अन्न-नलिका, श्वसन-तंत्र, फेफड़ों एवं हृदय को क्रियाशील कर उन्हें शक्ति प्रदान करता रहता है। २. अपान :- प्राणों के दूसरे भेद को अपान नाम से जाना जाता है। यह हमारी नाभि के नीचे से लेकर पैरों के अंगूठों तक शरीर को क्रियाशील रखता है। ३. उदान :- हमारे शरीर में कंठ के ऊपर से लेकर सिर तक देह में अवस्थित होकर प्राणों का यह तीसरा भेद उदान कहा जाता है जो अपनी क्रियाशीलता के क्षेत्र में जीवनी शक्ति का समुचित संचार करता है। यह प्राण हमारे कंठ से ऊपर शरीर के समस्त अंगों यानी नेत्र, नासिका व सम्पूर्ण मुख मण्डल को वांछित ऊर्जा व तेज प्रदान किया करता है। हमारे शरीर में अवस्थित पिच्युटरी व पिनियल ग्रंथि सहित पूरे मस्तिष्क को भी यह उदान प्राण ही सक्रिय किया करता है। ४. समान :- हमारे शरीर में अवस्थित प्राणों के चौथे भेद को समान कहा जाता है जो हृदय के नीचे से लेकर नाभि तक शरीर में संचारित हो, उसे वांछित शक्ति प्रदान किया करता है। यह प्राण यकृत, आन्त्र, प्लीहा व अग्न्याशय सहित सम्पूर्ण पाचन तंत्र की आन्तरिक क्रिया प्रणाली को संचालित करते हुए वांछित शक्ति प्रदान करता है। ५. व्यान :- हमारे शरीर में अवस्थित प्राणों के पांचवें भेद को व्यान कहा जाता है जो पूरे शरीर में व्याप्त रहते हुए जीवनी शक्ति का संचालन करता है। शरीर की समस्त गतिविधियों को प्राणों का यह भेद नियमित तथा नियंत्रित करता है। हमारे सभी अंगों, मांसपेशियों, तन्तुओं, संधियों एवं नाड़ियों को गतिशील व क्रियाशील रखते हुए सभी आवश्यक ऊर्जा व शक्ति का हमारे शरीर में संचार किया करता है। प्राणों के इन पांचों भेदों के अतिरिक्त हमारे शरीर में देवदत्त, नाग, कृंकल, कूर्म व धनंजय नाम के प्राणों के पांच उपभेद हैं जो क्रमशः छींकने, पलक झपकाने, जंभाई लेने, खुजलाने, हिचकी लेने आदि की क्रियाओं को संचालित किया करते हैं। इसी संदर्भ में हमें इन बातों को भी समझ लेना जरूरी है कि हमारे शरीर के अंदर पांच कोश हैं जिनसे हमारी आत्मा घिरी हुई जीवात्मा संज्ञा को प्राप्त करती है। शरीरस्थ पंचकोशों में से एक प्राणमय कोश से ही हमारे पंच प्राणों के समस्त कार्य संबंधित होते हैं और प्राण विद्या में इन्ही प्राणों एवं प्राणमय कोश को शुद्ध, स्वस्थ और निरोग रखने के प्रमुख कार्य की जानकारी दी जाती है। प्राण विद्या के संबंध में और कुछ जानने के पहले आएं, हम अपने शरीर में अवस्थित पंच कोशों से भी परिचित हो लें। पंचकोश क्या हैंहमारे प्राचीन धर्मग्रंथों के कई प्रसंगों में यह बात बड़े स्पष्ट रूप से घोषित की गयी है कि परमपिता परमात्मा, जो परम चैतन्य व निर्विकार होने के साथ-साथ आनंद के महासागर भी हैं, उसी का अंश जीव है जो अपने अंशी की तरह ही अविनाशी कहा गया है। त्रिगुणमयी माया से मोहित होने की वजह से ईश्वर के अंश आत्मा पर विकारों का एक आवरण चढ जाता है, जिसकी वजह से आत्मा ही जीवात्मा कही जाने लगती हैं। हमारे प्राचीन मनीषियों ने हमारी विशुद्ध