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मनुष्य का परम कत्र्तव्य क्या है?
 

मित्रो, मनुष्य का परम कत्र्तव्य है ऐसा कर्म करना जो समाज के अनुरूप हो एवं मन तथा आत्मा को उन्नत बनाये। जिस कर्म से समाज की मर्यादा टूटे, मन और आत्मा का ह्रïास हो वह कर्म पापकर्म है। जिस कर्म से जन, देश व आत्मा का कल्याण हो वह सत्कर्म है। सत्कर्म में मनुष्य को संलग्न होना चाहिए। सत्कर्म ही मनुष्य का कत्र्तव्य है।  सत्कर्म से अंत:करण शुद्घ होता है सभी प्रकार के विकार दूर होते है। परंतु यदि कत्र्तव्य की सीमाएं बांध दे तो कभी कभी कत्र्तव्य मार्ग इतना मधुर नहीं होता। इसलिए कत्र्तव्य चक्र को मधुर बनाने के लिए उसके पहियों पर प्रेम और दया का तेल लगाना न भूलें। यदि प्रेम, उदारता और दया का भाव आयेगा तो कत्र्तव्य के मार्ग पर आने वाली सभी बाधाएं कट जायेंगी।

कोई भी कार्य जब दृढ़ आसक्ति से किया जाता है तो वह कत्र्तव्य बन जाता है। कत्र्तव्य में आसक्ति का आवेग होता है। जिस प्रकार भारतीय संस्कृति कहती है कि पति पत्नी क ो विवाह के बाद धर्मानुकूल आचरण रखना चाहिए। अपने जीवनसाथी के प्रति ईमानदार रहना चाहिए। संबंध में झूठ, छल व कपट नहीं होना चाहिए। विवाह को प्रेम का सघन संबंध बनायें तो उस संबंध को पूर्णता से निभाने का कर्म कत्र्तव्य रूप में परिणत हो जाता है। उसी आसक्ति के आवेग के कारण पति पत्नी जीवन पर्यन्त एक साथ रहते है।

किसी भी कार्य को निष्ठïापूर्ण करना कत्र्तव्य कहलाता है। मनुष्य का परम कत्र्तव्य है सत्मार्ग पर चलें। झूठ व अनैतिकता से बचें। आपका मानसिक और नैतिक दृष्टिïकोण आपके व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करता है। अच्छे व्यक्तित्व का निर्माण करना मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। अच्छे व्यक्तित्व का व्यक्ति समाज में उच्च पद को प्राप्त होता है। जिस समाज में हम रहते है उसके आदर्शों का पालन करना मनुष्य का कत्र्तव्य है।

प्रकृति ने जब हमें जहां भी जिस स्वरूप में, जिस परिस्थितियों में जन्म दिया उसके साथ-साथ दूसरों  के साथ ताल-मेल बिठाने के लिए कुछ कत्र्तव्य विधान किये है। हमें उन कत्र्तव्यों का विरोध नहीं करना चाहिए। जैसे प्रकृति ने माता पिता के  लिए अपनी संतान के प्रति कुछ कत्र्तव्य विधान कियें है। एक शिक्षक  का अपने शिष्य के प्रति, एक नेता का अपने राष्टï्र के प्रति इत्यादि इत्यादि। हमारा परम कत्र्तव्य है प्रकृति के द्वारा विधान किये गये कत्र्तव्यों का निष्ठïापूर्ण पालन करें उनसे चूकें  नहीं। कार्य चाहे छोटा हो या बड़ा। मनुष्य की उच्चता और नीचता का अनुमान उसके कार्य के स्तर से न लगायें बल्कि इसे महत्व दें कि वह अपना कर्म किस भाव से करता है।

यदि मकान में ऊंची रखी ईंट उपयोगी है तो नीचे रखी ईंट भी उपयोगी है। यदि सभी ईंटे ऊंची रख दी जायेंगी तो मकान खड़ा नहीं हो पायेगा। इसलिए कोई भी किया गया कार्य ऊंचा हो या नीचा नहीं होता। प्रत्येक कार्य उपयोगी होता है। श्वड्डष्द्ध 2शह्म्द्म द्बह्य द्गह्नह्वड्डद्यद्य4 द्बद्वश्चशह्म्ह्लड्डठ्ठह्ल! यदि सभी ऊंच वर्ग के कार्य करेंगे, तो प्रकृति के स्वस्थ चक्र में रूकावट आ जायेगी। वास्तव में, कार्यों को छोटे और बड़े वर्ग में विभाजित करना ही एक गलत दृष्टिïकोण है। कर्म जो भी करें पर सही व सत्यपूर्ण दृष्टिïकोण से करें।  किसी भी व्यक्ति का अंाकलन उसके द्वारा संपादित किये गये कार्य से नहीं करें बल्कि उसक ा उस कार्य के प्रति भाव और संपर्ण देखें। मनुष्य के अपने कार्य के प्रति भाव उसकी आत्मा को व उसके व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करते है। इसलिए कार्य जो भी करें पर उसे कत्र्तव्यबद्घ होकर करें तो स्वत: ही उच्च श्रेणी का हो जाता है। छोटा कार्य भी नियमितता से किया गया है, आदर्शों के अनुकूल किया गया है, सबके हित में किया गया है तो वह भी उच्च हो जाता है। यदि अच्छा कार्य भी आदर्शो के उल्लघंन करके किया जाये, नियमों को तोडक़र किया जाये तो निम्र श्रेणी का हो जाता है। इसलिए मनुष्य का परम कत्र्तव्य है कोई भी कार्य करें उसे पूर्णता से करेें। पूर्ण कार्य वही है जो आदर्शबद्घ है, नियमित है, श्रद्घापूर्ण है, प्रेमपूर्ण है, हितपूर्ण है। पूर्ण कार्य ही सत्कर्म बन जाता है। पूर्णता से किये गये कार्य में सात्विकता आ ही जाती है। सात्विक कर्म का लक्षण ही प्रेम, निष्ठïा और संपर्ण है। यदि किसी भी कार्य को आसक्त होकर नहीं किया तो वह न क$त्र्तव्य में परिणत होता है न पूर्णता में।

कत्र्तव्य की बात हो रही है तो एक और बात की चर्चा करना बहुत अनिवार्य है कि कत्र्तव्य ईश्वर के द्वारा विधान किये गये है आपके समीप के सभी व्यक्ति भी आप ही के समान ईश्वर द्वारा विधान किये गये कत्र्तव्यों का पालन कर रहें है। इसलिए किसी की निंदा न करें, किसी से ईष्र्या न करें, किसी को हानि पहुंचाने की चेष्टïा न करें। यह केवल प्रत्येक संन्यासी का ही नहीं वरन्ï सभी नर व नारियों का कत्र्तव्य है। प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करना आपके क त्र्तव्य को पूजा बना देता है। जब कत्र्तव्य पूजा बन जाता है तो वह आत्म जागरण हो जाता है, वही परम कल्याण का मार्ग है। जिस कार्य से किसी का अहित न हो तो वह कार्य ईश्वर की ओर बढ़ाता है। जो कार्य ईश्वर की ओर मोड़े वह सत्कर्म बन जाता है।

नेक कार्यों में संलग्न होना मनुष्य का परम कत्र्तव्य है। नेक सोच, नेक विचार ही मन को नेक कार्यों की ओर प्रेरित करते है। नेक सोच, नेक विचार पैदा होते है संतों की शरण लेने से , सत्संग सुनने से, नि:स्वार्थ सेवा करने से।

मनुष्य जन्म तो ले लेता है पर उसे स्वबोध नहीं होता, वह अपने कत्र्तव्यों के प्रति जागरूक नहीं होता। इससे बड़ा मनुष्य का दुर्भाग्य कोई नहीं है। जो व्यक्ति अपने कत्र्तव्यों के प्रति जागरूक है, उनका निष्ठïापूर्ण पालन करता है वही ईश्वर की पूजा है। अपने कत्र्तव्यों का उल्लंघन करना ईश्वर का अपमान है।

अब यह प्रश्न उठता है कि कार्य में जागरूकता, निष्ठïा व प्रेम कैसे लाया जाये?जब आप पूर्ण रूप से स्वाधीन होंगें तो कार्य में रूचि पैदा होगी, कार्य के प्रति प्रेम आयेगा, कार्य क त्र्तव्य में परिणत हो जायेगा। यदि आप दास होकर कार्य करेंगें तो कार्य के प्रति रूझान कम हो जायेगा। जिस भी कार्य में स्वार्थ, लालच आ जाता है वह कार्य दास कार्य बन जाता है क्योंकि उसमें आत्मा की उन्नति नहीं होती। आत्मा की उन्नति होती है ईश्वरीय गुणों का विकास होने से। सर्वप्रथम ईश्वरीय गुण है आप सबका भला करें। जो सबका भला करता है ईश्वर उसका भला करता है। ईश्वरीय गुणों का विकास आत्मा में आनंद की अनुभूति कराते है। नि:स्वार्थ व बिना किसी लालच के भाव से किया गया कार्य स्वाधीनता के पंख लगा देता है। मनुष्य आनंद की ऊंचाईयां छूने लगता है। जिस कार्य में स्वार्थ आ जाये, लालच आ जाये वहंा पराधीनता की बेडिय़ा डल जाती है। वहां आनंद की ऊंचाईयों तक पहुंचना संभव नहीं है। जिस कार्य में समानता का भाव न आये वहां प्रेम पैदा हो ही नहीं सकता। स्वार्थ जीवन का सबसे बड़ा विकार है जो आत्मा के विकास और उन्नति में बाधक है। इसलिए निष्पक्ष एवं नि:स्वार्थ भाव से कार्य करें तो प्रेम बरसेगा। जहां प्रेम बरसता है वही आत्मा उ$त्तम है, वहीं ईश्वर का निवास है। जहां ईश्वर का निवास है वहां परमसुख  ही परमसुख है। जो कार्य केवल उच्च पद, नाम और यश के लिए किया जाये वह भी कभी आनंद की अनुभूति कराने में सहयोगी नहीं है। जो कर्म नाम व यश के लिए किये जाते है वहां तनाव, निष्कारण भय, ईष्र्या, छल व कपट का विकास होना शुरु हो जाता है। ये सब दुर्गुण है और ईश्वर से दूरियों को बढ़ा देते है। दु:खों को जन्म देते है।

स्मरण रहे, समस्त कर्मों का उद्ïदेश्य मन के भीतर स्थित शक्ति को प्रकट व आत्मा को जाग्रत करना होना चाहिए। इसके साथ ही मनुष्य का कत्र्तव्य बनता है कि कर्म को करता चला जाये बिना किसी फल की इच्छा के, बिना कोई आशा किये। जगत में नाम प्राप्ति की चेष्टïा करना व्यर्थ है जो जगत आज मान दे रहा है वही कल अपमानित भी कर सकता है। समाज का समर्थन मिल जाये तो मूर्ख भी बहादुर हो जाता है और समाज का समर्थन न मिलें तो बुद्घिशील और विद्वान भी मूर्ख हो जाता है। इसलिए जगत तो मिथ्या है। मिथ्या में भ्रमित हो राह नहीं भूलनी है। अपने आस पास के लोगो से मिली प्रशंसा या निंदा की बिना परवाह किये अपने कत्र्तव्यों का पालन करते हुए कर्मों को संपादित करते जायें। समाज में यश मिले या अपयश, आप एक समान रहे, न चिंतित हो, न व्यथित हो, न प्रसन्न हो। जो मनुष्य बिना मान अपमान की ङ्क्षचता करते हुए अपने कर्मों को संपादित करता चला जाता है वह त्याग की मूर्ति है, वह संत चरित्र का परिचय है। संत होने के लिए संसार को  त्यागना जरूरी नहीं है। जो नि:स्वार्थ होकर, बिना अहं से कार्य करता चला जाता है वही संत है। जो कर्म को याग बना दे, पूजा बना दे, भोग से मुक्त हो जाये वही संत है। जो कर्म भोग विलासिता से पूर्ण है वह दुष्कर्म है। जो कर्म आप अपनी आत्मा, अपने देश और जन कल्याण के लिए करते है वही सत्कर्म कर्म है। कर्मयोग के इस नियम का जो पालन करता है वही सच्चा संत है। जहां भोग नहीं है वहीं आत्म शक्ति का विकास होता है, वहीं आत्म जागरूकता पैदा होती है।

मनुष्य का परम लक्ष्य ही यही है कि वह अपने सम्मुख ईश्वर प्राप्ति का ध्येय रखे। ईश्वर का मार्ग ही कल्याण का मार्ग है। जरूरी नहीं कि तपस्या करके, संसार त्याग कर आप ईश्वर को प्राप्त कर सकते है। पुण्य कर्म करके भी आप ईश्वर मार्ग में संलग्न हो सकते है। कर्म कभी नष्टï नहीं होता। कर्मो के फल भोगने के लिए ही मनुष्य संसार में बार बार जन्म लेता है और मरता है। पर यदि आप अपने कर्मों को नि:स्वार्थ भाव से संपादित करें तो जन्म मरण के चक्रव्यूह से मुक्ति पा सकते है। इसी में मनुष्य का परम कल्याण निहित है।

कर्म आत्म शक्ति की अभिव्यक्ति होता है। बिना विचार और चिंतन के कर्म संपादित नहीं होता। इसलिए आत्म शक्ति का जागरण करना आवश्यक है। जागरण होगा जब आदर्श जुड़ेंगे,  नेक सोच व विचार उत्पन्न होंगें तभी मन सत्कर्मों के लिए प्ररित होगा। आत्म शक्ति के जागरण के लिए विचारों का शुद्घिकरण करना होगा। जीवन की सार्थकता इसी में है मन में सात्विक विचारों का वास रहे, सदा लक्ष्य आदर्शों से जुड़ा रहे।

मनुष्य का परम लक्ष्य है आत्म जागरण और ईश्वर को ध्येय बनाते हुए आदर्श को अपनाते हुए, अपने कर्मों को संपादित करें।

  
 
मिथ्या है सांसारिक प्रेम
 

मित्रो, प्रेम की चर्चा तो दुनिया में खूब होती है किंतु कुछ लोग इसे अच्छा मानते हैं तो कुछ लोग इसे बुरा। वास्तव में प्रेम तो साक्षात परमात्मा का प्रतिरूप होता है। उसके बारे में कोई चर्चा करना संभव ही नहीं क्योंकि वह वाणी से व्यक्त किया ही नहीं जा सकता है। वह तो स्वयं अनुभव करके ही समझा जा सकता है। यह बात आध्यात्मिक प्रेम और सांसारिक प्रेम दोनों पर लागू होता है। लेकिन एक बात बहुत गौर करने की है कि सच्चा व शाश्वत प्रेम अविनाशी परमात्मा से ही हो सकता है। नाशवान संसार से प्रेम झूठा होता है, क्योंकि वह शाश्वत नहीं, क्षणिक होता है। इसीलिए हमारे प्राचीन मनीषियों ने कई प्रसंगों में घोषित किया है कि सांसारिक प्रेम मिथ्या है। आइए, आज हम इसी विषय पर सर्व प्रथम चर्चा प्रारंभ करते हैं।

सांसारिक रिश्तों के बंधन में कैद मनुष्य प्रभु को भूल जाता है। वह समझता है कि संसार में जो प्यार मिल रहा है वह सच्चा है।  मेरी पत्नी, मेरे पुत्र, मेरे भाई-बन्धु मुझे वास्तव में प्यार करते हैं, बल्कि यदि मैं न रहूं तो वे मेरे बिना बहुत दुखी हो जाएंगे। लेकिन तथ्य यह है कि संसार के सारे रिश्ते-नाते क्षणभंगुर हैं। अभी हमारा कोई परम मित्र है तो वक्त व परिस्थितियां बदलने के साथ वह हमारा परम शत्रु भी बन सकता है। जो पत्नी मुझे प्राणनाथ कह कर पुकारती है, वही पत्नी मृत्यु के बाद मेरी सूरत देखकर भी डरने लगेगी। प्यारा बेटा मेरे इस पंचभौतिक शरीर को विधि पूर्वक श्मशान में जला देगा। इस संसार में फैली प्रीति के धागे एक झटके में टूट जाते हैं। क्षणभंगुर संसार से जुड़ी हर चीजें क्षणभंगुर हैं। अविनाशी तो एक मात्र परमपिता परमात्मा हैं। इसलिए उसी से की गयी प्रीति अविनाशी होती है। इसी भाव को हमारे सभी मनीषी व महापुरुष सनातन काल से लोगों को समझाते आ रहे हैं। सभी संत-महात्मा सांसारिक रिश्तों को मिथ्या व क्षणभंगुर बताते हुए प्रभु से बार-बार प्रार्थना करते हैं कि आप अपने अविनाशी प्रेम से मुझे कृतार्थ करें। प्रभु, आपसे हमारा मिलन कैसे होगा? हम तो आप की माया से भ्रमित होकर दिखाई देने वाले नाते-रिश्तों से और संसारी पदार्थों से स्नेह कर बैठे हैं और आपकी अविनाशी प्रीति को हमने भुला दिया है।

वास्तव में एक न एक दिन इस संसार को छोड़ ही देना है।  फिर भी पता नहीं क्यों यह जानते हुए भी मनुष्य क्षणभंगुर सांसारिक ऐश्वर्य की वस्तुओं को          एकत्र करता रहता है। संसार की कोई भी वस्तु परलोक में काम नहीं आती, फिर भी उसका जंजाल मनुष्य ने अपने गले में बांध लिया है। सांसारिक धंधों को बहुत फैला रखा है। मृत्यु के बाद ये धंधे किसी काम के नहीं हैं। ये तो इस संसार में ही छूट जाते हैं। इसलिए ऐ मनुष्य, तू केवल प्रभु से प्रीति कर और सांसारिक धंधों में उलझे रहने से कोई लाभ नहीं। कहा है -

सुमिरण की सुधि यूं करो, ज्यंू गागर पनिहार।

हाले डोले सुर्त में, कहे कबीर विचार॥

कबीर दास ने लोगों को प्रभु से जुडऩे का उपदेश देने के साथ यह चेतावनी भी दी है कि संसार के धंधों को छोडऩे की मूर्खता मत करो। क्योंकि संसार को छोड़ देेने मात्र से ही कल्याण नहीं होने वाला है। कल्याण तो प्रभु के सुमिरण से होना है। यदि घर-गृहस्थी छोड़ देेने के बाद भी प्रभु का सुमिरण नहीं हुआ तो कल्याण नहीं हो सकता है। इसके लिए कबीर साहब एक पनिहारिन का उदाहरण देते हुए कहते कि जिस प्रकार वह अपनी सखियों से बातचीत जारी रखते हुए साथ ही गोद में बच्चा संभाले हुए रहती है फिर भी सिर पर रखे पानी से भरे घड़े को अपनी सुरति से संभाले रहती है, गिरने नहीं देती है। उसी प्रकार संसार का सब काम करो और प्रभु का भजन करो।

लगभग सभी संत-महात्माओं ने सांसारिक प्रेम को झूठा कहा है और भगवान की भक्ति को अपने कल्याण का सर्वश्रेष्ठï साधन बताया है। कुछ संतों ने तो प्रभु की चर्चा न सुनने वाले लोगों के कानों की तुलना सांप के बिल से की है। और प्रभु का गुणानुवाद नहीं करने वाले लोगों की जीभ को संतों ने मेढक की जीभ की तरह टर्र-टर्र करने वाला निरर्थक बताया है। इस जीवन के गूढ़ रहस्य को मनुष्य तभी महसूस कर पाता है जब वह साधु-संतों की संगत में बैठकर प्रभु भक्ति की महिमा श्रवण करता है और प्रभु को तत्व से जानने के लिए समय के सद्ïगुरु के शरण में जाकर भक्ति के गूढ़ रहस्य का अनुभव प्राप्त करता है।

लेकिन सांसारिक मोह-ममता में फंसा जीव प्रभु की माया में ही खो जाता है। उसे यह याद नहीं रहता कि हमें इस संसार से कूच करना है। काल रूपी नाग मुंह फैलाए जीव के पीछे पड़ा हुआ है। पता नहीं कब यह काल हमें डंस लेगा। इसलिए सावधान हो जाने की जरूरत है। क्योंकि ज्यों ही समय पूरा होगा, वह हमें छोडऩे वाला नहीं है। हमारे देखते ही देखते अनेक लोग काल का कलेवा बन चुके हैं और कुछ बनने वाले हैं।  हमें इस गफलत में नहीं रहना चाहिए कि काल का नाग हमें डंसने से छोड़ देगा। याद रहे, जो काल आज दूसरों को अपने गाल में डाल रहा है वह कल हमें भी अपना आहार बनाने से नहीं चूकेगा।

बहुत पहले की बात है। अपने आश्रम में एक संत अपने शिष्यों को सत्संग सुनाकर उन्हें भक्ति मार्ग पर अग्रसर होते रहने का उपदेश दिया करते थे। वे अपने एक प्रिय शिष्य को हमेशा समझाया करते थे कि संसार में चेतन भाव से जाग्रत रहो। ये संसारी रिश्ते-नाते अंत समय काम नहीं आते। सच्ची प्रीति केवल भगवान से उत्पन्न करो। यह संसार एक मेले की तरह है, जो एक नियत समय के लिए है। समय पूरा होते ही मेला समाप्त हो जाता है और लोग अपने-अपने घरों को वापस चले जाते हैं। अपने-अपने कर्मों का फल भोगने के लिए हम सभी नाना प्रकार के रिश्ते-नातों के बहाने एक परिवार में एकत्र हुए हैं। आयु पूरा होते ही लोग एक-एक कर काल का कलेवा बन बिछुड़ते जाते हैं। अंत समय कोई साथ नहीं देता। मरने के बाद अपनी करनी ही साथ जाती है। प्रभु जब हमारी नेकीबदी का हिसाब-किताब लेता है वहां हमारी सहायता के लिए कोई भी रिश्ता-नाता सहायक नहीं बनता है।

उस संत के इन उपदेशों को सुनकर वह शिष्य बहुत झुंझला गया और गुरु जी से कहने लगा कि आप तो घर-गृहस्थी से विरक्त हैं। आपको तो मालूम ही नहीं कि संसार के रिश्ते-नातों का सुख कैसा होता है। घर-गृहस्थी की आलोचना करने के पहले सांसारिक रिश्तों में बंधकर तो देखो कि वहां जीव को कैसा रस प्राप्त होता है।  जितना मेरे माता-पिता, बहन-भाई, पत्नी और बच्चे मुझको चाहते हैं, यदि मैं उनको प्यार न करूं तो बताइए मेरे जैसा पापी कौन होगा? मेरे माता-पिता, भाई-बहन और पत्नी मेरे बिना एक दिन भी नहीं रह सकते। आप जैसे वैरागी लोग नहीं जान सकते कि सांसारिक धर्म का परिपालन करना कितना आवश्यक है। यदि मैं न रहूं तो मेरे बिना पूरा परिवार बर्बाद हो जाएगा। कोई जिंदा नहीं बच पाएगा। मेरे ही कमाई पर सब लोग अवलंबित हैं।