आत्मा पर पड ने वाले उन आवरणों को कोश या शरीर भी कहा है जिनकी संखया पांच बतलायी गयी है। अधिकांश लोग उन्हें पंचकोश कहकर ही इंगित किया करते हैं। ये पांचों इस प्रकार हैं - १. अन्नमय कोश :- आकाश, वायु, अग्नि, जल एवं पृथ्वी - इन पंच महाभूतों से निर्मित हमारे भौतिक स्थूल शरीर का यह पहला आवरण अन्नमय कोश नाम से प्रसिद्ध है। हमारे स्थूल शरीर की त्वचा से लेकर हड्डियों तक सभी पृथ्वी तत्व से संबंधित हैं। संयमित आहार-विहार की पवित्रता, आसन-सिद्धि और प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से अन्नमय कोश की आवश्यक शुद्धि होती है। जब हमारे अन्नमय कोश की शुद्धि हो जाती है तब हमारे स्थूल शरीर का समुचित विकास होता है। २. प्राणमय कोश :- हमारे शरीर का दूसरा सूक्ष्म भाग प्राणमय कोश कहा जाता है। हमारे स्थूल शरीर और हमारे मन के बीच में प्राणमय कोश है जो एक माध्यम का काम करता है। ज्ञान और कर्म के सम्पादन का समस्त कार्य प्राण से बना प्राणमय कोश ही संचालित किया करता है। हमारे द्वारा श्वांसों को लेने व छोड़ने की प्रक्रिया में भीतर-बाहर आने-जाने वाला प्राण हमारे शरीर के समस्त स्पंदनों व क्रियाशीलता को बनाये रखने और आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने के महत्वपूर्ण कार्य को संपादित किया करता है जो स्थान तथा कार्य के भेद से १० प्रकार का माना जाता है। उनमें व्यान, उदान, प्राण, समान और अपान मुखय प्राण हैं तथा धनंजय, नाग, कूर्म, कृंकल और देवदत्त उपप्राण कहे जाते हैं। हमारे प्राणों द्वारा संपादित होने वाले प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं - भोजन को सही ढंग से पचाना, शरीर में रसों को समभाव से विभक्त करना तथा उन्हें वितरित करते हुए देहेन्द्रियों को पुष्ट करना, खून के साथ मिलकर देह में हर जगह घूम-घूम कर वैसे मलों का निष्कासन करना, जो देह के विभिन्न भागों में एकत्रित होकर अथवा खून में मिल कर उसे दूषित कर दिया करते हैं। इतना ही नहीं, देह के माध्यम से विविध विषयों के भोग का कार्य भी हमारे प्राण ही संपादित किया करते हैं। प्राणविद्या की साधना के नियमित अभ्यास से हमारे प्राणमय कोश की कार्यशक्ति में भी समुचित वृद्धि होती है। ३. मनोमय कोश :- हमारे सूक्ष्म शरीर के इस पहले क्रिया प्रधान भाग को हमारे प्राचीन मनीषियों ने मनोमय कोश कहा है। मनोमय कोश में मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त को परिगणित किया गया है, जिन्हें अन्तःकरण चतुष्टय भी कहते हैं। पांच कर्मेन्द्रियां हैं, जिनका संबंध संसार के बाहरी व्यवहार से अधिक रहता है। मनोमय कोश पूरी तरह अन्तःकरण के क्रिया-कलापों के संपादन में अपनी महती भूमिका अदा करता है। ४. विज्ञानमय कोश :- हमारे सूक्ष्म शरीर का दूसरा भाग ज्ञान प्रधान है और उसे हमारे प्राचीन मनीषियों ने विज्ञानमय कोश कहा है। इसकी मुखय माध्यम ज्ञानयुक्त बुद्धि एवं ज्ञानेन्द्रियां हैं। जो मनुष्य