उसकी बातों को सुनकर उस संत को बहुत अचंभा हुआ। फिर भी उन्होंने अपने शिष्य की नासमझी पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और उसके कल्याण के लिए एक युक्ति और विधि बताकर उसे घर भेजा। उसे वचनबद्घ करते हुए घर में जाकर एक नाटक खेलने का निर्देश दिया। संत जी की बतायी योजना के अनुसार वह घर गया और घर जाने पर पेट दर्द के बहाने तड़पने लगा। उसने घर वालों को दवाई लाने के लिए कहा और बिस्तर पर लेटकर गुरु की बतायी विधि से प्राणायाम करते हुए अपनी सांसों को रोक लिया। इस बीच दवाई लेकर जब पत्नी घर में लेकर आयी तो उसकी सांस बंद देख उसे मरा समझ डर गयी। सोचा कि यह तो मर गया है, मेरी भूख बर्दाश्त नहीं होगी इसलिए रोने से पहले चोरी-छिपे  कुछ खा लूं। उसकी पत्नी को पता था कि हफ्ते-दस दिन भोजन एक ही समय मिलेगा वह भी सादा इसलिए उसकी पत्नी ने आटा में घी और शक्कर मिलाकर भूनकर प्रतिदिन खाने का सामान भी तैयार कर लिया कि कहीं रोते-रोते मैं ही न मर जाऊं। पत्नी की सारी करतूत उसका पति धीमी सांस लेते हुए ही देखता रहा। पत्नी ने जब सारी तैयारी करने और खाने के बाद रोना-धोना शुरू किया तो पति ने फिर अपनी सांसों को रोक लिया।  इतने में सब परिवार इक_ïा हो गया। सभी लोग रोने-धोने लगे। माता-पिता सिर पीटने  लगे कि बेटे के पहले तो हमें मरना चाहिए था।  पत्नी बोली- प्राणनाथ! तेरे बिना मेरा कौन है? मैं भी मर जाती तो अच्छा होता। वह युवक गुरु कृपा से अंदर ही अंदर सारा दृश्य देख रहा था। सारे गांव में हल्ला हो गया कि अमुक युवक मर गया है।

यह खबर सुनकर उस युवक के गुरुदेव वह संत भी वहां आ गये और बोले- मैं इसे अकाल मृत्यु से बचा सकता हूं। उन्होंने एक दूध का गिलास मंगवाया और कोई मंत्र पढ़ते हुए दूध में फूंक मारी और बोले- जो यह दूध पी लेगा, वह तो मर जाएगा किंतु यह युवक जीवित हो जाएगा। संत जी की बातों को सुनकर पिता ने दूध पीने से इनकार कर दिया और बोला - दूध पीकर खुद मर जाने से लाभ क्या है, जब मैं इसे जीवित होते हुए देख ही नहीं पाऊंगा। माता ने कहा कि प्रभु की इच्छा को कौन टाल सकता है यह तो एक होनहारी थी। कौन जाने दूध पीकर मैं मर भी जाऊं और यह जीवित न हो। मैं इस चक्कर में नहीं पड़ती। यह तो चला ही गया। यदि मैं मर जाती हूं तो सारा परिवार बिखर जाएगा। पत्नी की बारी आयी तो उसने भी दूध पीकर मरने से इनकार कर दिया। बोली - ये तो मर ही गये, यदि मैं मर जाऊं तो मेरे छोटे-छोटे बच्चों को कौन संभालेगा। यह तो बात ही बड़ी अजीब है। क्या आज तक किसी मरे हुए के लिए मरने से कोई मरा हुआ व्यक्ति जिंदा हुआ है कि जो आज जिंदा होगा।

परिवार के लोगों के विचार सुनकर उस संत ने कहा कि कोई बात नहीं। मैं ही दूध पी लेता हूं, यह मेरा प्यार शिष्य था। यह सुनकर घर के लोगों ने कहा कि महात्मा जी मरने-जिलाने का चक्कर छोडि़ए। अब इसे जल्दी से जल्दी श्मशान पहुंचाने की तैयारी की जाए।  अचानक लोगों को ध्यान आया कि उस युवक ने जमीन पर लेटते समय बेचैनी में अपने पैरों को मकान की थुम्बी में इस प्रकार अड़ा लिया था कि बिना थुम्बी को कांटे उसका शव बाहर नहीं निकल सकता था। तब गांव के लोग थुम्बी को काटने का जुगाड़ करने लगे। यह देख उस युवक की पत्नी ने एतराज किया कि मेरा पति तो मर ही गया। अब कौन नयी थुम्बी लगाएगा। थुम्बी को क्यों काटते हो, इसके पांव ही काटकर अर्थी निकाल लो। अब तो ये मर ही चुके हैं, टांग काटने पर दर्द नहीं होगा। मेरी थम्मी न काटो क्योंकि मेरी छत गिर सकती है। यदि छत गिर जाएगी तो मुझ विधवा का घर कौन बनवायेगा? इस प्रकार का वार्तालाप हो ही रहा था कि इसी बीच उस संत ने वह दूध स्वयं ही पी लिया। संत जी द्वारा दूध पी लिए जाने पर पूरा परिवार गुरु जी की जय-जयकार करने लगा। मां-बाप बोले - गुरुदेव! आप तो बड़े दयालु हैं जो हमारे बेटे के प्राण बचाने के लिए अपने प्राण दे रहे हैं।

दूध पीने के बाद गुरु जी ने शिष्य के सिर की एक खास नस को दबाया और उठने के लिए आदेश दिया। बोले- बेटा! अब फैसला कर लेने का समय आ गया है कि तेरा अपना कौन है जिसके लिए तू इतना प्रेम करता था और कहता था कि मेरे बिना इनका एक दिन भी निर्वाह होना कठिन है? अब तो तुम भली-भांति वाकिफ हो गये हो कि कोई भी तुम पर निर्भर नहीं है और कोई तुम्हें प्यार भी नहीं करता। यह तो तुम्हारा भ्रम है कि परिवार के लोग तुम्हें खूब प्यार करते हैं। इसके बाद उस भक्त ने अपने परिवार का सारा नजारा देखकर अपने परिवार और पत्नी से वैराग्य ले लिया। इस प्रकार झूठ और सच का फैसला हो गया और वह युवक समझ गया कि सांसारिक प्रेम मिथ्या है। सच्चा प्रेम तो अविनाशी परमात्मा से हो सकता है।

इसलिए हमारे सभी प्राचीन मनीषी व सच्चे साधु संत यह उपदेश देते हैं कि संसार क्षण-भंगुर है। इससे की गई प्रीति भी क्षणभंगुर होती है। इसलिए इस तथ्य को समझ कर अविनाशी प्रभु से ही प्रेम करना चाहिए। संतजन अपने मन के बहाने सबको समझाते है कि ऐ मन! तेरी आयु तो बीती जा रही है, इसलिए तू घट-घटवासी सत्यस्वरूप राम की भक्ति कर। उस राम की ओर बढ़ो जो अविनाशी हैं, उस राम को पाने की कोशिश करो जिसे पाने के बाद कुछ भी पाने के लिए शेष नहीं रह जाता है। सभी पहुंचे हुए साधु-संत लोगों को यही बात समझाते रहे हैं कि संसार से नहीं, राम से प्रीति कर। वे अन्य लोगों को ही नहीं बल्कि अपने मन को भी संबोधित करते हुए यही बात कहते हैं कि परमात्मा से प्रीति लगाए रहो। क्योंकि संसार का प्रेम कुछ दिन के लिए है और दु:खदायी है, परंतु यह जीव शरीर रूपी मकान में बैठा हुआ इंद्रियों के झरोखों द्वारा बाहर दृष्टिï दौड़ाकर अपना काम बिगाड़ बैठा है। यह जीव जिस अविनाशी परमात्मा का अंश है, उसके उपकार तथा कृपा को भूलकर मिथ्या व क्षणभंगुर पदार्थों से प्रेम कर बैठा है। जिसे एक न एक दिन अवश्य समाप्त होना है। सांसारिक प्रेम मिथ्या है। सच्चा और अविनाशी प्रेम तो परमात्मा से ही हो सकता है।

  
 
दीपावली-ज्ञानोत्सव है!
 

दीपों का यह त्योहार अपने साथ काफी विशेषताएं लिये हुए हैं। यह एक राष्टï्रीय स्तर पर मनाया जाने वाला त्योहार हैं। इनके दामन में मानव मात्र के लिए महान संदेश छिपा हुआ है। हम इसके उस विशेषता पर चर्चा करने से पहले इससे संबोधित पौराणिक कथाओं पर भी एक सरसरी निगाह डालते हैं।

ऐसी कथा आती है कि रावण पर विजय प्राप्त करने के बाद प्रभु श्री रामचंद्र जी जब अयोध्या घर में घी के दीपक जलाये गये। पूरी अयोध्या नगरी को दीपों से सजाया गया। लोग नाना तरह से अपनी खुशियों का इजहार कर रहे थे। उन्होंने भगवान राम की आरती उतारी। और सारा नगर श्री राम के जय-जयकार से गूंज उठा।

इसके अलावा लोगों ने सीता को दिव्य गुणों से संपन्न और उन्हें लक्ष्मी स्वरूप जानकर उनकी भी पूजा की। आगे चलकर इस अवसर की याद ताजा रखने के लिए हर वर्ष इसे एक उत्सव के रूप में मनाये जाने की परंपरा शुरु हो गयी। कालक्रम से लोगों द्वारा इस दिन अपने घरों को रंग-बिरंगी रोशनी से जगमगाने, लक्ष्मी पूजन करने और आशिबाजियों का सिलसिला प्रारंभ हो गया जो अब भी जारी है।

दीपावली पर्व के दिन हर आस्थावान हिन्दु अपने-अपने घरों में सुख-समृद्घि की देवी लक्ष्मी की छोटी-बड़ी प्रतिमा स्थापित कर बड़े भक्ति भाव से पूजा करता है। व्यवसायी समाज तो विशेष रूप से अपने व्यवसाय को सुचारु रूप से चलाने और उससे अधिकाधिक धनोपार्जन करने हेतु धन लक्ष्मी की पूजा किया करते हैं। व्यवसायी इसे अपने व्यवसाय का नया वर्ष (वर्ष का प्रथम दिन) भी मानता है। वह इस प्रयास का लेन-देन बराबर हो। और इसे नये रूप में वह अपने व्यवसाय को पुन: प्रारंभ करें।

परंतु इसके साथ ही इस पर्व के अवसर पर कुछ अज्ञानजनित बुराइयां भी प्रचलित हो गयीं जिसके कारण व्यक्ति, समाज और राष्टï्र को दिवाली से बजाय लाभ के नुकसान ही होता है। इस दिन कुछ अश्रद्वालु और नासमझ लोग जुआ, मद्यपान, बड़े-बड़े बम पटाखों का विस्फोट आदि करने की हरकतों से भी बाज नहीं आते। इससे उनका अपना दिवाला तो होता ही है वे समाज की शांति व्यवस्था में भी खलल पैदा करते हैं। हमें इन कुप्रथाओं से बचना चाहिए। ये गलत प्रथाएं दीपावली की गरिमा को धूमिल करती हैं। इनके कारण दीपावली पर्व में निहित दिव्य संदेश, आलोचकों की छींटाकसी के आवरण में छिप जाते हैं।

इस पर्व की वास्तविक महिमा, इस पर्व को प्रचलित करने वाले ऋषियों के मर्म को समझने के लिए हमें कुछ मूलभूत बातों पर विचार करना होगा। ताकि सच्चे अर्थों में हम इस पर्व को मना सकें। इस संबंध में पहली बात तो यह है कि यह पर्व कंगालों का नहीं अमीरों का है। केवल धनी लोग ही इस पर्व को मना सकते हैं। जैसा कि संतों ने कहा है कि अगर मनुष्य के पास विवेक नहीं है तो वह धन का सदुपयोग नहीं कर सकता। इसलिए धन प्राप्ति से पहले नहीं तो कम से कम उसके साथ-साथ हमें विवेक की प्राप्ति अवश्य करनी चाहिए।

अब प्रश्न उठता है कि वह विवेक कैसे प्राप्त हो? क्या विवेक भौतिक विद्वता या बुद्घिमानी है कि हम उसे अपने बल-बूते से कुछ पठन-पाठन करके या चर्चा करके प्राप्त कर लेंगे? नहीं, इसके लिए तो हमें एक मात्र सत्संग का ही सहारा लेना होगा।

क्योंकि जब कभी भी, जहां कहीं भी और जिस किसी को भी विवेक आदि गुणों और महानताओं की प्राप्ति हुई, उसका आधार सत्संग ही रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं-

मति कीरति गति भूति भलाई।

जब जेहिं जहां जेहिं पाई॥

सो जानव सत्संग प्रभाऊ।

लोकहुं वेद न आन उपाऊ॥

अत: हमें सत्संग श्रवण करना चाहिए क्योंकि वही विवेक का स्रोत है। सत्संग को ज्ञान गंगा की उपमा दी गयी है जो समय के तत्वज्ञानी महापुरुष के श्री चरणों से निकली मानी जाती है। इस ज्ञान गंगा में नहाने से मनुष्य की चित्तवृत्ति शुद्घ हो जाती है और उसे विवेक की प्राप्ति होती है। यथा-

मज्जन फल पेखिअ ततकाला।

काक होहिं पिक बकउ मराला॥

एक विवेक प्राप्त मनुष्य को यह बताने की जरूरत नहीं होती कि वह अपने धन, समय और शक्ति का उपयोग कैसे करें। अर्थात वह सदैव उनका सत्कार्यों में ही उपयोग करता है। जिससे स्वयं का, उसके समाज और राष्टï्र तथा समस्त विश्व का भला होता है।

अत: आज भी सदा की भांति हमारे बीच में ज्ञान के स्रोत ज्ञानदाता गुरु महाराज जी मौजूद हैं तो हम सर्वप्रथम अपने घट (हृदय) को उनके ज्ञानदीप से सजायें। तत्पश्चात संसार के कोने-कोने में, बिना किसी भेदभाव के हर मानव हृदय में इस ज्ञान का दीप जलाये जाने का मार्ग प्रशस्त करने के ्िरपुनीत कार्य में सहयोगी बनें। सच पूछिये तो ज्ञानोत्सव ही वास्तविक दिवाली है जो हर रोज और सदा सर्वदा की दिवाली है। कहा भी है-

सदा दिवाली संत की, तीसों दिन त्योहार।

अत: वास्तविक दिवाली मनाने के लिए हमें किसी खास चीज का इंतजार नहीं करना है बल्कि हमें गुरु महाराज जी द्वारा सुसंपन्न होने वाले ज्ञानोत्सव में बिना संकोच, भय और भेदभाव के भाग लेना है। तभी हम जाने-अनजाने होने वाली बुराइयों से ऊपर उठकर अपने दुर्लभ जीवन का भरपूर आनंद ले पायेंगे।

  
 
जीवन की सच्ची उपलब्धि
 

प्रत्येक मनुष्य इस संसार में सुंदर व महान है, परंतु सही माने में वह किना सुंदर है, कितना सुंदर खजाना उसके ही अंदर छिपा है, इसको बोध उसे नहीं है। इस धरती पर जब-जब महापुरुषों का आगमन हुआ तथा उनका सान्निध्य जिन लोगों को मिला, उन्होंने ही जीवन की सुंदरता का सहीमानों में अहसास किया। इसलिये गुरु की महिमा अनंत बताई गई है।

हर मनुष्य के अंदर ही सुखी होने की जन्मजात इच्छा है। इस इच्छा की पूर्ति के लिये वह जीवन भर मनसा, वाचा, कर्मणा प्रयास करता रहता है, परंतु यह खोज वह बाहर करता है। प्रयास करते-करते जीवन का अंत हो जाता है। परंतु हृदय का प्यासा ही रहता है। भूत व भविष्य की चिंताओं में ही वह रहता है, जब कुछ भी हाथ नहीं लगता तो मनुष्य बेचैन होता है। क्योंकि वह सच्चा सुखद अहसास जिससे सचमुच में हृदय तृप्त होता है न तो भूत में है और न ही भविष्य में, वह तो वर्तमान में है स्वयं अपने आप में विद्यमान है, अपने मन व इंद्रियों के वशीभूत होकर मनुष्य इतना बहिर्मुख हो जाता है कि वह अपने हृदय की पुकार नहीं सुन पाता, उसे यह आभास तक नहीं हो पाता कि वह इस संसार में आखिर क्यों हैं?

गुरु जी कृपा से आज उस सच्चे प्रेम को, उस सुखद अहसास को अनुभव करना प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में सांसारिक कर्तव्यों को निभाते हुये संभव है चाहे वह किसी भी जाति, वर्ग, धर्म संस्कृति, रूप, रंग का क्यों न हो। बस आवश्यकता है खुले हृदय से, दीन-भाव से, जिज्ञासु भाव से ज्ञानदाता के समक्ष अपनी हार्दिक इच्छा जाहिर करने की।

इस प्रकार जब किसी व्यक्ति के जीवन में अज्ञानता का पर्दा हटता है और ज्ञानदाता की कृपा हो जाती है तो वह अपने जीवन में, सच्चे मानों में इस जीवन के प्रति, ज्ञान के प्रति, ज्ञानदाता के प्रति कृतज्ञ होता है और वास्तव में यही जीवन की सच्ची उपलब्धि है।

��� ��@� � �� हारी और आखिर दीवार पर चढऩे में सफलता मिल ही गई। उससे राजा को प्रेरणा मिली, भीतर का विवेक जागा और उसने सोचा जब इस कीड़े को सफलता मिली तो मैं तो मानव हूं। कोशिश करूं तो अवश्य मेरी भी जीत होगी। वह गुफा से बाहर निकला। उसने बिखरी सेना को एकत्रित किया और सैनिकों में भी आत्मविश्वास जगाया तथा अपना खोया हुआ राज्य पुन: हासिल कर लिया।

 

बहुत से व्यक्ति आत्म-विश्वास को घमंड मानते हैं। यह सरासर गलत है। आत्मविश्वास गुण है- जो आदमी को धीरज प्रदान करता है। घमंड दुर्गुण है- वह आदमी को गिराता है। घमंड व्यक्ति का दुश्मन है, आत्मविश्वास सच्चा मित्र है।

  
 
सच्चा मित्र आत्मविश्वास
 

जीवन में सफलता का रहस्य है। आत्मविश्वास यदि मनुष्य कितनी भी मेहनत कर ले, परंतु उसे अपने पर भरोसा नहीं है तो वह सफल नहीं हो सकता। अपने पर जिसे विश्वास रहता है उसे अंदर से ही अलौकिक शक्ति का बल मिलता है।

जन्म से ही कोई महान अथवा गुणवान पैदा नहीं होता, लेकिन दृढ़तापूर्वक अभ्यास से हरेक अपने में गुण पैदा कर सकता है। बहुत से विचारक ऐसे हुए हैं जिन्हें बचपन में बहुत डर लगता था, परंतु अच्छे संगत विचवरों से उनमें आत्मविश्वास जगा और वे ऐसे निडर बने कि दुनिया की कोई ताकत उन्हें नहीं डरा सकी।

मनुष्य का मन चंचल है इसलिए बुद्घि भी स्थिर नहीं रहती। बिना बुद्घि स्थिर हुए आत्मविश्वास नहीं हो सकता। इसलिए सत्ïपुरुषों की संगत अति आवश्यक है। अस्थिर बुद्घि वाला व्यक्ति सूखी पत्ती की तरह हवा में उडऩे वाला, सदैव दूसरों पर ही निर्भर रहता है। परंतु जिसकी अपनी मजबूती होती है वह अपने बल पर चलता है। आत्मविश्वास पर खड़ा किया गया भवन हमेशा सुरक्षित रहता है।

नि:संदेह आत्मविश्वास अनेकरों रोगों की दवा है, जहां व्यक्ति अनेक प्रकार भूत-भविष्य की चिंताओं में घुटता रहता है। और परिश्रम से जी चुराता है, वहीं आत्मविश्वासी को किसी प्रकार की असफलता मुंह नहीं देखना पड़ता।

एक राजा पर किसी दुश्मन राजा ने चढ़ाई कर दी। राजा ने उसका मुकाबला किया। लेकिन हार गया। अपने प्राण बचाने के लिए जंगल में एक गुफा में शरण ली। जब राजा छिपकर बैठा था तो उसने देखा कि एक कीड़ा दीवार में चढऩे की कोशिश करता है, परंतु गिर जाता है। राजा उसी कीड़े के प्रयास को देखता रहा कई बार वह गिरा, परंतु कीड़े का प्रयास बराबर जारी रहा और अंत में उसे सफलता मिली। राजा सोचने गला कि इस छोटे से कीड़े ने हिम्मत नहीं हारी और आखिर दीवार पर चढऩे में सफलता मिल ही गई। उससे राजा को प्रेरणा मिली, भीतर का विवेक जागा और उसने सोचा जब इस कीड़े को सफलता मिली तो मैं तो मानव हूं। कोशिश करूं तो अवश्य मेरी भी जीत होगी। वह गुफा से बाहर निकला। उसने बिखरी सेना को एकत्रित किया और सैनिकों में भी आत्मविश्वास जगाया तथा अपना खोया हुआ राज्य पुन: हासिल कर लिया।

बहुत से व्यक्ति आत्म-विश्वास को घमंड मानते हैं। यह सरासर गलत है। आत्मविश्वास गुण है- जो आदमी को धीरज प्रदान करता है। घमंड दुर्गुण है- वह आदमी को गिराता है। घमंड व्यक्ति का दुश्मन है, आत्मविश्वास सच्चा मित्र है।

  
 
ये जग है दो दिन का मेला
 

मित्रो, बड़ी प्रसन्नता की बात है कि आप लोग जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं पर कुछ विचार सुनने और जीवन में आने वाली समस्याओं के समाधान के उपाय जानने के लिए यहां एकत्र हुए हैं। मैं आज आप लोगों के सामने इस बात को स्पष्टï करने जा रहा हूं कि इस संसार में किसी को सदा के लिए नहीं रहना है। जीवन की एक नियत अवधि गुजारने के बाद सबको यहां से चले जाना है। इसलिए मैं इस विषय पर चर्चा करूंगा कि ये जग है दो दिन का मेला। आशा है कि आप लोग इसे गौर से सुनेंगे और लाभ उठाने की भरपूर चेष्टïा करेंगे।

सचमुच यह संसार हमारा स्थायी निवास नहीं है। जिस प्रकार किसी मेले में बहुत सारे लोग इक_ïे हो जाते हैं और मेला खतम होते ही सभी लोग अपने-अपने घर चले जाते हैं। उसी प्रकार इस संसार में रिश्ते-नातों, दोस्ती-दुश्मनी के बहाने लोग एकत्र होते हैं और नियत समय पर एक दूसरे से बिछुड़ते जाते हैं। किसी संत ने ठीक ही कहा है -

रे मन ये दो दिन का मेला रहेगा।

कायम न जग का झमेला रहेगा॥...

यह मेरा है, यह मेरा है - रटते हुए जाने कितने राजा-महाराजा इस संसार से विदा हो गए, किंतु यह वसुधा किसी की नहीं हुई। यह राज्य मेरा है, यह घर मेरा है, यह मेरी दौलत है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है कहते हुए लोग जाने कब से मिथ्या भ्रम के शिकार होते आ रहे हैं। यह देखते भी हैं कि कोई इस संसार में स्थायी रूप से रहता नहीं। एक न एक दिन सबको इस संसार से विदा हो जाना पड़ता है। फिर भी मिथ्या भ्रम का शिकार होकर लोग संसार के क्षणभंगुर सुखों के पीछे आपस में लड़ते रहते हैं। इस प्रकार लड़ते-झगड़ते ही इस संसार से विदा होने की वेला कब आ जाती है, इसका किसी को पता ही नहीं चलता। मरने के बाद  रिश्तेदार श्मशान तक ले जाते हैं और मृत शरीर को जलाने, जल में प्रवाहित करने या कब्र में दफनाने की रस्म अदा करने के बाद अपने रोजमर्रे के काम में लग जाते हैं। यह प्रक्रिया आज से नहीं, सनातन काल से जारी है। किसी ने ठीक ही कहा है -

गुल चढ़ाएंगे लहद पर जिनसे यह उम्मीद थी।

वो भी पत्थर रख गये सीने पे दफनाने के बाद॥

अर्थात जिन प्रियजनों से मैंने यह उम्मीद की थी कि मेरे मरने के बाद मेरे शव पर फूल चढ़ायेंगे, वे भी हमें निराश कर गये। वे भी मुझे दफनाने के बाद मेरे सीने पर पत्थर रख कर चले गये। शायर का कहना  पूरी तरह ठीक है। इस संसार की प्रीति झूठी है। संसार में मिलने वाला आदर-सत्कार व सम्मान क्षणभंगुर है। संसार में मिलने वाला कोई भी सुख शाश्वत नहीं होता और जीव चाहता है शाश्वत आनंद। क्योंकि  मूल रूप से वह परमानंद स्वरूप परमात्मा का ही अंश है जो उनसे बिछुड़ गया है। इसलिए उसकी चाहत में अब तक छटपटा रहा है। उसी आनंद को वह सांसारिक पदार्थों में ढंूढ़ा करता है। किन्तु क्षणभंगुर संसार में वह शाश्वत परम आनंद तो मिल ही नहीं पाता, किन्तु क्षणभंगुर विषयानंद में ही लगकर जीव अपना परम लक्ष्य भुला देता है। इस प्रकार बार-बार जनमने व मरने के चक्र में फंसकर जीव दुखी होता रहता है। लेकिन सामान्य तौर पर जीव ऐसा सोचता है कि यदि परमानंद न मिले तो सांसारिक आनंद तो मिले, लेना आनंद ही है क्योंकि यह आनंद से बिछड़ा हुआ उस परम आनंद को ढूंढता फिरता हैं-

आनंद आनंद सब कोई कहे, आनंद गुरु ते जानेयां।

आनंद पाने के लिए तो आज सारी दुनिया दौड़ रही है। खाने-पीने व मौज-मस्ती में लोग आनंद पाने के लिए ही संलग्न होते हैं। किंतु संसार के सभी सुखों का अंत दुख के रूप में होता है। अंत में मनुष्य को खाली हाथ ही इस दुनिया से कूच करना पड़ता है। वास्तव में शाश्वत आनंद    पाने की युक्ति तो समय के सद्ïगुरु की अनुकंपा से ही हासिल होती है। संसार के आनंद तो एक अवधि के बाद निश्चित रूप से समाप्त हो जाते हैं और जीव दुखी हो हाथ मलता रह जाता है। जीव मन की कल्पनाओं में खोया-खोया संसारिक सुखों को ही शाश्वत समझ उसी में लीन हो जाता है। और एक दिन ऐसा आता है कि संसार का सारा ऐश्वर्य छोडक़र उसे सदा के लिए इस संसार से विदा हो जाना पड़ता है। लेकिन उल्टे-सीधे विचारों में खोकर मनुष्य परम सत्य सिद्घांत को भूल जाता है और सांसारिकता की बेड़ी में जकड़ा रहता है। इस बात को इस दृष्टïांत से समझा जा सकता है।

एक समय की बात है कि सांसारिकता में पूरी तरह से डूबे एक सेठ को देखकर एक महात्मा को दया आ गयी। वे सेठ के पास परलोक सुधारने का उपदेश देने के लिए पहुंचे। काफी दिनों तक वे सेठ को नाना प्रकार के  दृष्टïांत देते हुए यह समझाने का प्रयत्न करते रहे कि यह संसार सपने की तरह है। इसका मोह त्याग कर भगवान की भक्ति करने में ही भलाई है। महात्मा के उपदेश को सेठ ढंग से समझ नहीं पाया और सोचा कि ये तो खुद विरक्त संन्यासी हैं और चाहते हैं कि मैं भी घर-बार त्याग दूं। उसने महात्मा से प्रार्थना की - महाराज! आप की बात पूरी तरह सही है। मैं भी चाहता हूं कि भगवान की भक्ति करना। किंतु अभी बच्चे अबोध हैं, बड़े होने पर जब उनकी शादी कर लूंगा तब परलोक सुधारने का यत्न करूं। तब महात्मा बोले - ये सांसारिक काम तो तेरे न रहने पर भी होते रहेंगे। यह तो तुम्हें अपने घर की  चौकीदारी मिली है भगवान द्वारा। लेकिन तुम खुद मालिक बन बैठ गये। ठीक है, तुम अभी अपनी घर-गृहस्थी संभालो। बाद में भगवान की भक्ति कर लेना। लेकिन याद रहे, भवसागर से मुक्ति तो भगवान की भक्ति करने से ही मिलेगी। समय पाकर सेठ के सभी बच्चे बड़े हुए और शादी होने के बाद अलग हो गये। फिर वह महात्मा सेठ के पास आए और बोले - सेठ जी! अब ईश्वर की कृपा से सब कार्य सिद्घ हो गए हैं, कुछ समय निकाल कर भगवान का भजन-सुमिरन करो। बेड़ा पार हो जाएगा। सेठ बोला- महाराज! अभी तो पोते भी नहीं हुए। पोतों का मुंह तो देख लेने दीजिए। तब महात्मा बोले- मैं तुझे त्यागी बनने के लिए नहीं कहता। तू मूर्खतावश मेरे भाव को नहीं समझ पा रहा है। मेरे कहने का भाव तो यह है कि संसार के मोह और अज्ञानता के चंगुल से मन को हटाकर प्रभु की भक्ति में लगाओ। तब सेठ बोला- यदि मन प्रभु की भक्ति में लग गया तो संसार के धंधे कौन करेगा? वह मन कहां से लाऊंगा? बिना मन लगाये दुनिया के काम-धंधे और सांसारिक कर्तव्य पूरे नहीं हो पाते। महात्मा बोले- मैं तुम्हारे ही उद्घार के लिए कह रहा हूं कि बिना भगवान की भक्ति किए कल्याण नहीं होगा। सेठ बोला- पहले संसार के काम-धंधों से मुक्त तो हो लेने दो। परिवार का कल्याण पहले कर लूं, फिर आपकी सुनूंगा।

इस प्रकार समय गुजरता गया और एक दिन सेठ का स्वर्गवास हो गया। प्रारब्धवश वह सेठ छोटा पिल्ला के रूप में पैदा होकर पुन: उसी घर में आ गया। तब उसके पोते ने रसोई में उसे घुसा देखकर जोर से डंडा मारा। डंडा लगते ही वह मर गया और फिर सांप का जन्म लेकर उसी घर में रहने लगा। एक दिन घर वाले सांप देखकर डरे और उसे मार दिया। फिर मोहपाश में बंधकर पुन: उसी घर की गंदी नाली में एक मोटे कीड़े के रूप में पैदा हुआ। उस कीड़े को देखकर सब घर वाले बड़े चकित हो गये। उन्हीं दिनों वे महात्मा भी घर में पधारे हुए थे। सबने महात्मा जी को वह मोटा कीड़ा दिखाया। तब अंर्तदृष्टिï से उस महात्मा ने देखा तो पाया कि यह तो वही सेठ है। उसकी ऐसी दुर्गति देखकर उस महात्मा ने अपने जूते से उस पर प्रहार किया जिससे वह कीड़ा वहीं मर गया और सद्ïगति पाकर अगला जन्म में मानव शरीर पाया और फिर उसी महात्मा का सेवक बना जो समय के सद्ïगुरु भी थे।

यह दृष्टïांत कोई ऐसी कथा नहीं जिसके सत्य होने का दावा किया जाए। किंतु इसे असत्य भी नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टïांत के माध्यम से लोगों को जीवन के वास्तविक उद्देश्य को पाने के लिए प्रेरणा दी गई है जिससे मनुष्य क्षणभंगुर संसार के मोहपाश में न फंसे और अविनाशी सत्य से जुडऩे की चेष्टïा आज और अभी से प्रारंभ कर दें। अंतत: मनुष्य को परमात्मा की भक्ति करके ही अपना जीवन कृतार्थ करना चाहिए। इसी वजह से सभी महापुरुषों ने मानव शरीर का सदुपयोग भगवान की भक्ति करने में ही बताया है।  गुरुवाणी भी कहती है -

कहु नानक भजु राम नाम नित जाने होत उधार।

अर्थात भगवान के नाम का भजन सुमिरण करने में ही जीवन का अधिकांश समय बिताना चाहिए। ऐसा करने से ही भवसागर से जीव का उद्घार होता है।

वास्तव में संसार के काम धंधे जिनसे पेट भरता है और सांसारिक वैभव व सुख-समृद्घि की अभिवृद्घि होती है किंतु अंत समय में उन्हें यहीं छोडक़र जाना पड़ता है। कोई भी चीज साथ नहीं जाती। अविनाशी प्रभु की भक्ति से जो आनंद मिलता है, वही शरीर छूटने के बाद भी काम आता है। मानव तन के रूप में जीव को एक सुअवसर मिला हुआ है, कभी भी इस मौके से नहीं चूकना चाहिए। यह संसार तो दो दिन के मेले की तरह है जिसमें जीव अनेक प्रकार के रिश्ते-नातों के रूप में एक जगह इक_ïे होते हैं और कुछ समय के बाद संसार से विदा भी हो जाते हैं। माया-मोह में फंसा मनुष्य चाहता है कि संसार का सारा दायित्व मैं जीते जी निभा लूं। भगवान की भक्ति को मनुष्य हमेशा भविष्य पर टालता रहता है। साधु-संत लोगों को बार-बार यही समझाते हैं कि भगवान की भक्ति करने में ही भलाई है। सांसारिक झमेले तो दो दिन के मेले की तरह हैं। लोग अज्ञानता के अंधकार में इस प्रकार भटक रहे हैं कि उन्हें इस सत्य का अहसास ही नहीं होता कि यह संसार दो दिनों का मेला है। यहां किसी को सदैव नहीं रहना है।

  
 
आओ शक्ति का बोध प्राप्त करने की युक्ति से जीवन को सार्थक करें
 

विजय दशमी के रूप में प्रसिद्घ यह त्योहार पूरे देश में विभिन्न नामों और तरीकों से मनाया जाता है। इसके मनाने के पीछे सामाजिक और धार्मिक परंपराएं तो हैं ही साथ ही साथ इसकी पृष्ठïभूमि में कुछ पौराणिक और एतिहासिक संदर्भ भी प्रस्तुत किये जाते हैं।

यह महान पर्व आदि शक्ति देवी भगवती दुर्गा की आराधना का पर्व है जो उनकी दिव्य शक्तियों से अवगत कराते हुए हमें सत्य पथ पर चलने की प्रेरणा देता रहता है। यह शक्ति स्वरूपा देवी दुर्गा सर्व देवी-गुणों (ज्ञान, भक्ति, विवेक और वैराग्य आदि) से संपन्न आदि शक्ति मानी जाती हैं। आदि शक्ति के गुणों की चर्चा दुर्गा-सप्तशती और श्रीमद्ïभाग्वत पुराण नामक धर्म ग्रंथों में बड़े विस्तार से मिलती है। उन्हीं ग्रंथों के आधार पर देवी की आराधना आश्विन के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से नवमी तक नवरात्र उत्सव के रूप में की जाती है। कहीं-कहीं दशमी के दिन रामलीला (मर्यादापुरुषोत्तम भगवान रामचंद्र के जीवन और कार्यों पर आधारित नाटक) का आयोजन भी होता है। क्योंकि जनश्रुति है कि इसी दशमी के दिन रामचंद्र जी ने अन्यायी और अत्याचारी शासक रावण पर विजय प्राप्त की थी।

परंतु किसी भी प्रसिद्घ गं्रथ में यह चर्चा नहीं है कि राम ने इसी दिन ही रावण का वध किया। हां, यह चर्चा अवश्य है कि इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त करने के लिए अपनी विजय यात्रा प्रारंभ की थी। किंतु जनश्रुति के आगे धर्म ग्रंथों की बात दब सी गयी और लोग इस दिन को रावण का मारा जाना ही सही मानते हैं और जगह-जगह इसी दिन रावण के पुतले भी जलाये जाते हैं।

ऐसा कहा जाता है कि स्वयं भगवान रामचंद्र ने लंका पर चढ़ाई से पूर्व नवरात्र में आदि शक्ति देवी भगवती की पूजा की थी। अत: आदि शक्ति दुर्गा और श्री रामचंद्र में श्रद्घा रखने वाला हर श्रद्घालु भक्त बड़े उत्साह और हर्षोल्लास के साथ विजयादशमी पर्व को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से मनाता है। वैसे तो हर पर्व के पीछे कोई न कोई धार्मिक और आध्यात्मिक कारण रहता है, लेकिन इस महान पर्व की महिमा इसीलिए विशेष है कि इसका मुख्य संबंध शक्ति से है। जिसकी महिमा प्राचीन ऋषियों और आधुनिक वैज्ञानिकों दोनों ने समान रूप से स्वीकार किया है। एक तरफ- दुर्गा सप्तशती में आदि शक्ति को सृजन और संहार से परे बताते हुए उन्हें सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक बताया गया है। शक्ति को अजर, अमर, अनादि और अनंत बताते हुए उसे हर प्राणी और वस्तु में स्थित कहा गया है। यथा-

या देवी सर्व भूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता.....।

और, दूसरी तरफ विज्ञान कहता है Energy is neither created nor destroyed अर्थात  शक्ति (ऊर्जा) का न तो सृजन होता है और न विनाश होता है। परंतु देवी, जिसकी आराधना सभी देवी भक्तों ने की है, उसे शक्ति का एक चैतन्य स्वरूप माना गया है। दूसरी तरफ विज्ञान के अनुसार शक्ति उत्पत्ति और संहार से परे तो है, परंतु जड़ है, अचेतन है। फिर भी दोनों मान्यताओं के अनुसार यह सभी भूत प्राणियों और सभी अणु-परमाणुओं में स्थित है। स्पष्टï है- यह हर मनुष्य के अंतरतम में भी स्थित है। संभवत: इसीलिए स्वामी विवेकानंद जी का कहना है- अपने अंदर के देवत्व को प्रकट करो। इसको प्रकट करने के लिए कुछ विशेष प्रयत्न करने की जरूरत है, जिनमें अंतर्मुख करने वाले साधनों का अभ्यास सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। परंतु जब हम केवल बाहरी पूजा-आराधना तक ही सीमित रहते है, या भौतिक शक्तियों की प्राप्ति मात्र के लिए ही जप-तप, संयम का सहारा लेते हैं तो हमें अंदर मुडऩे का अवसर नहीं प्राप्त हो पाता। इसके विपरीत हम बहिर्मुखी हो जाते हैं और बाह्यï सिद्घियों की प्राप्ति कर केवल यश और अहं के चपेट में आ जाया करते हैं, अर्थात अविद्या का दास बनकर अज्ञानांधकार में भटकने लगते हैं।         संयोगवश कोई व्यक्ति जब समय के सच्चे अनुभवी संत-महापुरुष के संपर्क में आता है तो उसे उनसे अंतर्मुख होने वाला साधन अर्थात तत्वज्ञान की प्राप्ति होती है जिससे सच्ची शक्ति (देवी) या देवत्व की पहचान होती है। क्योंकि देवी को दुर्गा सप्तशती में ज्ञानस्वरूप भी कहा गया है। यथा-

या देवी सर्वभूतेषु ज्ञानरूपेण संस्थिता....।

अर्थात वह आदि शक्ति हर भूत प्राणी में ज्ञान के रूप में विराजमान है, जिसे व्यावहारिक रूप से जानकर उपासना करना ही सच्ची आराधना है, सच्ची देवी पूजा या दुर्गा पूजा है। वास्तवमें दशहरा मनाने का यही सर्वोत्तम तरीका है। जब हमारे आंतरिक अनुभव शक्ति के प्रभुत्व से हमारे अंदर उपस्थित अज्ञानजनित विकारों की पराजय होगी तभी हम सही मायनों में रावण पर राम की विजय यात्रा को अपने वर्तमान जीवन में उतार पायेंगे। दशहरा पर्व हम सभी को ऐसा ही करने (शक्ति बोध या आत्म बोध प्राप्त करने) की प्रेरणा प्रदान करता है।

पुन: इस संदर्भ में यह कहना अनुचित न होगा कि आज जब संसार में सभी तरफ शक्ति संतुलन की बात की जा रही है उसकी शुरुआत हर व्यक्ति अपने आप से करे। क्योंकि अतीत से प्रारंभ शक्ति संघर्ष आज भी लाख प्रयत्न के बावजूद जारी है और इस धरती पर पहले ही मनुष्यों ने कितनी विनाश लीलाएं देखी हैं।

अत: ऋषि मुनियों द्वारा निर्दिष्टï चैतन्य आदि शक्ति और आधुनिक भौतिक विज्ञान वेत्ताओं द्वारा बतलायी गयी अचेतन शक्ति के बीच लुप्त कड़ी को किसी समय के मार्गदर्शक महापुरुष की शरणागत होकर जानने का प्रयत्न करें। उस लुप्त कड़ी का अहसास हर व्यक्ति को जब व्यक्तिगत स्तर पर होगा, मात्र सैद्घांतिक ही नहीं, स्वानुभूति पर आधारित होगा। तब स्वत: ही हम एक सुंदर सामंजस्य की तरफ अग्रसर होंगे और यह विश्व में शक्ति संतुलन स्थापित करने में एक आधार का काम करेगी। वह लुप्त कड़ी को किसी समय के मार्गदर्शक महापुरुष की शरणागत होकर जानने का प्रयत्न करें। उस लुप्त कड़ी का अहसास हर व्यक्ति को जब व्यक्तिगत स्तर पर होगा, मात्र सैद्घांतिक ही नहीं, स्वानुभूति पर आधारित होगा। तब स्वत: ही हम एक सुंदर सामंजस्य की तरफ अग्रसर होंगे और यह विश्व में शक्ति संतुलन स्थापित करने में एक आधार का काम करेगी।

वह लुप्त कड़ी और कुछ नहीं, हमारी अपनी ही मूल शक्ति है, वह हमारे अस्तित्व की मूल इकाई है। उस मूल शक्ति के बोध के अभाव में विश्व की विकट परिस्थितियों का कोई समाधान निकलता प्रतीत नहीं होता। अफसोस है कि लोग उस मूल शक्ति को जानने पहचानने तथा पूर्ण मनुष्यत्व की मूल अवधारणा को अपनाने आदि की बातें तो करते हैं, किंतु बहुत कम लोग अपने गोरखधंधे से थोड़ा समय निकालकर इस महत्वपूर्ण पहलू पर विचार करते हैं, आगे कदम बढ़ाकर इसकी अनुभूति प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। आएं, हम दशहरा पर्व पर अपने आप में बैठी रावणी वृति के पराभव के लिए आदि-शक्ति की वास्तविक आराधना करें। अपनी मूल शक्ति का व्यवहारिक बोध प्राप्त करने की युक्ति जानकर इस जीवन को सार्थक करें।

  
 
व्यवहार कुशलता
 

सचमुच व्यवहार मनुष्य का वह अस्त्र है, जो पग-पग पर उसकी रक्षा करता है। मनुष्य की व्यवहार कुशलता ही दूसरे मनुष्य के हृदय पर कोई छाप छोड़ सकती है, जिसकी वजह से दूसरा व्यक्ति उसकी तरफ आकर्षित होता है। जिस प्रकार जब फुलवारी में गुलाब का फूल खिलता है, वह स्वयं कभी अपना बखान नहीं करता, बल्कि उसकी सुंदरता और उसकी महक उसका परिचय खुद-ब-खुद दे देती है। इसी प्रकार व्यवहार कुशल व्यक्ति की व्यवहार कुशलता ही उसका पूरा परिचय देती है। उसे अपने मुंह मियां मि_ïू बनने की जरूरत नहीं पड़ती।

मुझको लगता है, इस महान ज्ञान के पथ पर बढ़ते हुए कोई व्यक्ति जब इस ज्ञान के व्यावहारिक पक्ष के प्रति जागरूक होता है, तब स्वत: ही उसके अंदर उस सुंदर ज्ञान की सुंदरता अपनी पूरी गुणवत्ता सहित प्रवाहित होने लगती है जो उसके हाव-भाव और आचार-विचार के माध्यम से परिलक्षित होने लगती है।

जब ज्ञान का सौंदर्य साधक के व्यावहारिक जीवन में उतरने लगता है, तो उसमें आया बदलाव, उसका प्रसन्न मुख-मंडल और उसकी यह व्यवहार कुशलता स्वत: ही उस अंदर ज्ञान का वास्तविक परिचय प्रदान कर देते हैं। उस व्यक्ति विशेष का यही परिचय दूसरों को भी प्रभावित कर सकता है।