पूरी समग्रता से समझ बूझ कर विज्ञानमय कोश का उचित ढंग से इस्तेमाल करता है और असत्य, भ्रम, मोह, आसक्ति आदि से पूरी तरह दूर रहकर हमेशा ध्यान आदि योगक्रियाओं का अभ्यास किया करता है, उसको उचित-अनुचित का निर्णय करने वाली विवेक युक्त बुद्धि बड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती है। ५. आनन्दमय कोश :- हमारे प्राचीन मनीषियों ने इस कोश को हृदय गुहा, हृदयाकाश, कारण शरीर, लिंग शरीर आदि नामों से भी पुकारा है। यह हमारे हृदय प्रदेश में अवस्थित होता है। हमारे आन्तरिक जगत से इस कोश का संबंध बहुत अधिक रहता है और बाह्य जगत से बहुत कम। हमारे जीवित रहने, यानी हमारे स्थूल शरीर के कायम रहने और संसार के समस्त व्यवहारों के संपादित होने वाले क्रिया-कलाप भी इसी कोश पर अवलम्बित रहते हैं। किंतु इस कोश तक पहुंच पाना सबके लिए संभव नहीं हो पाता। वहां वही लोग पहुंच पाते हैं जो नियमित रूप से ध्यान आदि की साधना करते हुए निर्बीज समाधि तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं। जो भी बड़भागी मनुष्य वहां तक पहुंचने में सफल होता है, वही हमेशा आनंद में लीन रहने वाली जीवन-स्थिति का उपभोग करता है। इस आनंदमय कोश तक पहुंचने में सफल होने वाले बड़भागी मनुष्य का जीवन एक आनंद दायक खेल की तरह उसके रग-रग में रोमांच का जादू भर देता है। वह जीवन के नैसर्गिक संगीत के सुर-ताल पर थिरकते हुए अपनी जिंदगी का सफर एक कुशल कलाकार की तरह पूरा करता है। उसके लिए जीवन का सारा रहस्य उजागर हो जाता है और जीवन का सारा विज्ञान हाथ में रखे आंवले के समान उसके लिए स्पष्ट हो जाता है। इसलिए मैं सबको प्राणविद्या की मात्र सैद्धांतिक रूप से जानकारी नहीं देता बल्कि उसे - इस व्यावहारिक रूप से भी समझ लेने के लिए प्रेरित करता हूं। प्राणविद्या के क्षेत्र में अग्रसर होने के लिए आवश्यक है कि हम इसके सभी पहलुओं को पूरी तरह समझ उससे संबंधित हर बात की समुचित जानकारी प्राप्त कर लें। |
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ये मुद्रायें अनन्त की गहराइयों से जोड़ती हैं आपको भवरोगों के साथ-साथ संपूर्ण रोगों से... |
ये मुद्रायें अनन्त की गहराइयों से जोड़ती हैं आपको भवरोगों के साथ-साथ संपूर्ण द्गाारीरिक रोगों से छुटकारा दिलाती हैंहमारी लौकिक व पारलौकिक उन्नति का महल जिस बुनियाद पर खड़ा होता है, वह है हमारा स्वास्थ्य। जब हम द्गाारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रहते हैं तभी धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति होती है। कोई अस्वस्थ व्यक्ति किसी भी पुरुषार्थ की समुचित उपलब्धि नहीं कर सकता। यही वजह है कि स्वस्थ रहने के लिए तरह-तरह के उपाय मनुष्य द्वारा अनादि काल से उपयोग में लाये जा रहे हैं। औषधि रहित उपचार की पद्धति संभवतः सबसे प्राचीन व नैसर्गिक है क्योंकि औषधियों की खोज स्वाभाविक रूप से मनुष्य के बौद्धिक विकास के बाद ही प्रारंभ हुई। वर्तमान युग में योगासन व प्राणायाम आदि से रोगों का उपचार सबसे निरापद माना जा रहा है क्योंकि पर्यावरण के प्रदूषित हो जाने की वजह से दवा के रूप में इस्तेमाल होने वाली जड़ी-बूटियां भी अपनी नैसर्गिक गुणवत्ता खो चुकी हैं। मानव द्वारा प्रकृति के साथ हुई बेतहाद्गाा छेड छाड की वजह से बढ ते प्रदूषण के कारण केवल मनुष्य के स्वास्थ्य का संतुलन ही नहीं बिगड ा है बल्कि पृथ्वी पर मौजूद सभी वस्तुओं की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है। अतः उनकी सहायता से किये जाने वाले रोगोपचार भी पहले की तरह प्रभावी नहीं होते। इसलिए योग द्गाास्त्रों में निर्दिष्ट आसनों व प्राणायाम आदि के द्वारा आरोग्य लाभ की विधि ही सर्वोत्कृष्ट है। हमारे ऋषियों ने धार्मिक-कर्मकांडों, अनुष्ठानों व योगासनों में प्रयुक्त होने वाली कुछ हस्त-मुद्राओं का उल्लेख किया है जो आद्गचर्यजनक रूप से हमारे स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती हैं। यथा मुद्रा बिना तु यज्जाप्यं प्राणायाम सुरार्चनं । योगोध्यानासनं चापि निच्च्फलानि तु भैरव ॥ ॥कालिका पुराण॥ नादीक्षितस्तु रचयेत् क्षुभ्यन्ति हि देवताः यस्मात् । मुद्राः भवन्ति विफलाः सोह्णपिरोगीदरिद्रः स्मात् ॥ ॥मन्त्र दर्पणम्॥ उक्त द्गलोकों से स्पष्ट हो जाता है कि हमारे ऋषियों द्वारा निर्दिष्ट हस्त-मुद्राएं बनाने का विधान निष्प्रयोजन नहीं है। मुद्रा के बिना किया गया जप, तप, योग, ध्यान, आसन व देवताओं की पूजा निष्फल हो जाती है। उचित मुद्रा-प्रदर्द्गान से देवता ही नहीं, राक्षस भी प्रसन्न हो जाते हैं। मुद्राओं से मूर्छित व्यक्ति में भी चेतना का संचार किया जा सकता है और रोगी व्यक्ति को आसानी से स्वस्थ किया जा सकता है। 'मुद्रा' द्गाब्द से सामान्य तौर पर किसी आकृति विद्गोष का ही बोध होता है। जो किसी वस्तु या वस्तु समूह को किसी खास आकार में रखने से निर्मत होती है। यदि मनुष्य भी अपने किसी एक या अनेक अंगों को किसी आकृति विद्गोष में सजा देते हैं तो उसे भी मुद्रा कहा जाता है। जब 'मुद्रा' द्गाब्द का अर्थ केवल द्गारीर के सापेक्ष्य में लिया जाता है तो इससे द्गारीर के विभिन्न अंगों से बनी आकृतियों और हर्ष, द्गाोक, क्रोध व भय आदि आवेद्गाों से बनी मुखाकृतियों का बोध होता है। इस दृष्टिकोण से योग द्गाास्त्र के सभी आसन और नृत्य कला की सभी भाव-भंगिमाएं भी द्गारीर की मुद्राओं में ही परिगणित होते हैं। किन्तु स्मरण रहे, योग में प्रयुक्त 'मुद्रा' द्गाब्द नृत्य आदि की मुद्राओं से सर्वथा भिन्न है। योग द्गाास्त्र में अनेक मुद्राओं का वर्णन है जिनमें कुछ मुद्राएं केवल हाथ और उसकी अंगुलियों द्वारा ही बनायी जाती है। उन मुद्राओं को 'हस्त मुद्राएं' कहते हैं। हम यहां उन्हीं हस्त मुद्राओं की सहायता से रोगों का उपचार करने के संबंध में चर्चा कर रहे हैं। हस्त मुद्राओं का उपयोग धार्मिक-कर्मकांडों, तांत्रिक-अनुष्ठानों व योग के आसन, प्राणायाम व बंध