इस संदर्भ में एक बात महत्वपूर्ण यह है कि इस व्यावहारिक पक्ष में साधक का दिन-प्रतिदिन उत्तरोत्तर उन्नति करना आवश्यक है। क्योंकि ज्ञान लेने से पूर्व यदि हमारे आचरण में परिवर्तन नहीं आता तो किस प्रकार पता चल सकता है कि ज्ञान की गुणवत्ता हमारे जीवन में उतर रही है या नहीं? यही ज्ञान हमारे हृदय में बदलाव लाकर हमें व्यावहारिक बना सकता है।

होता अक्सर यह है कि जब कभी हमने ईमानदारी से इस ज्ञान रूपी दर्पण में झांका है, तब सदा अपनी कमियों को ही हमने अपने जीवन में महसूस किया है। स्पष्टï है उन कमियों का आभास हममें इसीलिए उजागर होता है ताकि उनको दूर करने की हमारे द्वारा कोशिश की जा सके। जब उस तरफ हम थोड़ा सा भी प्रयास करते हैं तो हमें उस महान कृपा का अनुभव होता है, तब लगता है कि यह असंभव कार्य उनकी कृपा से संभव हो सकता है। धीरे-धीरे प्रयास करते हुए जब हम जीवनपथ पर अग्रसर होते हैं, तब स्वत: ही हमारे अंदर विलक्षण परिवर्तन होते नजर आते हैं, जो इस महान ज्ञान का प्रभाव है। जब यह ज्ञान व्यावहारिक रूप से प्रयोग में आता है, तब ज्ञान की खुशबू बिखेरने लगती है। इसी से लगता है कि ज्ञान व व्यावहारिक आचरण का घनिष्ठï संबंध है। सचमुच व्यवहार कुशलता ही वह गहना है जो हमारे जीवन को सुंदरतम बनाये रखता है।

 

  
 
वह मददगार
 

जब मनुष्य का जन्म एक नवजात शिशु के रूप में होता है, उस समय उसका हृदय कोमल और श्वेत वस्त्र की भांति निर्मल होता है। परंतु जैसे-जैसे उसका शारीरिक विकास होता है, साथ ही जिस प्रकार के संपर्क में रहने का उसे मौका मिलता है, उसके अंदर अच्छे और बुरे संगत का असर पडऩा शुरू हो जाता है।

बड़ा होने पर अपने और पराये के ज्ञान के साथ अन्य प्रकार के ज्ञान हासिल करने की भी क्षमता उसमें बढऩे लगती हैं। इसके बाद वह खुद अपने बारे में निर्णय लेने के अधिकार को समझने लगता है। इंसान होने के नाते वह यह सहज में ही समझ सकता है कि सृष्टिïकर्ता ने हम सभी को जो जीने के लिए जिंदगी दी है, यह अवसर प्रदान किया है उसमें हमारा अपना कोई सचेतन प्रयास नहीं रहा है। यह एक ऐसा तथ्य है जिससे कोई असहमत नहीं हो सकता। फिर भी कुछ ऐसी आदतों के वश में होकर मनुष्य अपने बारे में सोचना ही नहीं चाहता और इस अनमोल मानव जीवन को, जो देव-दुर्लभ कहा गया है, व्यर्थ ही खो देता है। वइ अनमोल अवसर खो देता है।

आज तक मैंने जो अनुभव किया है वह यही कि मनुष्य चाहे कैसा भी हो परंतु यदि जीवित हो और इतना समझता हो कि अपने बारे में हमारी कुछ जिम्मेदारी है, तो उसे इस दुनिया में मदद जरूर मिल सकती है। क्योंकि वह मददगार हमारे ही अंदर रहकर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है, हमारी मदद करने के लिए हमारी बाट देख रहा है। परंतु आवश्यकता है कि हममें इस बात की जागृति हो जाए, हम उसकी मदद पाने के लिए स्वयं प्रस्तुत हो जायें।

जब सच्चे महापुरुष आते हैं तो दुनिया से कुछ लेते नहीं और दुनिया से कुछ मांगते नहीं हैं। वे उस भेद को बतलाना चाहते हैं जो हमारे अंदर पहले से ही विद्यमान है। सिर्फ उससे जुडक़र आनंद पाने की जिज्ञासा जगाने के उद्देश्य से वे जन-मन में नवचेतना का संचार करते हैं।

मैं अपने जीवन में पहले एक दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह यत्र-तत्र शांति की तलाश किया करता था, परंतु मेरे ज्ञानदाता गुरु जी ने असीम दया करके मुझे ज्यादा भटकने से रोक लिया और अंतनिर्हित शांति के स्रोत से जुडऩे का सरल रास्ता बता दिया। आज उनकी कृपा से मैं प्रसन्न रहता हूं और उनकी सेवा में, उनकी आज्ञा में जीना सुख समझता हूं। धन्य हैं ज्ञानदाता महाराज जी, जिनकी मदद से मेरी जिदंगी बेहाल होने से बच गयी और मेरा मानव-जीवन सही मायने में सार्थक हो गया।

  
 
सुख की अनुभूति और सच्चा मार्ग दर्शन
 

प्रत्येक प्राणी को सुख-दुख की अनुभूति होती है। यह अहसास मानसिक संवेदना पर आधारित होता है। हमारे शरीर, मन, बुद्घि, चित्त और अहंकार आदि के अनुकूल होने वाले प्राकृतिक वातावरण और सामाजिक परिवेश सुख देते हैं जबकि इसके प्रतिकूल परिवेश द्वारा दुख की अनुभूति होती है। कोई भी व्यक्ति दु:ख नहीं चाहता है। उसमें संभवत: सुख भोगने की इच्छा रहती है। मनुष्य अपने सुख प्राप्ति के लिए सदैव तरह-तरह के कार्य करता है। यहां तक कि सुख पाने के लिए हिंसा करने से भी नहीं हिचकता है। फिर भी ये बाहरी सुख-सुविधाएं मनुष्य को अपने मूलभूत जीवन के सौंदर्य का अनुभव नहीं करा पातीं। मनुष्य अपने अंदर में विद्यमान जीवनी शक्ति की झलक धुंधले रूप में यदा-कदा अवश्य महसूस करता है। परंतु व्यावहारिक रूप से उसके अस्तित्व के आनंद से एकाकार नहीं हो पाता। फलस्वरूप वह निरंतर भूख-प्यास, सदी-गर्मी जैसी सारी स्थितियों को झेलते हुए सुख की कामना में यह जीवन जैसे-तैसे गुजारता रहता है। अपने आप से जुडऩे की सही तकनीक की जानकारी के अभाव में वह बहिर्मुखी बना रहता है, जिससे दु:ख उठाने की अनिच्छा रहने पर भी बराबर दु:ख ही उठाता रहता है। सुख प्राप्ति का अवसर उसे कम ही मिलता है।

मनुष्य को छोडक़र अन्य जीवों को दु:ख-सुख भोगने में प्रकृति की ओर से परवशता की बेड़ी है, अर्थात भोग योनि में होने के कारण वे स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। मनुष्य को छोडक़र अन्य जीव सुख प्राप्ति के लिए अपने अंतरतम में जाने का प्रयास नहीं कर सकते। परंतु मनुष्य अपने अंतरतम में जाने का प्रयास कर सकता है। यदि वह चाहे और प्रयास करे तो वह उसके लिए सहज हो सकता है। किंतु अधिकांश मनुष्य इस दिशा में कोई पहल नहीं करते। वे एक महत्वपूर्ण कार्य क्षेत्र से अनभिज्ञ बने बैठे हैं। मनुष्य यद्यपि बौद्घिक रूप से ऊंचा है, वह अपने चिंतन और कार्यों द्वारा सुखी होने का प्रयास करता है। कभी-कभी वह प्राकृतिक नियमों के प्रतिकूल भी चलने की हिम्मत दिखाता है और मार्ग में आने वाली कठिनाइयों को अपने कार्यों द्वारा दूर करता है। वह निरंतर प्रकृति पर विजय प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है और बहुत हद तक सफल भी हो रहा है। बहुत से वैज्ञानिक साधनों को तैयार कर मानव को सुखी बनाने की दिशा में प्रयत्नशील हैं। उनका सदैव यही प्रयास रहता है कि भौतिक तौर पर मनुष्य की सुख-सुविधाओं में किसी प्रकार की कमी न होने पावे। ऐसी भावना मनुष्य के अंदर से स्फुरित होती है। वह मनसा वाचा कर्मणा निरंतर और स्थायी सुख प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है।

मनुष्य के अंतरतम (हृदय) में सुख का खजाना है, किंतु सबको उसकी जानकारी नहीं है। यदि बौद्घिक स्तर पर किसी को कुछ जानकारी है भी तो व्यावहारिक रूप में उसे वह नहीं मिल पा रहा है। किंतु स्वभावत: ही वह अंदर से उसे पाने का प्रयास करने की प्रेरणा प्राप्त कर रहा है। अंतरतम में जाने के लिए उसे एक सिद्घहस्त मार्गदर्शक (कुशल गुरु) चाहिए, किंतु सफल मार्गदर्शक खोजने में बराबर भूल होती रहती है। क्योंकि मनुष्य शब्दों के बाह्यï आडंबरों में फंस कर यह विचार नहीं करता कि मार्गदर्शक (गुरु) बनने का दावा करने वाले व्यक्ति में मात्र सैद्घांतिक वाक्ï-पटुता है या वह क्रियात्मक रूप से हमारे अंतरतम में छिपे सुख-शांति के अपरिमित खजाने तक पहुंचने की विधि बताने की घोषणा भी करता है। सच्चे मार्गदर्शक के स्थान पर झूठे और भुलावा देने वाले मार्गदर्शकों का चुनाव होता रहता है। यही कारण है कि उसको अंदर से तो प्रेरणा होती है कि वह सुख प्राप्त करें, किंतु दु:ख ही मिलता है।

सच्चे मार्गदर्शक की खोज करना अति आवश्यक है क्योंकि उसके बिना जीवन अधूरा और सूना-सूना रहता है, हृदय में शाश्वत सुख का अभाव सदैव खटकता रहता है। दूसरें शब्दों में सच्चे मार्गदर्शक की खोज करना, जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति करना है। परंतु सच्चे मार्गदर्शक कहां मिलें, हम किस पर विश्वास करे, यह भी एक समस्या है।

यदि कोई रोगी किसी डाक्टर के पास जाकर रोगमुक्त होता है तो वह उसी का गुण गाता है। उस रोगमुक्त व्यक्ति के संपर्क में आया हुआ दूसरा रोगी व्यक्ति भी उसी डाक्टर के पास जाने का प्रयास करता है और अगर वह भी रोग मुक्त हो जाता है तो डाक्टर पर लोगों का विश्वास जम जाता है। स्पष्टï है, व्यक्तिगत संपर्क में जाकर उसके द्वारा बतायी गयी औषधि का उपयोग करके ही कोई रोगी डाक्टर की योग्यता का आकलन कर सकता है। एक रोगी के लिए डाक्टर की परीक्षा की यही कसौटी होती है। उसी प्रकार जिसकी कृपा से अपने ही अंतरतम में स्थित शाश्वत सुख की खान से व्यावहारिक रुप से पहुंचने में सहायता मिलती है। उसी समय के तत्वदर्शी सद्ïगुरु की शरण लेने पर ही ऐसा संभव हो सकता है। अपने आप से कैसे जुडऩा है, कैसे अपने आपा का परिचय प्राप्त करना है, इसकी प्रक्रिया सच्चे जिज्ञासुओं को सद्ïगुरु द्वारा प्रदान की जा सकती है।

प्रकृति द्वारा प्रदत्त प्रत्येक वस्तु में निश्चय ही सुख है किंतु उसकी अनुभूति इंद्रियों के माध्यम से होती है और थोड़े समय के लिए होती है। इस प्रकार के सुख भोगते-भोगते मनुष्य बूढ़ा हो जाता है किंतु अंदर से असंतुष्टï ही रहता है।

सद्ïगुरु के द्वारा दिये गये ज्ञान की अनुभूति से जीवन के हर पहलू पर एक संतुलन, एक पैनी परख और एक अद्ïभुत संतुष्टिï का अहसास संभव है। कोई भी मनुष्य यदि उस मार्ग में बढऩे का बराबर और लगातार प्रयास करे तो उसे अंतरतम की संतुष्टिï अवश्य मिल सकती है और वह सुखी हो सकता है।

अंतरतम की संतुष्टिï अपने आप में पूर्ण रूप में विद्यमान हैं। वह किसी वस्तु विशेष से जुडऩे का परिणाम नहीं है बल्कि रचयिता की ओर से प्रत्येक मानव के अंदर दी हुई है। उससे कैसे जुड़े, इसी के लिए मनुष्य को सच्चे मार्गदर्शक से सही विधि की जानकारी प्राप्त करने हेतु प्रयास करने की आवश्यकता है।

मार्गदर्शक सद्ïगुरु सच्चे मिल गये- इसकी पुष्टिï स्वयं अंदर में प्राप्त अनुभूति, आनंद और प्रेम से होती है। ऐसा आनंद प्राप्त करने वाला मनुष्य स्वयं निर्णायक होता है। जब मनुष्य को उस असली सुख का परिचय मिलता है तो वह कृतार्थ हो जाता है।

 

  
 
दु:खों से छूटने का उपाय
 

एक बार की बात है, भक्त श्रेष्ठï प्रह्लïाद जी अपने कुछ मंत्रियों के साथ प्रजा की सही स्थिति जानने के लिए, उनके दुख-दर्दों को समझने के लिए राज्य में भ्रमण कर रहे थे। घूमते-घूमते वह सह्यï पर्वत की तलहटी में कावेरी नदी के तट पर पहुंचे। एकाएक उनकी दृष्टिï एक ऐसे व्यक्ति पर पड़ी, जिसका सारा शरीर धूलि-धूसरित तथा भोगी मनुष्यों की तरह हृष्टï-पुष्टï था। उसे देखकर कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह कोई ऋषि मुनि या अवधूत है। किंतु भक्तराज प्रह्लïाद की दृष्टिï से यह बात छिपी न रही। उन्होंने पहचान लिया कि वे मुनि दत्तोत्रय हैं।

मुनि के निकट जाकर प्रह्लïाद जी ने उनके बारे में जानने की इच्छा से प्रश्न किया कि भगवान! आपका शरीर विद्वान, चतुर तथा समर्थ है। ऐसी अवस्था में आप सारे संसार को कर्म करते हुए देखकर भी समभाव से पड़े हुए हैं, इसका क्या कारण है? यदि हमारे सुनने योग्य हो तो अपने बारे में हमें अवश्य बतलाइये।

मुनि दत्तात्रेय जी ने कहा- दैत्यराज! मैंने अपने अनुभव से जैसा भी, जो कुछ जाना है, उसके अनुसार मैं आपके प्रश्नों का उत्तर देता हूं।

तृष्णा एक ऐसी वस्तु है, जो इच्छानुसार भोगों के प्राप्त होने पर भी पूरी नहीं होती। उसी के कारण मनुष्य को जन्म मृत्यु के चक्कर में भटकना पड़ता है। तृष्णा ने मुझसे न जाने कितने कर्म करवाये और उनके कारण न जाने कितनी योनियों में मुझे डाला।

कर्मों के कारण अनेक योनियों में भटकते हुए मुझे प्रभु कृपा से मनुष्य योनि मिली है। यह मनुष्य योनि स्वर्ग, मोक्ष, तिर्यग्योनि तथा इस मानव देह की प्राप्ति का भी द्वार है। इस शरीर को पाकर मनुष्य पुण्य करे तो स्वर्ग, पाप करे तो पशु-पक्षी आदि की योनियां तथा पाप और पुण्य दोनों से अलग होकर निष्काम कर्म करे तो मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

परंतु मैं इस संसार में देखता हूं कि सारे लोग कर्म तो करते हैं सुख की प्राप्ति के लिए, दु:खों से छुटकारा पाने के लिए, परंतु उसका फल उल्टा ही होता है और वे दु:खों में पड़ जाते हैं। इसीलिए मैं कर्मों से उपरत हो गया हूं।

मनुष्य की आत्मा ही सुखस्वरूप है। मनुष्य का शरीर ही उसके प्रकाशित होने का स्थान है, और उसके सारे कर्मों से निवृत्त हो जाता है। छुटकारा पा जाता है और यही मोक्ष है। इसलिए संसार के सभी भोगों को मन का विलास समझ कर वह अपने प्रारब्ध को भोगता हुआ पड़ा रहता है।

मनुष्य अपने सच्चे परमार्थ, यानी वास्तविक स्वरूप को, जो कि अपना ही स्वरूप है, भूलकर इस संसार को सत्य मानता हुआ अत्यंत भयंकर और विचित्र जन्म-मरण के चक्र में भटकता रहता है।

जैसे अज्ञानी मनुष्य जल में उत्पन्न तिनके और सेवार से ढके हुए जल को जल न समझकर, जल के लिए मृगतृष्णा की भांति दौड़ता है, वैसे ही अपनी आत्मा से भिन्न वस्तु में सुख समझने वाला पुरुष आत्मा को छोडक़र विषयों की ओर दौड़ता है।

यह शरीर तो प्रारब्ध के अधीन है। कर्मों के द्वारा जो अपने लिए सुख पाना और दुखों को मिटाना चाहता है। वह कभी अपने कार्य में सफल नहीं हो सकता। उसके बार-बार किये हुए सारे कर्म व्यर्थ हो जाते हैं। मनुष्य सदा शारीरिक, मानसिक आदि दुखों से परेशान ही रहता है। यह मरणशील मनुष्य यदि बड़े श्रम और कष्टï से कुछ धन और भोग प्राप्त भी कर लिया तो उससे क्या होने वाला है। लोभी और इंद्रियों के वश में रहने वाले धनियों का दुख तो मैं देखता ही रहता हूं। भय के मारे उन्हें नींद नहीं आती। सब पर उनका संदेह बना रहता है। इसलिए बुद्घिमान पुरुष को चाहिए कि जिसके कारण शोक, मोह, भय, क्रोध, राग आदि का शिकार होना पड़ता है, उन सबको त्याग दे, क्योंकि त्याग से ही सुख प्राप्त होता है।

मधुमक्खी जैसे मधु इक_ïा करती है, वैसे ही लोग बड़े कष्टï से धन का संचय करते हैं, परंतु दूसरा ही कोई उस धनराशि के स्वामी को मारकर उसे छीन लेता है। इससे मैंने यह शिक्षा ग्रहण की कि विषय भोगों से विरक्त ही रहना चाहिए।

सत्य की खोज करने वाले मनुष्य को चाहिए कि मन के नाना प्रकार के संकल्प-विकल्पों को आत्मानुभूति में स्वाह कर दे, आत्मा में स्वाहा कर दें और इस प्रकार आत्म-स्वरूप में स्थित होकर सांसारिक भोगों से निष्क्रिय एवं उपरत हो जाय। तब वह स्वत: ही सुख स्वरूप हो जायेगा।

प्रह्लïाद जी मुनि दत्तात्रेय से धर्म के इन गूढ़ रहस्यों को समझ कर बड़े प्रेम से मुनि की पूजा की और उनसे विदा लेकर बड़ी प्रसन्नता से अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान किया।

 

  
 
परमात्मा की सच्ची भक्ति व पूजा है प्रेम की प्रगाढ़ता
 

मित्रो, प्रेम के बिना मानव जीवन का कोई अर्थ नहीं होता। प्रेम और भक्ति में जब समर्पण की भावना जुड़ जाती है तब एक शक्ति का निर्माण होता है। जीवन के लिए संजीवनी है प्रेम। क्योंकि प्रेम परमात्मा की एक अनुपम देन है। मनुष्य को परमात्मा ने अनेक प्रकार की विशिष्टïताओं से युक्त बनाया है। उसमें सबसे बड़ी विशिष्टïता यह डाली है कि मनुष्य किसी को भी प्रेम करके अपना बना सकता है। सच पूछिए तो प्रेम के माध्यम से हिंसक जन्तुओं पर काबू पाने की घटनाएं तो देखी ही जाती हैं किंतु पत्थर से भी परमात्मा को प्रकट कर लेने के अनेक उदाहरण इतिहास में मौजूद हैं। प्रेम भरा व्यवहार हमें लोगों से जोड़ता है। जबकि नफरत करने से अपने सगे भी दुश्मन की तरह पेश आने लगते हैं। इसलिए प्रेम को सबसे सुन्दर हथियार बताया गया है, जिसके द्वारा सबको आसानी से अपने वश में किया जा सकता है।

इसलिए रात को जब हम सोने जा रहे हैं तब मन ही-मन ईश्वर को याद करें और जो भी बात हमारे मन में हो, उसे अपनी आत्मा की आवाज में उनसे प्रेम पूर्वक कह डालें। इससे हमारा ईश्वर के साथ सीधा वार्तालाप करने का मार्ग खुल जाता है। ईश्वर तो पहले से ही जानते हैं, लेकिन उनके सामने प्रेम से हृदय खोल देने से हम स्वयं को उनके प्रति ग्रहणशील बनाते हैं। कभी ऐसा भी प्रतीत होता है कि दिन और महीने गुजरते जा रहे हैं और ईश्वर हमें हमारे प्रेम का कोई प्रत्युत्तर नहीं दे रहे हैं, तब भी हम निराश न हों। हम हार मान लेते हैं और कहने लगते हैं कि अरे, क्या फायदा है, ईश्वर हमारी सुनते ही नहीं। वास्तव में ईश्वर हमारी हर बात सुनता हैं और समय आने पर वह हमारी सहायता भी करता करता है।

हम जीवन के किसी भी चरण में निराशा या हार को स्वीकार न करके अपनी प्रेम की साधना को हर हाल में जारी रखें। जब कभी हमारे हृदय में प्रेम का आनंद प्राप्त नहीं हो पाता है तब भी हमें सोचना चाहिए कि कोई बात नहीं है प्रभु, मैं हार नहीं मानने वाला हूं। मैं आप से प्रेम करना नहीं छोड़ूंगा। क्योंकि जिस ईश्वर से हम प्रेम करते हैं वह हमारे मौन का या कभी-कभार कहे गए कठोर शब्दों का गलत अर्थ निकालकर हमसे मुंह नहीं मोड़ेगा। कारण कि हम ईश्वर के प्रेम भरे सांचे में ढाले गए हैं। हम वास्तव में उनसे प्रेम करें।