आदि क्रियाओं में किया जाता है। हमारे स्वास्थ्य को सुधारने में हस्त-मुद्राओं का जो विद्गोष महत्व है, उसे नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। जिस प्रकार आसन व प्राणायाम आदि के नियमित व समुचित अभ्यास से साधकों को आरोग्य लाभ के साथ आभ्यांतरिक उन्नति में भी सहायता मिलती है, उसी प्रकार हस्त मुद्राएं भी उनके द्गारीर व मन के अंदर तरह-तरह के रोगों से मुक्त होने और उनसे बचने की क्षमता प्रदान करती हैं। हस्त मुद्राएं हमारे द्गारीर व मन को नीरोग ही नहीं रखतीं बल्कि हमारे भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग भी प्रद्गास्त करती हैं। हमारे प्राचीन द्गाास्त्रों में इस बात की पुष्टि भी अनेक ढंग से की गयी है कि हस्त मुद्राएं द्गारीर के अन्तरंग सूक्ष्म स्पन्दनों को प्रभावित करने वाले उन केन्द्रों को सक्रिय करने वाली विद्गोष प्रकार की हस्त भंगिमाएं हैं जो हमारी हथेलियों व अंगुलियों पर स्थित होते हैं। इनसे हमें अपने अन्दर की उस सुषुप्त चैतन्य ऊर्जा को जगाने में सहायता मिलती जो हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। पाप का नाद्गा और देवताओं को मुदित करने की द्गाक्ति से युक्त होने के कारण हाथ की अंगुलियों से बनने वाली इन विद्गिाष्ट आकृतियों को संबोधित करने के लिए द्गाास्त्रकारों ने मुद्रा नाम दिया है। इनके प्रभाव से हमारे सारे लौकिक व पारलौकिक प्रयोजन सरलता से सफल होते हैं। मुद्राओं के प्रभाव से आध्यात्मिक और भौतिक दोनों प्रकार की अभिसिद्ध होती है। मुद्राओं से देवताओं का आह्नान भी किया जाता है। हमारे द्गारीर में बहुत सारी क्रियाएं होती हैं और बहुत सारे द्गाक्ति केन्द्र स्थित हैं जिसको जगाने के लिए अलग-अलग मुद्राएं हैं। हमारा द्गारीर जो कि पाँच तत्वों के मेल से बना है, यदि इसमें किसी तत्व की कमी, अधिकता या पूर्व नियत अनुपात में असंतुलन पैदा हो जाता है तो हमारा द्गारीर तरह-तरह के रोगों का द्गिाकार हो जाता है, हम अस्वस्थ हो जाते हैं। हमारे हाथों की पाँचों उंगुलियां जिन अलग-अलग तत्वों को प्रभावित करने वाले केंद्रों से युक्त हैं उन्हें चित्र में स्पष्ट किया गया है। उन केंद्रों पर दबाव पड़ने या उनके एक दूसरे से जुड ने पर एक अदृद्गय चेतना तरंग जाग्रत होती है जो हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करती है। अब हम उंगलियों से बनने वाली मुद्राओं से रोगों का इलाज करने की विधि बता रहे हैं ताकि लोग इनका प्रयोग कर निरोगी काया के स्वामी बन सकें। १. ज्ञान मुद्रा - पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर अंगूठे के पास वाली तर्जनी अंगुली के अग्र भाग को अंगूठे के अग्र भाग से मिलाकर जो मुद्रा बनायी जाती है उसे ज्ञान मुद्रा कहते हैं। अंगूठे व तर्जनी को मिलाकर हल्का दबाव दें। शेष तीनों अंगुलियों को सीधी रखें। यह मुद्रा लगाने से अनिद्रा, कमजोर, याददाशत, सिर दर्द, क्रोध आदि दूर करने व एकाग्रता बढ़ाने में विशेष सहायता मिलती है। २. पृथ्वी मुद्रा - पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर सबसे छोटी अंगुली के पास वाली अनामिका अंगुली के अग्र भाव को अंगूठे के मूल में सटाकर अंगूठे से हल्का दबाव देने से पृथ्वी मुद्रा बनती है। इस दौरान हाथों की शेष अंगुलियां सीधी और तनी हुई रहनी चाहिए। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से पेट की बीमारी, मोटापा, शारीरिक और दिमागी कमजोरी आदि दूर करने में सहायता मिलती है। ३. प्राण मुद्रा - पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर सबसे छोटी अंगुली के पास वाली अनामिका अंगुली के अग्र भाग को अंगूठे के मूल में सटाकर अंगूठे से हल्का दबाव देने से पृथ्वी मुद्रा बनती है। इस दौरान हाथों की शेष अंगुलियां सीधी और तनी हुई रहनी चाहिए। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से पेट की बीमारी, मोटापा, शारीरिक और दिमागी कमजोरी आदि दूर करने में सहायता मिलती है। ४. वायु मुद्रा - यह मुद्रा भोजन के पश्चात् वज्रासन में बैठकर की जाती है। यह मुद्रा लगाने के लिए अंगूठे के पास वाली तर्जनी अंगुली को मोड़कर अंगूठे के मूल में सटाते हुए हल्का दबाव देते हैं। इस मुद्रा का नियमित अभ्यास करने से पेट के अल्सर, साइटिका, गठिया और लकवा आदि रोगों के शमन में बहुत सहायता मिलती है। ५. अपान मुद्रा - सिद्धासन में बैठकर बीच वाली सबसे बड़ी अंगुली मध्यमा व अनामिका अंगुलियों को एक साथ अंगूठे के अग्र भाग के साथ मिलाएं और हल्का दबाव दें तथा तर्जनी और कनिष्ठा अंगुलियां तनी रहनी चाहिए। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से कब्ज, बवासीर, मधुमेह, किडनी की बीमारी और हृदय रोगो से मुक्ति में सहायता मिलती है। ६. अपान वायु मुद्रा - अपान वायु मुद्रा लगाने के लिए अपान मुद्रा और वायु मुद्रा को एक साथ मिलाकर अभ्यास किया जाता है। इस मुद्रा के केवल कनिष्ठा यानि सबसे छोटी अंगुली सीधी रहती है। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से हृदय, वात, पेट गैस, सिर दर्द, दमा, उच्च रक्तचाप तथा दिल की कमजोरी संबंधी व्याधियां दूर होने में सहायता मिलती है। ७. मृगी मुद्रा - यह मुद्रा लगाने के लिए सुखासन में बैठकर मेरूदण्ड सीधा करके अनामिका व मध्यमा अंगुली के मध्य भाग को अंगूठे के अग्र भाग से मिलाते हुए हल्का दबाव दिया जाता है। इस मुद्रा के नियमित अभ्यास से मिरगी रोग को जड़ से समाप्त करने में सभी सहायता मिलती है। साथ ही यह चित्त शांत करता है। ८. आकाश मुद्रा - यह मुद्रा लगाने के लिए वज्रासन में बैठकर अंगूठे के अग्र भाग से सबसे बीच वाली मध्यमा अंगुली के अग्र भाग को मिलाएं और थोड़ा दबाव दें। यह मुद्रा लगाने से काम के समस्त रोग दूर होते हैं। इस मुद्रा से हृदय रोग दूर करने व हड्डियां मजबूत करने में भी सहायता मिलती है। ९. वरूण मुद्रा - यह मुद्रा लगाने के लिए सुखासन या स्वस्तिकासन