प्रेम में ही शक्ति है। प्रेम में ही विश्वास है। प्रेम करने से पत्थर में से भी परमात्मा प्रकट हो जाते हैं। जहां श्रद्घा है, जहां विश्वास है, वहां कुछ भी असंभव नहीं होता है। भक्ति प्रेम का प्रगाढ़ रूप है। इसलिए परमात्मा के साथ प्रगाढ़ प्रेम से जुड़ो। यदि तुम्हें  परमात्मा से कुछ मांगना है तो भक्ति और प्रेम मांगो। प्रेम में सहजता है, सरलता है। परमात्मा का सुमिरण केवल अपने व्यापार वृद्घि और बैंक बैलेन्स बढ़ाने के लिए मत करो। बल्कि सदा उनसे प्रार्थना करो कि जीवन में नैतिकता आये, संस्कार बना रहे, अच्छा आचरण रहे, सदाचार रहे।

परमात्मा से परमात्मा के गुण मांगो। नैतिकता से युक्त, पवित्र व स्वस्थ जीवन व्यतीत करना ही परमात्मा की सर्वश्रेष्ठï पूजा है। परमात्मा से प्रार्थना करो तो बस कुछ पल आंखें बंद करो, मन को शांत रखने का प्रयास करो। जिस मौन में परमात्मा प्रत्यक्ष होता है, उसी मौन में जाने का प्रयास करो। ऐसा करने पर सभी सद्ïगुण आपके भीतर आ जायेंगे। उस परम मौन स्थिति में पहुंचना सर्वोत्तम योग साधना है। वह परम मौन की स्थिति पूर्ण गुरु की कृपा या परमात्मा की अपार भक्ति से ही उपलब्ध होती है। संसार में प्रतियोगिता है, संसार में प्रतिस्पर्धा है, किसी ने पा लिया तो शेष नहीं रहेगा। लेकिन परमात्मा कोई प्रतियोगिता नहीं है। तुम पूरे परमात्मा को भी प्राप्त कर लोगे तो भी पूरा परमात्मा बाकी रहेगा। यही बात उपनिषद भी कहते हैं कि पूर्ण से पूर्ण निकाल लो, तो भी पूर्ण पीछे शेष रह जाता है। वहां तुम्हारे ले लेने से कुछ खर्च नहीं हो रहा है। कितने भी लोग परमात्मा को पा लें, परंतु परमात्मा उतना ही बना रहेगा जितना पहले था। वह कभी समाप्त नहीं होगा।

परमात्मा अनंत है। परमात्मा का कभी अंत नहीं होता है। मनुष्य जीवन पाकर परमात्मा से जुडक़र परमात्मा से एकाकार हो जाने का अवसर मिला है। परंतु हम तो संसार के झमेलों में व्यस्त हो गये हैं। हमारे लिए सांसारिक विषय ज्यादा महत्वपूर्ण हो गये हैं। संसार में तो नई उत्पति होती रहेगी। जो आज है, कल नहीं रहेगा। आज एक गाड़ी का आविष्कार हो गया तो  कल उससे भी बढिय़ा गाड़ी का आविष्कार हो जायेगा। आप सभी गाडिय़ा खरीदने की क्षमता नहीं रख सकते। क्यों न रोज-रोज जो नयी गाड़ी तैयार कर रहा है, उस उत्पति के कर्ता यानी परमात्मा से दोस्ती कर लें।

मनुष्य रूप में जन्म लेकर यदि तुम्हारे वश का कुछ नहीं है तो प्रेम का रास्ता अपना सकते हो। क्योंकि प्रेम से ही ध्यान, योग, साधना इत्यादि संभव हो सकता है, जो परमात्मा से जुडऩे का सबसे सरल उपाय है। स्वभाव से सरल हो जाओ। मन में मत पैदा होने दो कुंठाएं। जैसे तुम अपने आप को प्रेम करते हो, वैसे ही प्रेम परमात्मा से भी करो । परमात्मा को अपना ही अंशी समझो। प्रेम से ही भक्ति होती है। क्योंकि प्रेम में पूर्ण समर्पण की भावना होती है, उसमें स्वार्थ नहीं होता। जहां प्रेम होता है, वहां त्याग की भावना होती है। जहां अहंकार होता है, वहां प्रेम की भावना नहीं होती। प्रेम में लोभ की भावना नहीं होती। जिसके अंदर प्रेम का भाव है, वही भक्ति कर सकता है। प्रेम से, परमात्मा से, जुडऩा ही भक्ति है। परमात्मा को पाने का सबसे सरल उपाय प्रेम पूर्वक समर्पित हो सच्चे भक्त बन जाओ। प्रत्येक घटना को परमात्मा की इच्छा मान स्वीकारते जाओ। उसे परमात्मा की मर्जी समझ स्वीकारते जाओ। स्वीकार करने का भाव अपने अंदर ले आओ। परमात्मा जैसा चाहता है उसे स्वीकार करना सीखो, मत करो विवाद, मत करो शिकायत, मत करो क्रोध, मत हो नाराज।

परमात्मा से आत्मा का जुड़ाव न होने के कारण मनुष्य के अंदर स्थित आत्मा अचेत हो गई है और मन आत्मा पर हावी हो गया है। मन में कई तरह के विकार आ गये हैं, जिससे चेतन शक्ति क्षीण हो गई है। अचेत पड़ी आत्मा को सचेत करना होगा। क्योंकि आत्मा तो परमात्मा का अंश है। आत्मा को सचेत करने के लिए परमात्मा से जुडऩे का प्रयास करना होगा। हमें अपने अंदर परमात्मा के गुणों को विकसित करना होगा। इसके लिए सदाचारी बनो, अपने अंदर सद्ïभाव लाओ। अपने दिल से नफरत को निकाल दो और संसार में प्रेम की ज्योति जला दो। बिना जप तप किये, परमात्मा को पाने का सबसे सरल उपाय है कि परमात्मा से प्रेम करो। प्रभु के भक्त हो जाओ। जैसे तुम अपने आपसे जुड़े हो वैसे ही परमात्मा से जुड़ जाओ। परमात्मा का भजन ही तुम्हें इस संसार से पार उतारेगा। परमात्मा का सुमिरन ही तारेगा। दो अक्षर प्रभु के नाम का प्रेम से स्मरण करने से ही परमात्मा का दर्शन संभव है। क्रोध की लाल आंखें कुछ न कर सकेेेेेंगी। मोह-लोभ से भरे तुम्हारे कर्म व्यर्थ हो जायेंगे। मन में द्वेष के विचार पतन की ओर ले जायेंगे। तुम्हारे प्रेम भरे वचन स्वर्ग की ओर मोड़ देंगे। तुम्हें बताना, समझाना, मेरा कर्तव्य है, मेरे बताए हुए को समझना तुम्हारा कर्तव्य है।

मैंने प्रभु से जुडऩे की युक्ति बताकर अपने दायित्व को पूरा किया है। उस युक्ति को समझकर उसे अमल में लाते हुए तुम अपने दायित्व को पूरा करो। यह जीवन कर्म करने के लिए मिला है। जिनकोअपने जीवन से प्रेम है, वे कर्म कर रहे हैं। बिना प्रेम के कुछ भी संभव नहीं होता। परमात्मा का नाम ही प्रेम है। इसलिए जहां प्रेम है, वहां परमात्मा है।

सच्चे भक्त की यही पहचान है कि वह सदा सबसे प्रेम करता है। उसको घट-घट में परमात्मा दिखते हैं। परमात्मा को प्रेम और भक्ति के फूल अर्पित करना चाहिए। छल और कपट करने से हमेशा के लिए परमात्मा से दूर हो जाओगे। एक दिन ऐसा करो कि तुम मंदिर जाओ, वहां अपना सबकुछ छोड़ आओ। अपना अहंकार, क्रोध, इगो, द्वेष सभी प्रभु के चरणों में अर्पित करने के बाद वापिस आते समय प्रभु से बस प्रेम और भक्ति मांग लाना। ऐसा करके देखना, तुम्हारे जीवन में परिवर्तन आ जायेगा। कभी गुस्सा करने को मन करे तो याद करना वह तो मैं मंदिर में भूल आया, मुझे बस प्रेम करना है सबसे। गुस्सा करोगे तो सामने वाला भी गुस्सा करेगा। प्रेम से बोलोगे तो सामने वाला भी प्रेम से बोलेगा। इच्छा आपकी है, अपने अंदर एक निश्चय कर लो कि आज से बुरा आचरण छोड़ देना है, बस प्रेम ही प्रेम करना है। धीरे धीरे वह स्वभाव भी बन जायेगा। पहले सदा निश्चय करना पढ़ता है, धीरे-धीरे वह स्वभाव हो जाता है, वह आदत बन जाती है।

प्रेम ही परमात्मा का स्वरूप है। प्रेम के जीवन में आने से परमात्मा के अन्य सभी गुण स्वत: आ जायेंगे और दुर्गुण दूर हो जायेंगे। एक बार छोटा सा प्रयास करके देखो सफलता जरूर मिलेगी। आज से ही संकल्प ले लो कि भक्ति और प्रेम के मार्ग पर चलेंगेे। आत्मा से संकल्प लेना ही ज्ञान, ध्यान और साधना के अंग हैं। प्रेम और भक्ति में लीन हो गये तो ध्यान, आत्म बोध, आत्म ज्ञान, साधना अपने आप हो जायेगी। सच्चा प्रेम हो तो पत्थर से भी परमात्मा प्रकट हो जाते हैं। प्रेम की प्रगाढ़ता ही परमात्मा की सच्ची भक्ति व पूजा है।

��ा�` ������ ��ाध्यम है जिसके सहारे परमात्मा उतरता है। गुरु आशा की किरण है जिसके आसरे शिष्य पनपता है। गुरु माला की वह डोर है जिसके सहारे शिष्य प्रभु के गले से लिपटा रहता है। गुरु का यही गुरुत्वाकर्षण, शिष्य को गुरु से सदा बांधे रखता है।

 

 

  
 
बोध कथा
 

हमारे प्राचीन मनीषियों ने विविध प्रसंगों में इस संसार को सपना कहते हुए इसकी क्षणभंगुरता को विशेष रूप से रेखांकित किया है। सपना तो सपना होता है। सपने में एक भिखारी भी राजा बन जाता है और राजा भी रंक की तरह दर-दर की ठोकरें खाने लगता है। लेकिन उस सपने का वास्तविक दुनिया में कोई महत्व नहीं होता। जागने के साथ ही सपने का संसार समाप्त हो जाता है। फिर भी एक बात विशेष रूप से गौर करने वाली है कि कोई भी सपना सपना के दौरान पूरी तरह यथार्थ नजर आता है। उस समय ऐसा नहीं लगता कि यह सब झूठ है। फिर भी सपने का यथार्थ से कोई सम्बंध नहीं होता।

कहते हैं गोनू झा को उनकी पत्नी उठा रही थी। वह कह रहे थे - अभी नहीं। ठहर, अभी नहीं।

फिर घड़ी भर बाद पत्नी ने उठाया। गोनू झा ने कहा - अरी भागवान, तूने सब कुछ नष्ट कर दिया। एक आदमी सपने में मुझे निन्यानबे रुपये दे रहा था। और मैं जिद पर अड़ा था कि सौ। और बेवक्त तूने जगा दिया। फिर कितनी ही आंख बंद की, वह दिखायी नहीं पड़ता। वे निन्यानबे रुपये भी गये। मैंने उससे बाद में यह भी कहा कि अच्छा चलो, निन्यानबे ही सही, अठानबे ही सही! आखिर एक तक आ गया। पर वह दिखायी नहीं पड़ता। बेवक्त तूने जगा दिया। जरा रूक जाती तो क्या पहाड़ टूट जाता। लेकिन तेरी पुरानी आदत है - बेवक्त।

मेरे मित्रो, यह तथ्य है कि जब कोई व्यक्ति मधुर सपना देखता है, तब वह पत्नी क्या, प्रबुद्घ महापुरुषों के उपदेशों को भी नहीं सुनना चाहता। क्योंकि उस समय वह गोनू झा की तरह निन्यानबे-सौ के चक्कर में फंसा रहता है। उसमें वह कोई बाधा नहीं चाहता। क्योंकि उसका सपना अपने पूर्ण सुख के करीब पहुंचने वाला रहता है।

लेकिन याद रहे, सपना तो सपना है - चाहे सुखद हो, चाहे दुखद। सपना तो झूठ का पुलिंदा होता है जिसका कोई मूल्य नहीं होता। सपने के दौरान सपना भले ही सुखद हो या दुखद हो किन्तु आंखें खुलने के बाद उनका कोई मूल्य नहीं होता। उसी प्रकार हमारा भौतिक जीवन है। भौतिक जगत की सुख-सुविधाओं के संचय में हम अपनी आत्मा की वास्तविक सुख-शांति से आंखें मूंदे रहते हैं। हम भौतिक सुख-सुविधाओं के जुगाड़ के सपने में खोये रहते हैं। किंतु जब किसी वजह से सपना टूटना है तब पता चलता है कि वह तो झूठा था, वह तो सपना था। और सपना तो सपना ही होता है। सत्य ही शाश्वत है और भ्रमवश हम उससे आंख मूंदे रहते हैं। अब भी वक्त है। आज और इसी क्षण सपनों से बाहर निकलो।

 

 

 

  
 
 

कई बार हम किसी व्यक्ति से ऐसे मिलते हैं कि हम स्वयं को उसके समझ बिना किसी कारण के, बिना किसी उधेड़-बुन के, ज्यों का त्यों छोड़ देते हैं। परत दर परत स्वयं को उघाड़ देते हैं। न छिपाते हैं न हिचकिचाते हैं। हम स्वयं ही नहीं समझ पाते कि अचानक किसी से इतना लगाव, इतना अपनापन और भरोसा क्यों ? हम बस उसके होकर रह जाते हैं। कुछ सीखने व समझने के लिए मन स्वत: ही बंद किवाड़ खोल देता है। ऐसा लगता है कि जैसे मिल गई मंजिल, मिल गया किनारा, मिट गई थकान। अब कहीं और रुख करने की जरूरत नहीं। अब मैं वहां पहुंच गया हूं जहां मुझे घंटों कुछ कहने या समझाने की जरूरत नहीं। समय और ऊर्जा को गंवाने की आवश्यकता नहीं। सामने वाला मेरी अनकही को, खामोशी को कहने में माहिर है, मेरे उलझे हुए भावों को सुलझाने में माहिर है, आंखों में डूबे अश्कों को उबारने की कला जानता है। उससे बात करके, उसकी सुनके ऐसा लगता है, अरे यह तो मुझे कहना था। यह शब्द, यह बोल, यह सिसकियां, यह कशमकश, यह प्रश्न और ये जिज्ञासाएं तो मेरी थी। यह अनुभव, यह अफसाना तो मेरा था। सामने वाला इनसे कैसे और कब वाकिफ हो गया। वह मुझे मुझसे बेहतर कैसे जानता है? वह मुझे मेरी संतुष्टि के तल पर कैसे अभिव्यक्त कर रहा है? कैसे मेरे भटकाव को विराम, मेरे इंतजार को परिणाम और गुमराहपन को राह दे रहा है।

ऐसा कोई और नहीं गुरु ही हो सकता है। और यह सब कोई चमत्कार नहीं गुरु की अपनी विशेषता, उसका अपना गुरुत्वाकर्षण है। जिसके प्रभाव से सामने वाला बिना किसी निमंत्रण के खिंचा चला जाता है और स्वयं को पूर्ण समर्पित कर देता है। स्वयं का समर्पण ही गुरु से निकटता का माध्यम है। परंतु किसी अनजान, अपरिचित के समक्ष यह समर्पण कैसे संभव हो जाता है। कैसे कोई व्यक्ति अपने जीवन के बने-बनाए फलसफों को छोडक़र नए रास्ते पर चलने को राजी हो जाता है? ये आस्था कहां से आती है जो मिलकर जीने की, कुछ नया होने की इच्छा पैदा कर देती है? क्यों हम स्वयं को इतनी बेफिक्री से दूसरे के हाथ में सौंप देते हैं?

यही तो गुरु का गुरुत्वाकर्षण है कि एक बार समग्रता से जिसने स्वयं को छोड़ दिया वो बस उसका हो जाता है। फिर उसको कुछ और नहीं भाता। वास्तविक गुरु की पहचान ही यह है कि जो उसके आसपास से गुजर जाता है वह उसका हो जाता है। जो उसकी आंख से आंख मिला लेता है उसका हरण हो जाता है और गुरु उसकी सारी बाधाएं हर लेता है। यही सार है गुरु शिष्य के संबंध का। यही स्थिति है पूर्ण समर्पण की। यही परिणाम है शिष्य की यात्रा का। यही सुबूत है श्रद्धा और विश्वास का।

गुरु के भीतर ऐसा क्या है जो उसे आम आदमी से अलग करता है? कौन झांकता है उसकी आंखों से जो हमें बस में कर लेता है? कौन लिप्त है उसकी देह में जो उसके आकर्षण को कई गुना कर देता है? कौन विराजता है उसकी जिह्वïा पर कि जब भी होठ खोलता है तो अमृत बरसता है? क्या है गुरु में जो शिष्य को खींच लेता है ? क्या है गुरु में जिससे शिष्य जुदा होना भी चाहे तो वापस लौट-लौट आता है? कौन सी कशिश, कौन सा गुण कौन सा आकर्षण है जो गुरु को गुरु बनाता है? वह कौन सा ऐसा चुंबक है जो स्थान की दूरी लुप्त कर देता है और अपनी ओर खींच लेता है?

वह है गुरु का ज्ञान, उसका अनुभव, उसका त्याग, उसकी तपस्या, उसकी साधना और परमात्मा से उसकी आत्मा की संधि। गुरु वह शक्ति है जिसका दर्शन बंद आंखों से भी चारों पहर बना रहता है। गुरु वह है जिसके स्मरण मात्र से ही सभी दुखों से उद्घार हो जाता है। जिसको देखकर नजरों के नजारे साफ हो जाते हैं। जिसके अनछुए स्पर्श के सहारे हम भीतरी जगत् की यात्रा निस्संकोच पूरी कर लेते हैं। जिसके शब्दों से माधुर्य बरसता है और मौन में सुकून समाता है, जिसके आगे मिटने को, झुकने को शिष्य राजी हैं। गुरु वह है जो हमारी हर पल खबर रखता है, जो हमारी फिक्र करता है, हमें हमारी सुध दिलाता और हमें हमसे पार ले जाता है।

वह गुरु है जो हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है, अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाता है।  गुरु प्रतीक है ज्ञान रूपी प्रकाश का, गुरु के भीतर विराट आकाश मौजूद है, रत्नों से परिपूर्ण सागर की गहराइयां भी विद्यमान हैं। गुरु देने की भाषा जानता है, गुरु समझने-समझाने का हुनर जानता है, गुरु बिना बोले बहुत कुछ कह जाता है। गुरु शिष्य से कुछ छीनता भी है तो भले के लिए। गुरु की हर हरकत, हर निर्णय, हर क्रिया-प्रतिक्रिया शिष्य की भलाई के लिए होती है। गुरु का हर इशारा, हर कदम महत्त्वपूर्ण होता है, उसमें कोई रहस्य, कोई राज, कोई सीख तो कोई भलाई छिपी होती है। बस जरूरत है तो उसे भीतर की आंख से देखने की।

गुरु माली है और शिष्य वृक्ष। गुरु माली की तरह बीज की तलाश करता है फिर उसे उचित समय पर उचित भूमि में रोपित करता हैै। समय-समय पर उसे जरूरत के  अनुसार खाद-पानी देता है। बीज धीरे-धीरे पौधा बनता है। इस अवस्था में भी माली पौधे की फिक्र और देखभाल में लगा रहता है। कभी मौसम तो कभी जंगली जानवर, तो कभी कीटाणुओं से होने वाली बीमारियों से उसे बचाता है। जब वह पौधा बड़ा पेड़ बन जाता है तब माली उसे पानी देना बन्द कर देता है। वृक्ष माली की मदद से अपनी जड़ों को स्वयं इतनी गहराइयों तक फैला चुका होता है कि वह अपना इंतजाम, अपनी रक्षा स्वयं करना सीख जाता है। अब वह देने के काबिल हो जाता है। यात्रियों को छाया देता है तो पक्षियों को उनका आशियां, फल-फूल देता है, तो कहीं अपने अर्क एवं जड़ों द्वारा औषधि के रूप में प्रयोग होता है। हरियाली फैलाकर वातावरण को प्रदूषण से मुक्त रखता है तो वर्षा का माध्यम बन धरती एवं धरती पर रहने वाले प्राणियों की प्यास बुझाता है।

वृक्ष की तरह गुरु भी शिष्य को एक समय, एक स्थिति और एक हद तक सींचता है। गुरु तभी तक देता है जब तक उसे जरूरी लगता है। गुरु शिष्य को मात्र जड़ ही नहीं देता बल्कि उन जड़ों को उनका विस्तार भी प्रदान करता है, जड़ों को उनका सागर दे देता है। फिर गुरु शिष्य को पेड़ की तरह अकेले जीने को छोड़ देता है, और देने की, बांटने की, झुकने की कला भी सिखा देता है।

फूल पेड़ के होते हैं पर सुगंध उसमें माली की होती है, पत्तियां स्वयं वृक्ष की होती है पर उनमें सौंदर्य माली का होता है। पेड़ का आकार, उसका घनत्व, उसकी छाया सब वृक्ष का होता है पर देख-रेख सब माली की होती है। सबको पेड़ की ऊंचाई दिखती है परंतु उसकी गहरी जड़े नहीं दिखती। सबको पेड़ पर फल दिखते हैं। परंतु बीज को फल में रूपांतरित करने वाला माली, उसकी मेहनत, उसका पसीना नहीं दिखता। गुरु भी ठीक माली की तरह होता है और शिष्य वृक्ष की तरह। शिष्य की हर यात्रा में, हर उपलब्धि में, हर भाव-भंगिमा एवं रूपांतरण में गुरु का योगदान होता है जो दिखता नहीं है पर जड़ों की तरह शिष्य के जीवन में सदा संलग्न रहता है।

वृक्ष सदा देता है उसके पास जो भी है, उससे जो भी पैदा होता है या अलग होता है सबका किसी न किसी रूप में उपयोग होता है। वृक्ष देने की भाषा जानता है। वृक्ष को पत्थर मारो या लाठी, वह फल ही देगा क्योंकि वृक्ष का स्वभाव देना है।

शिष्य भी देना सीख जाता है, जो पाया है उसे बांटना, लौटाना, सीख जाता है। कैसे भी, उससे कुछ भी कहा जाए उसके हाथ आशीर्वाद के लिए ही उठते हैं और वाणी के प्रत्येक शब्द में गुरु ही प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से विद्यमान होता है, अंगूठे से सिर तक सिर्फ रक्त नहीं गुरु की कृपा, उसका नाम भी संचारित होता है।

यही गुरु का आकर्षण है और यही गुरु का जीवन में चमत्कार। गुरु केंद्र है और शिष्य परिधि। बिना केंद्र के परिधि नहीं और बिना गुरु के शिष्य का वजूद नहीं। धरती की तरह गुरु का भी एक गुरुत्वाकर्षण होता है जहां सारी की सारी फेंकी गई चीजें, किए गए प्रयास लौट-लौट कर वापस आते हैं। वृक्षों से झरता फूल, झरनों से बहता जल, वर्षा की नन्हीं बूंद, सूरज से छनती रोशनी सब नीचे धरती की ओर ही बहती हैं, मानो सब धरती को धन्यवाद दे रहें हों, अपनी कृतज्ञता को भिन्न-भिन्न रूपों एवं अवस्थाओं में व्यक्त करती है प्रकृति। यही इस धरती का सौंदर्य है और यही इस धरती का गुरुत्वाकर्षण। सभी कुछ इस धरती पर पैदा होता है, बनता है, संवरता है। सभी की जड़ें, नसे, स्रोत एवं माध्यम इस धरती से किसी न किसी रूप में जुड़े हैं तभी तो सभी किसी न किसी रूप में पुन: लौट आते हैं। धरती प्रगाढ़, अगाध प्रेम सभी को खींच लाता है। धरती के गर्भ में चुंबकीय तत्त्व उसके स्वयं की साधना, तपस्या, अंतर्यात्रा एवं अनेक रहस्यों का प्रतीक है जो चुंबक बन सबको अपनी ओर खींच लेता है।

गुरु भी धरती की तरह है जिसकी भूमि पर अनेकों फल-फूल और वृक्ष लगते हैं। इसलिए गुरु में इतना आकर्षण है, गुरु में इतनी शक्ति है, गुरु धरती की तरह सहना जानता है तो पैदा करना भी जानता है।

गुरु का हृदय धरती की तरह विशाल है, कहीं कठोर तो कहीं संवेदनशील है। गुरु ऊर्जा का भंडार है। गुरु अपने ज्ञान और अपने अनुभव को स्थानांतरित करने की, सौंपने की कला जानता है। गुरु के भीतर इस सृष्टि को बनाने वाले का वास है। गुरु का देह मंदिर है जिसमें परमात्मा विराजमान है। गुरु एक पुल है परमात्मा और आत्मा के बीच का। गुरु माध्यम है जिसके सहारे परमात्मा उतरता है। गुरु आशा की किरण है जिसके आसरे शिष्य पनपता है। गुरु माला की वह डोर है जिसके सहारे शिष्य प्रभु के गले से लिपटा रहता है। गुरु का यही गुरुत्वाकर्षण, शिष्य को गुरु से सदा बांधे रखता है।

 

  
 
वह 'मैं’ क्या है?
 