में बैठकर आंखे बंद व गर्दन सीधी करके कनिष्ठा अंगुली और अंगूठे के अग्र भाग को आपस में मिलाकर हल्का दबाव देना चाहिए। इस मुद्रा का नियमित अभ्यास करने से चर्म रोग, रक्त विकार व चिर यौवन पाने में सहायता मिलती है। अब मैं आपको इस कोर्स के अद्भुद प्राण विद्या प्रयोग जो यौगिक क्रियाओं पर आधारित है उसके बारे में बताने जा रहा हूं उससे पहले प्राण क्या है, प्राणों का जीवन में क्या महत्व है, साथ ही प्राणों का संक्षिप्त परिचय एवं प्राणों द्वारा संपादित होने वाले प्रमुख कार्य व इनमें पंचकोषों का क्या महत्व है व पंचकोश क्या है इसपर थोड़ी चर्चा करूंगा उसके बाद इस कोर्स के जो सात चरण हैं इनके व्यावहारिक पक्ष को समझाऊंगा। |
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प्राणों की विद्या के ज्ञान के साथ-साथ बड़े महत्वपूर्ण हैं ये तीन बंध प्राण साधना में बैठने की... |
प्राणों की विद्या के ज्ञान के साथ-साथ बड़े महत्वपूर्ण हैं ये तीन बंध प्राण साधना में बैठने की सुव्यवस्थित व्यवस्था कैसी हो और प्राण साधना के सात अनमोल प्रयोगहमारे प्राचीन मनीषियों ने अष्टांग योग को अपने जीवन में व्यवहारिक रूप से अपना कर उससे होने वाले लाभों का अनेक प्रसंगों में जिक्र किया है। उन्होंने आने वाली पीढ़ियों के लाभ के लिए योग साधना के विविध अंगों के सैद्धांतिक व - इस व्यावहारिक नियमों का भी उल्लेख किया है जिसका प्राणविद्या की साधना में उपयोग कर हम आज भी लाभान्वित हो सकते हैं। योग के कई आसनों व प्राणायामों के अभ्यास के समय उससे प्राप्त होने वाली शक्तियों के बहिर्गमन को रोकने के लिए प्राचीन ग्रंथों में कुछ बंधों का भी वर्णन किया गया है। प्राणविद्या के क्षेत्र में आगे बढ ने के लिए तीन बंध विशेष उपयोगी हैं। बंध लगाकर किये जाने वाले प्राणविद्या अभ्यास प्रक्रिया के विविध चरणों के अभ्यास से हमारे शरीर में जिस आभ्यांतरिक शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, उसका बहिर्गमन रूकता है और वह शक्ति अन्तर्मुखी हो जाती है। फलस्वरूप हम बड ी आसानी से प्राणविद्या के विविध पहलुओं की जानकारी बड ी तीव्रता से हासिल करने में सफल होते हैं। बन्ध का अर्थ ही है बांधना या रोकना। जो बंध प्राणविद्या में अत्यन्त सहायक हैं, उनका परिचय आपके समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है। जालन्धर बंधयह बंध लगाने के लिए हमें सबसे पहले पद्मासन या सिद्धासन में सीधे बैठकर श्वांस को अन्दर भर लेना चाहिए। फिर दोनों हाथ घुटनों पर टिका कर अपनी ठोडी को थोड़ा नीचे झुकाते हुए कंठकूप में लगा लेना चाहिए। इसे ही जालन्धर बंध कहा जाता है। फिर अपनी दृष्टि को भौंहों के बीच में केन्द्रित कर लेना चाहिए। उस समय अपनी छाती आगे की ओर तनी हुई रखना चाहिए। यह बंध कंठस्थान के नाड ी जाल के समूह को बिखरने नहीं देता, हमेशा बांधे रखता है। इस बंध के अभ्यास में हमें ये लाभ मिलते हैं - १. कण्ठस्वर मधुर, सुरीला