जब-जब भी मानव के सामने अज्ञानता का अंधकार छा जाता है, लक्ष्य विहीन मानव भटकने लगता है तथा दर-दर की ठोकरें खाते-खाते अशांत व दुखी होकर, निस्सहाय होकर, आंतरिक वेदना से त्रस्त हो जाता है, तब-तब समय पर महापुरुष आकर, ज्ञानलोक द्वारा मार्ग-दर्शन करके मानव समाज की सहायता करते रहे हैं। देश, काल व परिस्थिति के अनुसार भले ही उनके ज्ञान प्रचार के तौर-तरीके बदल जाया करते हों लेकिन ज्ञान तो सनातन व सत्य हैं, वह कभी नहीं बदलता, क्योंकि सत्य एक है।

वैसे तो मनुष्य को सृष्टिï का सर्वोपरि कृति कहा गया है, लेकिन फिर भी वह अज्ञानता का शिकार हो ही जाता है। उसके बुद्घि व विवेक पर कालिमा आ ही जाती है। अत: वह अपने जीवन के लक्ष्य को भूल कर दिशा विहीन अंधी दौड़ की तरह अपने अमूल्य जीवन को भी व्यर्थ व्यतीत करने लगता है। फलत: अन्य प्राणियों जैसे- पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े आदि के जीवन में और मनुष्य के जीवन में फिर कोई अंतर नहीं रह जाता। क्योंकि अन्य जीवों का भी जीवन का उद्देश्य खाना, पीना, आवास आदि की व्यवस्था करना तथा अपने जीवन को 'येन केन प्रकारेणÓ व्यतीत करना रहता है। यदि मनुष्य भी इतना ही करे तो फिर उसके जीवन में और अन्य प्राणियों के जीवन में अंतर ही क्या है?

अत: इसी समझदारी की जरूरत होती है कि वह इस बात पर विचार करें कि उसे यह अमूल्य जीवन क्यों मिला है? इस विषय पर मात्र मनुष्य ही सोच सकता है, अन्य जीव नहीं। अत: उसके जीवन में मार्ग-दर्शक की जरूरत होती है।

बिना मार्ग-दर्शक (मास्टर) के मनुष्य को ज्ञान की बात समझ पाना आसान नहीं है। क्योंकि वक कृप-मण्डूक की तरह अपने सीमित दायरों में जकड़ा हुआ होता है। उसे यह भी विवेक नहीं रहता कि जिस कारण मैं जी रहा हूं, वह शक्ति तो मुझमें ही है। जिस सत्ता के कारण यह जीवन है। जिसके कारण मेरा अस्तित्व है। जिसके कारण यह कह सकने में सक्षम हैं कि- मैं हूं, मेरा परिवार, मेरा समाज, मेरा देश, मेरा धर्म, मेरा ईश्वर आदि-आदि है। वह मैं क्या है? जिसके कारण इस सारे संसार के अस्तित्व का, जीवन का दुख-सुख का अनुभव हो रहा है। संसार के सभी विषयों के संबंध में, हर क्षेत्र का ज्ञान हासिल करने में हम सक्षम है। अत: ज्ञान शब्द से यहां तात्पर्य अलग है। एक होता है संसार का बाह्यï ज्ञान तथा दूसरा है- स्वयं का ज्ञान। अपने आप का ज्ञान, अपने जीवन का अनुभव। वह जीवनी ऊर्जा ही सुख-शांति और आनंद का स्रोत है। लेकिन उसे न जानने के कारण ही मनुष्य आंतरिक रूप से अशांत व अतृप्त है। इसीलिए संत कबीर कहते हैं-

पानी में मीन प्यासी,

मोहे सुन-सुन आवे हांसी।

आतम ज्ञान बिना नर भटके,

क्या मथुरा क्या काशी॥

जिस व्यक्ति के जीवन में समय के तत्वदर्शी महापुरुष का सान्निध्य प्राप्त होता है तथा जो उनकी वाणी को ध्यान पूर्वक सुनते हैं, समझते हैं, अमल करके ज्ञानार्जन करते हैं, उन्हें ही मनुष्य जीवन का महत्व समझ में आता है तथा उन्हीं का जीवन धन्य होता है।

  
 
इच्छा और परीक्षा
 

हर इंसान में उसकी कुछ न कुछ इच्छाएं हुआ करती हैं। उसी के अनुरूप वह कार्य करता है। परंतु वह कार्य कहां तक सही या कहां तक गलत हैं इसकी जांच तथा अगर सही भी है तो उसकी स्वीकृति हेतु परीक्षा से गुजरना अनिवार्य है।

मनुष्य अपनी बढ़ती हुई और बदलती हुई आवश्यकताओं के अनुसार नयी-नयी चीजों का आविष्कार करता है अथवा किसी तकनीक (ञ्जद्गष्द्धठ्ठशद्यशद्द4 ) और कला (्रह्म्ह्लह्य ) को सीखता है। वह उसे सीख पाया है कि नहीं इसके लिए उसकी परीक्षा होती है। इस प्रकार जो भी व्यक्ति जीवन और जगत में उत्तरोत्तर आगे बढऩा या विकास करना चाहता है तो उसे उस विषय के संबंध में जानने, सीखने और समझने की दृढ़ इच्छा तो आवश्यक है ही साथ ही समुचित जानकारी की, किसी योग्य परीक्षक द्वारा परीक्षा भी अनिवार्य है।

फिर, परीक्षा ही तो एक मापदंड है जिसके आधार पर परीक्षार्थी को डिग्रियां या प्रमाण पत्र मिलते हैं। जिसके आधार पर वह किसी काम-धंधे या उद्योग के लिए योग्य समझा जाता है। उसके बाद साक्षात्कार (ढ्ढठ्ठह्लद्गह्म्1द्बद्ग2 ) में जो एक परीक्षा का ही रूप है, सफल होने पर उसे विश्वास के साथ बड़ी से बड़ी जिम्मेदारियों सौंप दी जाती हंै।

आज तो यह देखने में आता है कि स्वेच्छाचार और कदाचार की बहुलता है। कई विद्यार्थियों में किसी प्रकार से भी परीक्षा पास कर लेने की तो तमन्ना है। किंतु सीखने की दृढ़ इच्छा का अभाव है। वे बिना आवश्यक परिश्रम और मेहनत के ही परीक्षा में सफल होना चाहते हैं। कई बार तो परीक्षक भी इस कदाचार में संलिप्त और लालच का शिकार हुआ दिखता है। यही कारण है कि बिना परीक्षा दिये हुए ही बहुत जगहों पर नकली डिग्रियां और सर्टिफिकेट छुप-छुपकर बिकते हैं। पैसे और प्रभाव से बड़े-बड़े और महत्वपूर्ण पदों पर अयोग्य तथा गैर जिम्मेदार लोग भी बैठ रहे हैं। यह सब गिरे हुए शिक्षण-प्रशिक्षण, परीक्षा तथा परीक्षण के स्तर के परिणाम हैं।

ऐसी अवस्था में शिक्षार्थी या परीक्षार्थी तथा परीक्षक को याद दिलाये जाने की जरूरत है कि परीक्षा शिक्षा का एक अभिन्न अंग हैं। परंतु याद दिलाये तो कौन? इसका उत्तर हमें ईमानदारी और गंभीरता से ढूंढऩा होगा। अर्थात हमें एक सच्चे शिक्षक (ञ्जह्म्ह्वद्ग ञ्जद्गड्डष्द्धद्गह्म् ) तथा सच्चे परीक्षक (ञ्जह्म्ह्वद्ग श्व3ड्डद्वद्बठ्ठड्डह्म् ) की तलाश करनी होगी जो विद्या और विद्यार्थी के तारतम्य को बनाये रखें। दोनों में सही ढंग से सामंजस्य स्थापित कर सकें।

कहा भी हैं कि 'विद्या ददाति विनयं।Ó अर्थात सच्ची विद्या या सीख से नम्रता आती है। जो सभी गुणों की खान है। यही नम्रता मनुष्य को आजीवन एक विद्यार्थी बनाये रखती है। एक बालक की भांति जो कुछ वह सीखना चाहता है, सीखता चला जाता है और उसकी सच्ची सीख (ञ्जह्म्ह्वद्ग रुद्गड्डह्म्ठ्ठद्बठ्ठद्द) ही उसे परीक्षा की घडिय़ों में खरा उतारती है। इस प्रकार इच्छा और परीक्षा का एक अनोखा मिलन होता है। परीक्षार्थी अपनी लगन, मेहनत और आत्म-विश्वास के फलस्वरूप हंसते-हंसते सफलता की मंजिल पर पहुंच जाता है।

 

  
 
कहां जाना है?
 

एक राजा ने अपने मंत्री को एक छड़ी दी और कहा कि राज्य भर में घूमकर निरीक्षण करो तथा ऐसे व्यक्ति की खोज करो जो सबसे बड़ा मूर्ख हो। और जहां भी तुम्हें ऐसा मूर्ख व्यक्ति दिखायी दे, उसे ही यह छड़ी थमा देना।

मंत्री ने कहा- ठीक है। मंत्री बड़ा बुद्घिमान आदमी था। वह किसी भी बात पर बड़ी बारीकी से विचार करता था। गहन-मनन और चिंतन के बाद ही कोई निर्णय लेता था। उसने छड़ी को अपने घर में ले जाकर रख दिया।

काफी समय बीत गया। इधर राजा भी अपने राज्य के कार्यों में इस तरह व्यस्त हो गया कि उसे याद ही नहीं रहा कि उसने मंत्री से कोई सवाल पूछा है या उसे कोई कार्य सौंपा है।

एक समय राजा बहुत जोर से बीमार पड़ा। स्थिति बड़ी खराब थी। उस राजा को यह लगने लगा कि अब उसकी मौत बिलकुल नजदीक है। अत: उसने अपने सभी रिश्तेदारों, मित्रों और कुटुम्बियों से मिलने की इच्छा प्रकट की, जैसा कि प्रत्येक मनुष्य के साथ होता है।

जीवन के अंतिम क्षणों में किसी को वही याद आता है जो उसे सबसे अधिक प्रिय हो। इसीलिए अधिकांशत: ऐसा देखा जाता है कि जब कोई व्यक्ति बिलकुल मरने के करीब हो तो लोग उसके लडक़े, लड़कियों, दामाद, भाई या अन्य नजदीकी रिश्तेदारों को शीघ्रातिशीघ्र फोन-टेलिग्राम अन्य साधनों द्वारा खबर कर देते हैं ताकि वे संबंधित व्यक्ति से मिल सके। कुछ लोग तो औपचारिकता के तौर पर भी उसे देखने जाते हैं।

यह तो एक सामान्य व्यक्ति के साथ भी लागू होता है। वह तो राजा था। अत: उससे मिलने वालों की संख्या अधिक थी। सभी मंत्रीगण, सेनापति, रानियां व अन्य नजदीकी राजदरबारी लोग आये। राजा पलंग पर मरणासन्न स्थिति में पड़ा हुआ था। मिलने वाले लोग चारों तरफ से उसे घेरे खड़े थे। तभी अचानक राजा की आंखें खुलीं। उसने अपने चारों तरफ खड़े सभी लोगों से नम्रतापूर्वक बोला कि मेरे जीवन में, मेरे व्यवहार से यदि किसी को कोई कष्टï पहुंचा हो तो माफ करना, अब तो मैं जा रहा हूं।

इतना सुनते ही उसका मंत्री नजदीक आया और कहा- महाराज, आप कहां जा रहें हैं? कल तो आपने मुझे किसी यात्रा के बारे में सूचित नहीं किया जबकि हमेशा किसी भी मंत्रणा में आप मुझसे भी विचार-विमर्श या परामर्श कर लेते थे। लेकिन आपने अचानक आज कहीं जाने का निर्णय कैसे ले लिया? खैर, मैं तो आपका गुलाम हूं। मुझे तो यह भी पूछने का अधिकार नहीं है कि आपको कहां जाना है या आपकी क्या योजनाएं हैं? लेकिन हुक्म किया जाय कि किन-किन चीजों की व्यवस्था कर दी जाय? उस यात्रा में कितनी सेनाएं चलेंगी? कौन-कौन मंत्रीगण चलेंगे? आप किन-किन रानियों को ले जाना पसंद करेंगे? हीरे जवाहिरात की कितनी गाडिय़ां तैयार कर दी जाय तथा खाने-पीने की कितनी सामग्रियां ले चलनी हंै? कृपया, हमें बता दें ताकि उस सूची के आधार पर जल्द से जल्द तैयारी की जा सके।

राजा ने कहा कि किसी चीज की तैयारी की जरूरत नहीं है। इस यात्रा में कोई भी चीज साथ नहीं ले जायी जा सकती।

तब मंत्री ने पूछा- यह कैसी यात्रा है जिसमें कोई चीज नहीं ले जा सकते? आज तक तो आप ऐसी किसी भी यात्रा में नहीं गये जिसमें कुछ भी साथ नहीं ले गये हों। मैं भी आपके साथ चलता था। सेनाएं भी चलती थी। गाजे-बाजे के साथ आपकी विदाई होती थी। परंतु यह कैसी यात्रा है?

तब राजा ने कहा- यह मेरी अंतिम यात्रा है। मैं हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया से जा रहा हूं।

मंत्री ने पुन: निवेदन करते हुए कहा कि फिर तो और अच्छी बात है। क्योंकि जब आप थोड़े दिन की यात्रा में जाते थे तो थोड़ा सामान ले जाते थे। लेकिन जब आप हमेशा-हमेशा के लिए जा रहे हैं तो फिर तो सारी चीजें ले जानी चाहिए, क्योंकि दुबारा तो फिर आना नहीं है। आपने जीवन भर मेहनत करके इतनी चीजों को इक_ïा किया है। राज्य स्थापित किया है, नाते रिश्तेदार बनाये हैं। इतनी कठिनाइयों के बावजूद प्राप्त इन चीजों को क्यों छोड़ रहे हैं?

ये बातें सुनकर राजा की आंखों में आंसू आ गये। गला भर आया। कुछ देर सोचकर फिर बोला कि यही तो मजबूरी है मंत्री जी! कि मैं चाहते हुए भी इन चीजों में से कुछ नहीं ले जा सकता। प्रकृति का ऐसा नियम है कि इस संसार से जाते समय कोई भी अपने साथ कुछ नहीं ले जा सकता। इस संसार में एक तिनका पर भी किसी का कोई अधिकार नहीं है। इस संसार में अपना कुछ नहीं है। धन, दौलत, नाते-रिश्तेदार की कौन कहे, यहां तक कि यह शरीर भी अपना नहीं है, जिसमें मैं इतने सालों तक रहा हूं। इस शरीर को भी मुझे यहीं छोड़ देना पड़ेगा।

इतनी बात सुनते ही मंत्री दौड़ा-दौड़ा घर आया और वह छड़ी लाकर राजा को देने लगा और कहा कि महाराज इस छड़ी को तो आप ही पकडिय़े।

राजा तो भूल गया था, उसने पूछा- यह कैसी छड़ी है? मंत्री ने कहा कि पहले आप इसे पकडिय़े तब मैं आपको बतलाऊंगा। राजा ने वह छड़ी पकड़ ली।

तब मंत्री ने राजा को याद दिलाते हुए कहा कि महाराज! यह वही छड़ी है- जो आपने लगभग छह महीने पहले ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ कर देने के लिए कहा था, जो सबसे बड़ा मूर्ख हो। तो मैं कहां जाऊं ढूंढऩे के लिए? मुझे आप जैसा तो कोई दिखलायी नहीं दिया।

राजा ने पूछा- कैसे?

तब मंत्री ने कहा कि आप को यह मालूम था कि इस संसार में कुछ भी अपना नहीं है। यह शरीर भी अपना नहीं, यह राज्य, नाते-रिश्तेदार, धन-दौलत यहां तक कि एक तिनका भी अपना नहीं। फिर भी सारे जीवन भर आप यही कहते थे कि यह मेरा है, वह मेरा है। हाय मेरा पुत्र, हाय मेरी पुत्री, मेरी रानियां, मेरी प्रजा, मेरा राज-पाट। मेरा-मेरा। सारी जिंदगीभर मेरा-मेरा कहते रहे। तो जो चीज अपनी न हो उसका अपना समझना क्या मूर्खता नहीं है? राजा निरूत्तर हो कर शांत हो गया।

  
 
खुशी और गम दोनों से ऊपर है परमात्मा का साम्राज्य
 

हमारे जीवन में प्रमुख रूप से मनुष्य तीन तरह के दिखाई देते हैं। पहले वे जो हमेशा दूसरों की शिकायत ही करते रहते हैं कि ऐसा नहीं हुआ, वैसा नहीं हुआ, यह होना चाहिए, वह होना चाहिए आदि-आदि। दूसरे वैसे लोग होते हैं जो अनुकूल या प्रतिकूल हर स्थिति में प्रसन्न रहते हैं। जो कुछ भी उन्हें उपलब्ध होता है, उसी में संतुष्टï रहते हैं। तीसरे प्रकार के लोग मानो हमेशा दुखी रहने के लिए ही जीवित रहते हैं, उन्हें हर चीज से दुख पहुंचता है। कोई भी व्यक्ति, वस्तु या परस्थिति उन्हें सुखी कर पाने में सक्षम नहीं होते। सच कहिए तो लगता है कि इस संसार को उक्त तीनों परिस्थितियों ने ही ढक रखा है और लोग उन्हीं परिस्थितियों के चश्मे से संसार और संसार के रचयिता को देखा करते हैं।

वास्तव में यह संसार अरूप परमात्मा का ही साकार रूप है। यह दुनिया  अदृश्य सत्ता की काया और अबोल का बोल है। जैसे नदी को पार करने के लिए जल में उतरना पड़ता है। वैसे ही सांसारिक परिस्थितियों की सरिता को पार करने के लिए उसमें उतरना पड़ता है और पार उतरने की युक्ति जानने के लिए गुरु के पास जाना पड़ता है। गुरु से ही परिस्थितियों की ओट में छिपी वास्तविकता का बोध होता है। साकार समस्याओं के मूल में अवस्थित अरूप परमात्मा का साक्षात्कार होता है। जो मनुष्य गुरु कृपा से प्राप्त युक्ति का इस्तेमाल करता है, वह इस किनारे से उस किनारे तक की यात्रा को सुरक्षित रूप से पार करने में सफल होता है। भवजल से भरी नदी को पार करने का आनंद तैराक योगी को ही मिलता है और नाव में बैठे सामान्य मनुष्य भी गुरु कृपा का सहारा ले सांसारिक समस्याओं के भोगी होते हुए भी उसे पार करने में सफल हो जाते हैं। किंतु एक नदी का सहज यात्री होता है और दूसरा उस नदी के मध्य से इसलिए गुजरता है कि वह तट पर ठहरे लोगों को बता सके कि उस पार जाने का सरल मार्ग जल तरंगों के बीच से होकर किस तरफ से गया है।

जो नाव से नदी पार करते हैं, वे भक्त होते हैं और जो नदी के जल में उतरकर उसे पार कर पहुंचते हैं, वे कर्मयोगी होते हैं। साधारण मनुष्य जीवन में तीन चीजें ही करता है शिकायत, प्रसन्नता और शोक। वह जीवन में दुख आता है तब शिक ायत करता है, विलाप करता है, शोक करता है। जब सुख आता है तो धन्यवाद नहीं करता कहता है कि यह मेरी विजय है। परमात्मा को इन्हीं चीजों ने ढांप दिया है, इसी वजह से आप परमात्मा से दूर हो गये हैं।

मनुष्य का स्वभाव हो गया है कि वह हमेशा दूसरों के साथ अपनी तुलना करता है और तुलना में अपने को कमतर पाकर शोक से ग्रस्त हो जाता है। सोचता है कि मेेरे पास सुंदर घर नहीं है, दूसरे के पास सुंदर घर है। मैं ऊंचे पद पर नहीं पहुंचा। मैं डाक्टर नहीं बना। मेरे सभी साथी आज अच्छी नौकरी कर रहे हैं मैं पीछे रह गया। अपने जीवन से शिकायत ही शिकायत है। क्या कभी आपने सोचने की कोशिश की कि आप पीछे हैं किस वजह से? क्या कारण है, आप विफल हो गये? क्या आपने अपनेे दोषों को कभी जानने की कोशिश की? उनमें सुधारने का कभी प्रयास किया? ऐसा करोगे तभी कुछ कर पाओगे। हाथ पर हाथ रखकर एक जगह बैठे रहने से कुछ हासिल होने वाला नहीं है। आलसी होने की वजह से ही आप पतन की ओर जा रहे हैं। परमात्मा उनका साथ देता है जो मेहनत करते हैं, जो श्रम करते हैं, जो आलसी नहीं होते, जीवन और समय का सदुपयोग करते हैं।

परमात्मा वहां वास करते हैं जहां उदारता है, प्रेम है, मानवता है। हमारे अंदर अवस्थित आत्मा मूलत: सरल है, परंतु हमने उसे उलझा दिया है, सदा शोक और शिकायत करके। आत्मा दर्पण की तरह साफ और चमक रही थी परंतु हमने अपने दोषों की वजह से उसे मलीन कर दिया। जब मनुष्य के साथ कुछ बुरा हो जाता है तब वह अपने भाग्य को कोसने लगता है या परमात्मा को दोष लगाने लगता है - ऐसा उसका स्वभाव हो गया है।

वास्तव में प्रभु किसी को अपनी ओर से सुख या दुख नहीं देता। सभी अपने कर्मों के फल भोगते हैं। अपने दु:ख और सुख के कारण हम खुद ही होते हैं। हमारे कर्म, हमारी सोच, हमारे विचार ही हमें कभी प्रसन्न करते हैं तो कभी दु:खी करते हैं। जरूरत है, हमें अपनी सोच बदलने की, अपने मन को बदलने की, अपने दृष्टिïकोण को बदलने की। अगर प्रसन्न होना है तो अपने से ज्यादा दु:खी लोगों को देख लेना। अगर दु:खी होना है तो अपने से ज्यादा सुखी लोगों को देख लेना। सुखी और दु:खी होना कितना सरल है। परंतु हमें सुख और दु:ख से मुक्त होना है, उस अवस्था को प्राप्त होना है, जहां न सुख है, न दुख, न शिकायत, न नाराजगी, न शोक है, न गिला। सिर्फ शून्य है। वहां पहुंचते ही सारे विचार, सारी भावनाएं गायब हो जाती हैं। सब कुछ शून्य हो जाता है, वहां कोई तर्क  नहीं रहता, वहां कोई शिकायत नहीं रहती, वहां कोई शब्द भी नहीं गूंजता। वहां बिना पायल घूंघरू बजते हैं, वहां बिना वीणा के झंकार सुनाई देता है।

मैं आपसे कहता हूं कि आप उसी महाशून्य में पहुंचने का प्रयास करो। उस शून्य को अपने भीतर ही प्रगट होने दो। वहां बिना ताल के हो रहे नृत्य को निहारो, वहां बिना शब्द हो रहे संगीत को सुनो। क्योंकि शिकायत विवाद पैदा करता है। विवाद अहंकार को जन्म देता है। सद्ïगुुरु में वह क्षमता होती है कि सभी विवादों पर विराम लगा देता है। वह शिष्य के भीतर उस महाशून्य को प्रगट कर देता है। सद्ïगुरु सब तर्कों पर फुलस्टॉप लगा देता है। जो एक बार परमात्मा को जान जाता है, वह सुख दुख से परे हो जाता है। उसके लिए सुख दुख सब समान हो जाते हैं।

हम जानते हैं कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। लेकिन अफसोस कि मनुष्य यह जानते हुए भी इससे अनजान होने का स्वांग करता है। यदि दु:ख आता है तो वह उसे कम करने के लिए विलाप करने लगता है, जोर-जोर से चिल्लाने लगता है। यदि सुख आता है तो उसे प्रदर्शित करने के लिए उल्लास से नाच उठता है, उत्सव मनाता है। लेकिन परमात्मा से मिलन होने पर सब प्रकार की क्रियायें व प्रतिक्रियायें समाप्त हो जाती हैं। उस समय न कोई क्रिया  होती है और न कोई प्रतिक्रिया। परमात्मा तो एक बहती नदी की तरह होता है।  बहती नदी का स्वभाव होता है कि वह अपने भीतर अशुद्घियों को कभी नहीं रुकने देती। सारा कचरा नीचे जम जाता है या किनारे पर रह जाता है। बहती नदी का पानी सदा शीतल रहता है और यही नदी का स्वभाव है, यही उसका स्वभाव है निरंतर बहते रहना। परमात्मा भी बहती नदी की तरह निर्मल होता है। उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं रहता। जो व्यक्ति ध्यान करता है, साधना करता है, उसका संपर्क परमात्मा से होता है, जो सदा नदी की तरह बहता रहता है, शीतल रहता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अस्तित्व को परमात्मा के साथ जोड़ ले। ऐसा तभी हो सकता है जब वह अपनी मूल प्रकृति से जुडक़र रहता है। अपनी मूल प्रवृत्ति प्रकृति से जुडऩे के लिए मनुष्य को ध्यान की प्रक्रिया समय के सद्ïगुरु के पास जाकर सीखनी होगी।

संसार में बुराई भी है, अच्छाई भी है, परंतु आपको इस संसार की सांसारिकता से ऊपर उठना है। संसार से ऊपर उठने का अर्थ है कि आपको संसार की अच्छाई और बुराई दोनों से बाहर आना है। न तो बुराई के नजदीक जाना है, न अच्छाई के नजदीक। आपको उस स्थिति में पहुंचना है, जहां गुण व दोष अपना कोई मायने ही नहीं रखते। आपको गुण-दोषों से शून्य अवस्था में स्थिर होना है। जहां इस प्रकार की स्थिति रहती है, वहा शाश्वत शांति व महा शून्य का साम्राज्य छाया रहता है, वहां परमानंद बहता रहता है, मनुष्य की वह स्थिति खुशी और गम से परे होती है। उस स्थिति में पहुंचने पर मनुष्य हर्ष और शोक के सागर से पार हो जाता है, उसे जीवन से कोई शिकायत नजर नहीं आती।

 

  
 
आंतरिक प्रेरणा तुम धन्य हो
 

हे प्रेरणा! कबीर के सतनाम, रविदास के सद्ïज्ञान तथा मीरा के पावन प्रिय नाम की सच्ची प्रिय मूति, अज्ञानान्धकार में ज्ञानालोक बिखेरने वाली, निराशा में आशा की किरण और विनाश में विकास का सृजन करने वाली प्रेरणा तूने कमाल कर दिया।

तू मानव मंदिर की चौपहली, सजीली गली से सटे, सुख-शांति सरोवर के किनारे, जहां स्वच्छ अमीय धारा बहती है, वहां की निवासिनी तुम हो, तुम्हीं से कोई मानव अपने लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ सकता है।

प्रेरणा मानव के नश-नश में समाई अहर्निश, एकरस, सतत्ï जागृत, अंत: स्रोत है, जो हमारी यत्ïयथा-तत्ïतथा की स्थिति में संरक्षिका व मार्ग निर्देशिका है। वह भ्रम में पड़े हुए मानव की आस्था रूपी नाव को निराशा के सागर में डूबने से बचा लेने वाली तीव्र गति वाली हवा है।

महात्मा बुद्घ की स्थिति से मिलान करके देखना चाहिए। पुत्र जन्मोत्सव के अवसर पर जहां राजकीय सजीले बहुमंजिलें महल की रंगीली, चहल-पहल की रात्रि में मंगल के गीत के मधुर स्वर, राज कुमार सिद्घार्थ के लिए अमांगलिक, अवास्तविक एवं हृदय विदारक माया जाल के विषय विष के समान असर कर रहे थे, वहीं उनकी आंखों में अश्रुधार छलक रहे थे, उनके हृदय में एक ऐसी ललक ललकार रही थी कि वे चुप-चाप दिल से बहुत दूर-सुदूर देशों की धुल छानने को निकल पड़े। राग-रंग का मोह भंग हो गया, मोह रूपी भांग का नशा उतर गया। उन्होंने आंतरिक प्रेरणा का सहारा लिया तथा निश्चय किया कि अब तक यह जीवन व्यर्थ गंवाया तो गंवाया, पर अब नहीं गंवायेंगे। वे सत्य की खोज में निकल पड़े। आज महात्मा बुद्घ अमर हैं, पर उनका सारा राज व सात-बाज सदा के लिए अदृश्य हो गया।

महात्मा ईशु को जीवन की वास्तविकता का पता बड़े सबेरे ही लगा, तब वे अपने परमेश्वर की महिमा गलियों, विभिन्न स्थलों में, बागों में सुनाने लगे। भवभय के विषैले वायुवेग ने उन्हें जीवन-मरण की कसौटी पर लाकर खड़ा कर दिया। असत्य के आवरण से सत्य ढका जा रहा हथा, सत्य-सूर्य अस्त होने को चलने लगा, उन्हें लोहे के कील ठोके जाने लगे, भवभय रोग ने सब कुछ कर गुजारा। पर उनकी चर्चा जगमगाती हुई प्रेरणा जिसने भीतर ही भीतर कमाल कर दिया। लहू की धारा शरीर को रंग रही थी, पर इस रंग का फाग मुस्कुराहट के प्रेम-भाव से चमकता उनका मुख मंडल आनंद बिखेर, मस्ती मनाये जा रहा था। प्रेरणा माया के पर्दा को अनावरित कर रही थी। ईशा मसीह सच्चाई का संदेश अप्रत्यक्ष रूप से आज भी दे रहे हैं, पर उन लोहे के कठोर कीलों का अस्तित्व नहीं है।

महाभारत के नायक अर्जुन जब लड़ाई के प्रारंभ होने से पहले कृष्ण की मदद लेने जा रहे थे, तो उनकी अन्तप्रेरणा ने ही उनका मार्ग दर्शन किया कि अर्जुन को पांव की तरफ बैठना चाहिए। प्रेरणा ने महाभारत में श्री कृष्ण से अर्जुन का रथ तक हंकवा दिया और उन्हीं ने अर्जुन की अज्ञानता तथा मोह का आवरण हटाकर, दिव्य दर्शन करवाया तथा अर्जुन को जीवन की वास्तविकता राह पर खड़ा कर दिया।

पवित्र मन की प्रेरणा। तुम धन्य हो। तुम्हारा गतिरोध कौन कर सकता है? राम-भक्त हनुमान के हृदय में समायी प्रेरणा की करामात किससे छिपा हुआ है? समुद्र को पार कर लंका में प्रवेश करने वाला, रावण के अभिमान का सही निदान देने वाला एवं माता सीता का पता लगाने वाला हनुमान ने अंत: प्रेरणा की गति को भलि भांति जान ली थी। प्रभु श्री राम की पावनी कृपा ने प्रेरणा पुंज का भंडार ऐसा भरा कि राम को हर समय उनके रोम-रोम में समाना पड़ा।

संत-शिरोमणि तुलसीदास की पावन, प्रिय प्रेरणामयी पत्नी ने तीखी फटकार में भव रोग विनाशी ऐसी दवा चखाई कि उन्हें होश में ला दिया। अब लौं नशानी अब ना नसैहों का वादा उन्होंने निभाकर प्रेरणा की प्रतिमूर्ति सद्ïगुरु की परम पावन कृपा का संदेश पाया और उसे रामायण के पन्नों में अमीय कणों से विभोर कर भक्ति की मणि-माणिक में अपने चित्त रूपी धागे को एकाार कर दिया।

हे परम रम्ये, हर मानव के अंत: करण में बसी हुई प्रिय प्रेरणा! तुम दु:ख में, सुख में, भय में, आनंद में, शांति में, आतंक में, सदा हाथ पकड़े की लाज बचाने वाली जीवन ज्योति तुम धन्य हो। तू की गति हो, तू ही लय हो एवं तू ही मानव जीवन में सच्चा सहायक हो।

  
 
प्रतीक्षा
 

भगवान बुद्घ प्यासे होने के कारण अपने शिष्य आनंद को पास के झरने से पानी लाने के लिए भेजा। आनंद वहां गया। देखा कि बैलगाडिय़ों के वहां से गुजरने के कारण जल गंदा हो गया है। वह लौट आया। बोला भगवान! झरने का जल बैलगाडिय़ों के कारण गंदा हो गया है। मैं नदी से पीने का पानी लेकर आता हूं।

किंतु भगवान बुद्घ ने आनंद को झरने से ही जल लाने के लिए कहा। आनंदि फिर वहां गया। पानी अब भी वैसा ही था। वह फिर लौट आया। इस प्रकार वह तीन बार गया और वापस आया। चौथी बार जब वह झरने के पास पहुंचा तो पानी को बिलकुल साफ पाया, सड़े-गले पत्ते, कीचड़ सब कुछ नीचे बैठ चुके थे। आनंद ने पात्र जल से भर लिया और भगवान बुद्घ को लाकर दिया।

वे मुस्कुराये और बोले, आनंद हमारे जीवन जल को भी विचारों की बैलगाडिय़ां निरंतर गंदा करती रहती हैं। और हम जीवन से भाग जाते हैं। यदि हम भागें नहीं, मन की झील के शांत होने तक कुछ प्रतीक्षा कर लें तो सब कुछ स्वच्छ हो जायेगा। उसी झरने की तरह।

  
 
तत्वज्ञान ही एक मात्र विकल्प
 

मनुष्य सृष्टिï का श्रेष्ठïतम जीव है, सृष्टिï का सिरमौर है और प्रकृति को उस पर गर्व है।

यदि शारीरिक रूप से हम देखें तो अनेक जीव इस सृष्टिï में ऐसे हैं जो मनुष्य से अत्यधिक बलशाली, विशालकाय और तेज गति वाले हैं। स्वयं आकाश में उड़ भी सकते हैं। उदाहरण के लिए हाथी, शेर, गौरिल्ला और अनेक पक्षी। जहां तक सामाजिक व्यवस्था शासन-तंत्र और संगठन शक्ति की बात है, तो ऐसे अनेक जीव पृथ्वी पर मौजूद है, जो मनुष्य से कहीं अधिक संवेदनशील, अनुशासन प्रिय और संगठित हैं। जैसे मधुमक्ख्यिों और चींटियों के समाज हैं उनका सामाजिक तंत्र, शासन व्यवस्था इतनी परिष्कृत और सुसंगठित है। उनकी कर्मठता का मुकाबला मनुष्य अपनी जिंदगी में नहीं कर सकता।

जहां तक विषयजनित सुखों का संबंध हैै। उस दिशा में भी हम मनुष्यों को अनेक पशु-पक्षियों से बहुत पिछड़ा हुआ पाते हैं। जितनी चिंता मनुष्य को अपने खाने-पीने, रहने-सहने, पहनने, ओढऩे के साधन जुटाने में रहती है। उस सबसे प्रकृति ने अनेक जीवों को सर्वथा मुक्त कर दिया है। फिर भी मनुष् को क्राउन ऑफ नेचर (प्रकृति का मुकुट) की संज्ञा दी जाती है। वह क्यों?

क्या इसलिए कि मनुष्य ने आधुनिक विज्ञान द्वारा प्रकृति के मूल तत्वों को खोज निकालने में बड़ी प्रगति कर ली है? इलेक्ट्रॉनिक तकनीक को विकसित करके संचार व्यवस्था और परिवहन के साधनों में बड़ी क्रांतिकारी उपलब्धियां प्राप्त कर ली है। क्या अंतरिक्षयान में बैठकर चंद्रमा तक पहुंचने, या अन्य ग्रह-नक्षत्रों तक पहुंचने का प्रयास करना ही मनुष्य की श्रेष्ठïता का द्योतक हैं? क्या स्वयं मनुष्य को इन सबसे संतोष है, शांति है? वह चैन की नींद ले सकता है? उसने जो आज ये महाविनाशकारी एटमी हथियारों के भंडार भर लिए हैं उनसे उसके सुख-चैन में वृद्घि हुई है? जब मनुष्य की इन सारी उपलब्धियों और उसके सारे कार्य-कलापों पर हम नजर डालते हैं तो लगता है कि ये उपलब्धियां सर्वथा निरर्थक और निराशाजनक ही नहीं है, बल्कि उसको पतन की ओर ले जाने वाली ही प्रतीत होती हैं।

आज मनुष्य इतना सब कुछ करते हुए भी असफल रहा है। उसने धन-संपत्ति भी अर्जित करके देख लिया। पहले उसका यह ख्याल था कि यह संसार धनमूलक है-

धनं संचय काकुत्स्य

धनमूलमिदं जगत्ï।

अंतरं नैव पश्यामि

निर्धनस्य मृतस्य च॥

अर्थात धन संचय करो। यह संसार धन मूलक है। यहां मरे हुए और निर्धन में कोई अंतर नहीं दिखता। भीष्म पितामह ने भी स्वीकार किया कि अर्थस्य पुरुषो दासा अर्थात मनुष्य धन का गुलाम है। परंतु जब मनुष्यों ने धन का अत्यधिक उपार्जन किया, इतना किया कि वह जरूरत से ज्यादा हो गया तो वही धन उनके सारे दुखों का कारण बन गया। तब भुक्त-भोगियों को कहना पड़ा कि-

अर्थस्योपार्जने दु:खम्ï।

अर्जितस्यापि रक्षणे।

नाशे दु:खं व्यये दुखं

धिगर्थ दु:खभाजनम्ï॥

यानी धन कमाने में दुख है, कमाकर उसकी रक्षा करने में दुख, धन का नाश हो जाये तो दुख और खर्च हो जाये तो भी दुख है। ऐसे धन को धिक्कार है जो दुख का कारण है। इसलिए श्रुति में आज्ञा दी गयी- मा गृध:, कस्य स्विद धनम्ï। यानी धन का लालच मत करो। यह धन किसका है?

इसलिए वेद समझाते हैं- तेन त्यक्तेन भुंजीथा। अर्थात उसका त्याग पूर्वक सेवन करो। त्याग की भावना से उसका उपभो करो।

अत: मनुष्य की आंतरिक प्यास बुझाने का एक मात्र साधन आंतरिक शांति और आनंद का स्रोत है जिसे तत्वज्ञान कहते हैं। तत्वज्ञान के अतिरिक्त मनुष्य के पास कोई अन्य साधन नहीं है। वह ज्ञान निज अनुभव पर आधारित है। यह वही ज्ञान है, जिसका समय-समय पर भगवान राम, भगवान कृष्ण, महावीर, बुद्घ, मोहम्मद साहब, ईसा मसीह, गुरु नानक आदि सभी महापुरुषों ने किया है और उसका व्यावहारिक ज्ञान का अनुभव कराते आये हैं।

आज पहले से हमारा पहनावा, खाने-पीने और रहने-सहने के तौर-तरीके बदल गये हैं। किंतु मूलरूप में मनुष्य की आंतरिक आवश्यकता ज्यों की त्यों है। आंतरिक आवश्यकता की पूति जीवनी शक्ति में निहित है जो अपरिवर्तनशील है।

उयकी अनुभूति कराने वाले तत्वदर्शी इस संसार में सदा मौजूद रहते हैं। आवश्यकता होती है केवल मात्र तलाश करने की।

  
 
गुरु और शिष्य का संबंध
 

जो गुरु के बारे में मनुष्य बुद्घि रखता है उसके साधन-भजन का क्या फल होगा? गुरु के बारे में मनुष्य बोध नहीं रखना चाहिए। इष्टï दर्शन होने के पहले शिष्य को प्रथम गुरु के दर्शन होते हैं। फिर ये गुरु ही शिष्य को इष्टïदेव के दर्शन करा देते हैं, तथा स्वयं धीरे-धीरे इष्टïदेव में विलीन हो जाते हैं। तब शिष्य अपने गुरु तथा इष्टदेव को अभिन्न, एकरूप देखता है। इस अवस्था में शिष्य जो वर मांगता है, गुरु उसे वही देते हैं। यहां तक कि गुरुदेव उसे सर्वोच्च निर्वाण (अद्वैत) की अवस्था तक दे सकते हैं। या अगर शिष्य चाहे तो वह उपास्य-उपासकरूपी भाव-संबंध को बनाये रखकर द्वैत अवस्था में ही रह सकता है। वह जैसा चाहे गुरु उसके लिए वैसा ही कर देते हैं।

मनुष्य गुरु कान में मंत्र फूंकते हैं, परंतु सद्ïगुरु प्राणों में मंत्र जगा देते हैं।  गुरु मानो मध्यस्थ हैं। जैसे मध्यस्थ, प्रेमी को प्रेमिका के साथ मिला देता है, वैसे ही गुरु भी साधक को इष्टï के साथ मिला देते हैं।

समुद्र में एक प्रकार की सीपी होती है, जो स्वाति नक्षत्र के वर्षा की एक बूंद के लिए सदा मुंह बाये पानी पर तैरती रहती है। किंतु स्वाति की वर्षा का एक बिंदु जल मुंह में पड़ते ही वह मुंह बंद कर सीधे समुद्र की गहरी सतह में डूब जाती है, तथा वहां उस जल-बिंदु से मोती तैयार करती है। इसी तरह यथार्थ मुमुक्ष-साधक भी सद्ïगुरु की खोज में व्याकुल होकर इधर-उधर भटकता रहता है, परंतु एक बार सद्ïगुरु के निकट मात्र आ जाने के बाद, वह साधना के अगाध जल में डूब जाता है तथा अन्य किसी ओर ध्यान न देते हुए, सिद्घि लाभ होने तक साधना में लगा रहता है।

ऐसे गुरु यदि पंडित या शास्त्रज्ञ न भी हों तो घबराने का कारण नहीं। उन्होंने किताबी विद्या भले न सीखी हो पर उनमें यथार्थ ज्ञान की कभी कमी नहीं होती। पुस्तक पढक़र भला क्या ज्ञान होगा? ऐसे व्यक्ति के निकट ईश्वरीय ज्ञान का अनंत भंडार होता है।

  
 