और आकर्षक हो जाता है। २. इस बंध से कण्ठ संकुचित हो जाते हैं जिससे इड ा, पिंगला नाडि यों के बन्द होने पर प्राण का सुषुम्णा में प्रवेश हो जाता है। ३. यह बंध गले के सभी रोगों में लाभ पहुंचाता है। थायराइड, टांसिल आदि रोगों में भी इससे विशेष लाभ मिलता है। ४. यह बंध शरीर में अवस्थित विशुद्ध चक्र को जगाने में योगाभ्यासियों की विशेष मदद करता है। उड्डीयान बन्धइस बंध को लगाने से हमारे प्राण उठकर बड़ी आसानी से सुषुम्णा में प्रविष्ट हो जाते हैं। यह बंध लगाने के लिए सबसे पहले हमें खड े होकर अपने दोनों हाथ सहजभाव से दोनों घुटनों पर रख देना चाहिए। फिर श्वांस बाहर निकालकर पेट को ढीला छोड देना चाहिए। उसके बाद हमें जालन्धर बंध लगाते हुए अपनी छाती को थोड ा ऊपर की ओर उठाना चाहिए। पेट को कमर से ऊपर लगाते हुए उठाना चाहिए। फिर पुनः श्वांस लेकर पूर्ववत् इस क्रिया को दोहराना चाहिए। प्रारंभ में इसका अभ्यास हमें मात्र तीन बार करना चाहिए। धीरे-धीरे ही इसका अभ्यास बढ ाना चाहिए। इसी प्रकार हमें पद्मासन या सिद्धासन में बैठकर भी इस बंध को लगाने का अभ्यास करना चाहिए। ये बंध लगाने से ये लाभ होते हैं - १. यह बंध पेट संबंधी समस्त रोगों को दूर कर सकता है। २. यह बंध योगाभ्यासियों के प्राणों को जागृत कर मणिपूर चक्र का भी शोधन करता है। मूलबंधयह बंध लगाने के लिए हमें सिद्धासन या पद्मासन में बैठकर बाह्य या आभ्यन्तर कुम्भक करते हुए, गुदाभाग एवं मूत्रेन्द्रिय को ऊपर की ओर आकर्षित करना चाहिए। यह बंध लगाने से नाभि के नीचे वाला हिस्सा खिंच जाता है। इसे प्राणायाम के बाह्यकुंभक के साथ लगाने में सुविधा रहती है। अधिक देर तक इसका अभ्यास करने के लिए यह बंध लगाने का अभ्यास किसी कुशल मार्गदर्शक के सान्निध्य में ही करना उचित है। यह बंध लगाने से ये लाभ होते हैं - १. यह बंध लगाने से अपान वायु का ऊर्ध्वगमन होता है और उसकी प्राण के साथ एकता होती है। यह बंध योगाभ्यास करने वालों के मूलाधार चक्र को जाग्रत कर उन्हें कुण्डलिनी जागरण में बहुत सहायता देता है। २. यह बंध कब्ज और बवासीर आदि रोगों को दूर करने तथा जठाराग्नि को तेज करने में भी विशेष उपयोगी है। ३. यह बंध वीर्य की गति ऊपर की ओर करता है। अतः ब्रह्मचारी के लिए विशेष महत्व रखता है। महाबन्धजब जालंधन बंध, उड्डीयान बंध और मूलबंध तीनों बंध को एक ही साथ किसी ध्यान वाले आसन में बैठकर लगाये जाते हैं तो उसे महाबंध कहा जाता है। इससे वे सभी लाभ मिल जाते हैं, जो तीनों बंधों से मिला करते हैं। प्राणायाम की कुंभक क्रिया में ये तीनों बंध लगाये जाते हैं। यह बंध लगाने से ये लाभ होते हैं - १. इससे प्राणों की गति ऊपर की ओर उठ जाती है यानी प्राण ऊर्ध्वगामी बन जाता है। २. यह वीर्य की शुद्धि और बल की वृद्धि में भी विशेष सहायक होता है। ३. इससे इड़ा, पिंगला और सुषुम्णा का संगम आसानी से प्राप्त हो जाता है। |
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