भक्तिरस से सराबोर
 
रविवार का दिन गुरुभक्तों के लिए अति उल्लास से परिपूर्ण था और हो भी न क्यों, क्योंकि लम्बे समय के बाद सदगुरुदेव की कृपा से उनकी छत्र छाया में सत्संग में बैठने का जो एक उपयुक्त अवसर मिला। यही वजह है कि हर गुरु भक्त का चेहरा खिला हुआ था, हर भक्त टकटकी लगाकर अपने सदगुरुदेव महाराज को निहार रहा था। क्योंकि काफी लम्बे अरसे बाद श्री गुरुदेव के चरणों में बैठकर ध्यान व भजन-कीर्तन करने का जो सौभाग्य मिला। गुरुदेव ने ज्ञान की गंगा बहाते हुए सभी भक्तजनों को भक्तिरस से सराबोर कर दिया।

मित्रो, आज मुझे वो दिन याद आ रहा है जब मैं अपने गुरु महाराज जी से पहली बार मिला था तब मुझे क्या अनुभूति हुई। मेरे गुरु महाराज जी ने मेरे भीतर एक चेतना जगाई। आज मेरे हृदय के तार एक बार फिर से झनकारित हो गये हैं, यादें हरी हो गईं कि कितना पावन आनंद होता है गुरु महाराज की छाया में रहना, ठीक उसी आनंद के समान जैसे थके हुए राही को छायादार पेड़ के नीचे बैठने से जो राहत मिलती है। अपने आंतरिक अनुभव के बाद जो मैंने सद्ïगुरु के विषय में जाना है, उसे आज मैं आपके समक्ष रखना चाहूंगा।

नामधन लुटाने वाले सदगुरु की महिमा अपार है ...
परमाराध्य, परमदयालु सदगुरुदेव की महिमा अपरंपार है। उनके यथार्थ का वर्णन कर पाना शब्दों की शक्ति से परे है। जिन्हें अपने सदगुरु महाराज की महिमा के यथार्थ का बोध हो चुका है वे उनके स्मरणमात्र से ही प्रसन्नचित्त हो जायेंगे। मन में शिथिलता की लहर आ जायेगी। मन में संतोष की भावना पैदा होने लगेगी। अकेलापन मिट जायेगा। परमात्मा में मन लीन हो जायेगा। परेशानियों का अंत हो जायेगा। सदगुरु की महत्ता और अपनी अधमता का ध्यान आते ही साधक द्वारा किये गये बुरे क र्मों पर उसे शर्म आने लगती है। साधक सदा अपने रोम-रोम में सदगुरुदेव की दया, उनकी महिमा का अनुभव तो करता है परंतु उसे व्यक्त नहीं कर सकता। जंग लगे हुए लोहे के टुकड़े के पास शब्द कहां है, जब उसे पारस क ा स्पर्श मिल जाता है तब वह पारस की महिमा का वर्णन कैसे करें? यदि वह बहुत प्रयत्न करेगा भी तो अधिक से अधिक यही भाव व्यक्त कर पाएगा कि-

सब धरती कागद करू लेखनि सब बनराय।

सात समुँद की मसि करूं गुरु गुन लिख्यो न जाय॥

इसीलिए तो वेदों ने सदगुरुरूपी ब्रह्मï की महिमा कहते-कहते थककर नेति-नेति कह दिया। पांच मुखों वाले शिवजी, हजार मुखों वाले शेषनागजी, स्वयं वाणीरूपी सरस्वतीजी, कवि शुक्राचार्य, नारद, व्यास आदि महामनीषी ज्ञानी भक्तगण भी निरन्तर गान क रके सदगुरु महिमा का यथावत्ï वर्णन नहीं कर पाए।

मन को शांत करने का एक मात्र साधन है सदगुरु महाराज द्वारा बतायी गई उक्ति का सहारा लें। प्रभु के नाम का भजन-सुमिरन करें, इससे मन में उत्पन्न हुई द्वंद्वता से छुटकारा मिलेगा। यह संसार झूठा और नश्वर है केवल प्रभु के नाम का भजन-सुमिरन ही अविनाशी है। वह अविनाशी ज्ञान सच्चे सदगुरु से ही मिलता है।

सदगुरु क ा नाम कोई जपा जाने वाला नाम नहीं है। यह अजपा जाप है, जिसे आत्मा अपने भीतर सुनती है और देखती है। जिह्वïा द्वारा बोलकर जपे जाने वाले नाम अनेक है, परन्तु मुक्ति देनेवाला सच्चा शक्तिशाली नाम एक ही है, वह अनादि है और प्रत्येक जीव के भीतर विद्यमान है। यही सच्चा नाम है, इसके बिना सभी साधनायें उसी प्रकार व्यर्थ हैं जैसे सेमर के फूल का सेवन, अन्नहीन भूसी का कूटना या लोभी का धर्म है। सदगुरु के नाम का सुमिरन संसार के प्रत्येक पदार्थों से उत्तम है। संसार में प्रत्येक वस्तु का सार सदगुरु का नाम, सुमिरन, भजन और भक्ति है।

संसारी भोग और सुख क्षणभंगुर और नाशवान हैं। सदगुरु के नाम क े सुमिरन से प्राप्त सुख सुखकारी है, मंगलमय है, अविनाशी है, कल्याणकारी है। सदगुरु नाम सुमिरन वह तलवार है जो जीव के सभी भय काट देती है। सदगुरु सुमिरन साधक को वो शक्ति प्रदान करता है जिसके प्रभाव से वह निर्भय विचरण करता है।

  
 
EITHER EASY OR TOUGH KEEP YOUR TEMPER THE SAME
 

At Tough times person becomes worried, tense, stressful And at easy times person becomes over confident, anxious, enthusiastic.

We should learn to accept both circumstances and keep our temper same. Either sorrow or joy our emotions should be under control.

And remember! joys and sorrows, ups and downs, happiness and tears they are like two faces of one coin. Coin is incomplete without any face. To call a coin there should be head face as well as tail face. Similarly, in life easy times will come as well as tough times will come. This is the feature of life to consist of both joys and sorrows. The divinity has given us an opportunity to live this human life and we have to learn to sustain in all situations.

VITAL IS TO REMAIN UNEFFECTED IN BOTH THE SITUATIONS………………………

Maintaining a balance of mind, emotions and thoughts is very necessary for man. We should learn to attain the state of eternity undisturbed, unchanged, undaunted under both circumstances let it be joy or sorrow. Then only we can rule, control and conquer on outline of life. We should be stiff, sturdy, firm, determined and undaunted at tough times. Neither too joyous nor be high in airs at success. We should be restrained, calm and contended in both situations success and failure.

Water will always evaporate, Ice will always melt, Clouds will always rain. It’s a rule of nature with this rule life is existing on earth. Similarly, It’s a rule of life success will bring failure also, victory will bring defeat, respect will bring disrespect. We can not expect all times to be same in life rather we have to learn the sustenance in all times to sail this boat of life smoothly.

MEDITATION TEACHES THE PERSON TO STAY WITH ALIKE TEMPER AT ALL TIMES OF LIFE……..

 

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This is the time to awake not to sleep
 

Nothing is visible in the darkness. The significance of darkness implies this only. If at all anything is visible this means it is no dark. In the darkness what to say about other things, even visibility of own hand is difficult.

Yes! The imagination has no effect on darkness. For this reason so many false notations are spread in a society. The living entities with human body have acquired a chance to awake. The divine god has gifted this human body under specific obligation of awakening and enlightenment. We should not waste time in sleep of illusions and wealth. This is the time to awake not to sleep. For this we have to determine from today and now only. Because we have to sleep leisurely only at the end of life and never know when will encounter with death.

Extract from book of Guruji: Marm ki baate, jo rah deekha de……………

  
 
Knowing Does Not Mean Doing it
 

Knowing Does Not Mean Doing it

Every one can debate and write well on any theme or subject matters,  but how many of us grasp, absorb and practice it in our lives. Millions of scriptures and books are available with loads and loads of information, elucidation and illustrations, But reading does not imbibe inside to an extent of its activation.

Take a little example, every one is aware of that telling a lie is sin, but how many of us knowingly don’t lie?  From younger to older every one tells innumerable lies, though many moral stories are taught since childhood but Do we make submission to it? Realize its importance? Embark it in our activities? Emboss in our life? Make a sincere effort to adorn it in our life?  A BIG BIG NO!!! we even don’t have time to think over it! Many good things we are aware of, we read it, learn it and keep aside on papers only but we don’t channelize and adapt it in our lives.

Similarly, By reading and learning only divine god can not be achieved and experienced. The one, who has witnessed, experienced, practiced and adorned with, can only tell about divine power, the supreme of universe and the skill of practicing it. Dhyana, yoga, meditations, Gyana are such sensitive and important issues which should not be practiced without Guru.

A LITTLE KNOWLEDGE IS A DANGEROUS THING, IF YOU WANT TO LEARN ANY THING, LEARN IT AND MASTER ON IT BY A MASTER ONLY!!……………………..

 

 

 

  
 
पानी बचाओ महाअभियान
 
आइए परमपूज्य श्री श्री1008 महामंडलेश्वर परमहंस दाती जी महाराज द्वारा पानी बचाओ महाअभियान में भागीदार बने-------------------
पानी के महत्व को समझे और लोगों तक यह संदेश पहुंचाए.....
आइए सब मिलकर पानी बचाएं.....
भले विज्ञान ने तरक्की कर ली है, लोगों ने हर स्तर पर सफलता को पा लिया है पर पानी के उपयोग को लेकर मानव अभी तक सतर्क नहीं है। यदि मनुष्स इस प्रकार अंजान बना रहा तो वह दिन दूर नहीं जब एक बूंद पानी के लिए उसे संघर्ष करना पड़ेगा। अत: समय की गंभीरता को मनुष्य को समझना चाहिए और जल संरक्षण के लिए कदम उठाना चाहिए।
यदि पानी को व्यर्थ बहाया गया व बर्बाद किया गया तो वह दिन दूर नहीं होगा जब मानव एक बूंद जल के लिए भी तरस जाएगा। आजके आधुनिक युग में नयी तकनीक है, नये तरीके उपलब्ध हैं परंतु लापरवाही पूर्वक पानी का सदुपयोग करना मनुष्य के सामान्य जीवन की सभी आदतों में शामिल नहीं है। मानव अपने सुख के लिए जल का प्रयोग मन चाहे ढंग से कर रहा है। इसीलिए पानी की कमी को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि आज का मानव जागरूक हो जाए, उसे पूर्ण जानकारी उपलब्ध हो। इसीलिए आवश्यक है कि मनुष्य पानी के महत्व को समझें और दूसरे लोगों को भी जागृत करें। जल जीवन है, जल जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, बिना जल जीवन संभव नहीं है।
पानी के महत्व का संदेश उन्हीं लोगों के द्वारा पहुंचाया जा सकता है जो साल में बारह महीनों पानी की समस्या से जूझते रहते हैं। अधिकतर पानी का अभाव गर्मियों में होता है। लोग लंबी कतारों में धूप में लाइन लगाकर खड़े दिखाई मिलते हैं। ऐसे समय में पानी के सदुपयोग और महत्व को समझाना आवश्यक है। परिवार का हर सदस्य पानी के लिए जूझता दिखाई देता है।
यदि पानी की एक बाल्टी से काम किया जा सकता है वहां दो बाल्टी पानी का उपयोग होता है। अधिकतर लोगों की यही सोच रहती है। कि एक दो बाल्टी ओर खर्च हो जाए तो क्या है? लेकिन वे यह नहीं जानते यदि प्यास लगी हो तो पूरे गिलास पानी की जगह यदि आधा गिलास दिया जाये तो व्यक्ति की स्थिति कटे पक्षी की तरह हो जाती है। गर्मियों मेें अधिकांश जलाशयों में पानी सूख जाता है, बोरिंग काम करना बंद कर देता है। एक बाल्टी पानी लाने के लिए उसे दूर तक जाना पड़ता है। शहरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में इस तरह की समस्याओं का अधिक सामना करना पड़ता है। नगरों के अधिकांश लोग बोरिंग के पानी पर निर्भर रहते हैं। गर्मियों में पानी का अधिक वाष्पीकरण होता है जिसके फलस्वरूप जल स्तर नीचे चला जाता है जिसके कारण हैंडपंप कार्य करना बंद कर देते हैं। यदि किसी हैंडपंप से पानी आता है तो वह दूषित होता है। गर्मियों में कूलर चलने से पानी बर्बाद हो जाता है। लेकिन इसका निराकरण संभव है अगर मनुष्य अपनी जरूरतों को समेटकर कम से कम मात्रा में पानी का उपयोग करे। भूजल स्तर के संरक्षण के लिए सशक्त कदम उठाने की आवश्यकता है। मनुष्य को चाहिए वह सभी नागरिकों को जागरुक बनाये। दूसरे लोगों को पानी के महत्व को समझाये। अधिकतर देखने में आता है आवासीय, कालोनियों में नल खुले पड़े रहते हैं। जिससे पानी को बेहद बर्बादी होती है। जिस पर सख्ती से प्रतिबंध लगाए जाने की आवश्यकता है।
आजकल जल की कमी से जल के नाम पर कालाबाजारी पर रोक लगाए जाने की आवश्यकता है। इन छोटी बातों पर यदि सामान्य जन ध्यान दे तो काफी हद तक जल का संरक्षण किया जा सकता है।
वर्षा का जल सौ प्रतिशत शुद्घ होता है।
वर्षा के जल संरक्षण को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
1. छत से प्राप्त होने वाला वर्षा जल अल्प स्त्रोतों से प्राप्त होने वाले जल की तुलना में श्रेष्ठï होता है। वर्षा का जल हर तरह के घातक लोगों से मुक्त होता है। वर्षा का जल हानिकारक बैक्टीरिया से मुक्त होता है। वर्षा जल की क्कद्ध वेल्यू 6.95 होता है। जो आदर्श मानी जाती है।
2. एक टॉप रेन वाटर के माध्यम से बोर, टयूबवेल के पानी में क्लोराइड, फ्लोराइड, सल्फ् र एवं कैल्शियाम की तीव्रता कम होती है। परिणामस्वरूप बोर, टयूबवेल का पानी खारे से मीठे में बदल जाता है।
3. एक टॉप रेन वाटर हार्वेस्टिंग के जरिये अच्छी बारिश के दौरान 7 से 20 लाख लीटर पानी अपने बोर, टयूबवेल या अन्य स्त्रोतो में उतारा जा सकता है। यदि इतनी मात्रा का सदुपयोग किया जाये तो वह पूरे वर्ष भर के लिए पर्याप्त होता है।
4. वर्षा जल को घर में सम्पवेल, टयूबवेल, बोर, कुँए, बावड़ी, हैंडपंप के द्वारा उपयोग में लाया जाना चाहिए।
5. यदि सम्पवेल, टयूबवेल, बोर इत्यादि नहीं उपलब्ध है तो वर्षा जल को रिचार्जिंग पिट के माध्यम से जमीन में उतारा जा सकता है।
रिचार्जिंग पिट क्या है?
इसके तहत एक मामूली गड्ढïा खोया जाता है। जिसे मिट्टïी, रोड़े व रेत से भर दिया जाता है, जो कि आपमें फिल्टर का काम करता है एवं इसका छनकर पानी जमीन में उतर जाता है। यह तकनीक महंगी है। यह प्रणाली ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं अपनाई जा सकती।
सावधानियां:-
1. मौसम में शुरुआती दो दिन की बारिश अपने साथ वातावरण में विद्यमान धूल के कण लेकर आती है। अत: प्रथम दो दिन का वर्षा का जल टयूबवेल व सम्पवेल में एकत्रित नहीं करना चाहिए। वाल्व खोलकर संपूर्ण जल को बहा देना चाहिए।
2. बरसात के दौरान छत को साफ रखें। छत पर लोहे की जंग लगने वाली वस्तुएं  न रखें।
3. प्रत्येक घर में रेन वाटर हार्वेस्टिंग को अपनाएं।
1. प्रथम प्रणाली:- जमीन में जल स्तर को बढ़ाने के लिए गड्ढïा बनायें
एक हजार वर्ग फीट की छत वाले छोटे मकानों के लिए यह सरल तरीका बहुत ही उपयुक्त है। मानसून में एक छोटी छत में लगभग एक लाख लीटर जल जमीन में उतारा जा सकता है। यह गड्ढïा गोलाकार, वर्गाकार व आयाताकार हो सकता है।
यह गड्ढïा 3 से 5 फीट चौउ़ा और 6 से 10 फीट गहरा बनाया जाता है। खुदाई के बाद इसमें कंकड़, रोड़ी और बजरी भर दी जाती है और ऊपर से मोटी रेत डाल दी जाती है।
छत को अच्छी तरह से साफ करके पूरा पानी एक पाइप के नीचे उतारा जाता है जो कि गड्ढïे में जोड़ दिया जाता है। इस विधि में आवश्यक है कि पहली एक दो बरसात का पानी नहीं उतारा जाए।
दूसरा तरीका- खाई बनाकर रीचार्ज करना।
यह तरीका दो से तीन हजार वर्ग फीट की छत वाले मकानों पर उपयुक्त है। यह तरीका तभी सफल है जब उथली गहराई पर पर्याप्त मोटाइै की मिट्टïी की ऐसी तह उपलब्ध होती है, जिसमें से पानी नीचे उतर सके। इस प्रणाली में मकान के आसपास 3 से 5 फीट गहरी एवं लगभग 10 फीट चौड़ी एक नाली खोदी जाती है, जिसमें कंकड़ और रोड़ी भर दी जाती है। छतों पर लगें पाइप को नाली से जोड़ दिया जाता है। इस पद्घति का उपयोग स्कूल, कालेजों के खेल मैदान, सडक़ के किनारों और बगीचों में किया जा सकता है।
तीसरी प्रणाली- कुंओं में पानी उतारना।
ग्रामीण क्षेत्रों में घर के अंदर या बाहर वाले कुओं को फिर से भरने के तरीको का इस्तेमाल करना चाहिए। कुंओं के तल तथा उसकी दीवारों को पूरी तरह साफ कर लेना चाहिए, उस पर ढक्कन लगाने का बंदोबस्त करना चाहिए। घर की छत से पाइप लाइन उतारकर उसे सीधे कुएं की तली तक ले जाना चाहिए। वर्षा के दिनों में कुओं को भरना चाहिए।
सावधानियां:-
1. प्रारंभिक वषा्र्र के पहले और दूसरे दिन कु एं को न भरे।
2. कुओं को ढककर रखें।
3. जीवाणुनाशक दवाईयां व क्लोरीन कुंओं में हमेशा डाले।
चौथा तरीका:- टयूबवेल में पानी उतारतना।
यह पद्घति पंद्रह सौ से पच्चीस वर्ग फीट छत वाले मकानों के लिए उपयुक्त है। छत पर बरसात में इक_ïा किया गया पानी हैंडपंप या टयूबवेल तक लगभग ढाई इंच 75 द्वद्व व्यास वाले पाइप द्वारा पहुंचाया जाता है। पाइप को टयूबवेल से जोडऩे के पहले एक फिल्टर का उपयोग करना अत्यंत आवश्यक है। फिल्टर पी. वी. सी. पाइप का बना होना चाहिए। छत यदि 1500 वर्गफीट से कम हो तो फिल्टर 6 इंच व्यास का और इससे अधिक हो तो 8 इंच व्यास का होना चाहिए, इसकी लंबाई 3 से 4 फीट होती है। यह तीन भाग में विभाजित होता है, बीच में पी. वी. सी. की जाली लगी होती है तथा तीनों खंड़ों में विभिन्न साइज के कंकड़ रहते हैं। इस पद्घति में कोई अधिक खर्च नहीं होता है। 2 से 3 हजार के बीच में इसका निर्माण कराया जा सकता है।
भूमिगत जल स्तर अब खतरे के निशान को भी पार कर गया है। 200 से 300 फीट गहराई तो मामूली बात हो गई है। 1,000 फीट गहराई तक टयूबवेल खुदने लगे हैं। वह भी गर्मियों में सूख जाते हैं। अतएव आवश्यक है कि घर या घर के आस-पास टयूबवेल को इस पद्घति द्वारा रीचार्ज किया जाए।
सावधानी:-
1. पहली एक दो बरसात का पानी टयूबवेल में संचित न करें। उसे बहा देना चाहिए।
पांचवी प्रणाली:- बड़े भवनों के टयूबवेल को रीजार्च करना।
सरकारी, गैर सरकारी एवं उद्योागों में बड़े-बड़े भवनों की छतों पर बरसातों में लाखो लीटर पानी एकत्रित होता है। जो नालियों में बह जाता है। इन छतों पर अलग-अलग स्थानों से बरसातों का पानी पी. वी. सी. पाइपों द्वारा अलग-अलग कलेक् शन चेंबर में लाकर एक फिल्टर पिट में डाला जाता है। फिटर पिट में डाला जाता है। फिल्टर पिट दो भागों में बंटा होता है पहले भाग में गिट्टïी, बजरी, कोयाला एवं रेत भरी होती है, हर एक तरह जाली द्वारा अलग-अलग रखी जाती है। बरसात का पानी इस फिल्टर से छानकर पिट के दूसरे भाग में चला जाता है, वहां से सीधा इसे पाइपों की ढलान में रखा जाता है ताकि पानी रुके नहीं।
सावधानियां:-
1. ध्यान रखें कि पहली बरसात का एक-दो बार का पानी टयूबवेल के अंदर उतारने के बदले बहा देना चाहिए।
2. इस पद्घति के उपयोग के लिए विशेषज्ञों की मदद लेनी चाहिए।
छठा तरीका- रीचार्ज शाफ्ट
शाफ्ट हाथ से व मशीन से खोदी जा सकती है। शाफ्ट को कंकड़, बजरी और साफ की हुई रेत से भरना चाहिए। इस शाफ्ट का निर्माण भवनों से 30 से 50 फीट की दूरी पर करना चाहिए। शाफ्ट के ऊपर की रेत की परत को हटाकर नियमित रूप से साफ कर दोबारा भरना चाहिए।
दाती जी महाराज द्वारा पानी बचाओ महाअभियान के अंतर्गत समाज में जागरूकता पैदा करने के लिए बढ़ते कदम-----------------
प्रति माह श्री परमहंस दाती जी महाराज द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में कैंप लगाये जाती है। जिसके माध्यम से ग्रामीणों को पानी संरक्षण की विधियों द्वारा अवगत कराया जाता है।
राजस्थान पाली जिले के अधिकतर ग्रामों में दाती का जल बचाओ अभियान जारी है। जिसके अंतर्गत राजोला, सुराएता, गागूरा, रूपावास, बड़ागुड़ा, सारन, वोपारी, कंटालिया, बगड़ी, चाढ़वास, धांगड़वास, वीरावास, हींगावास, मालपुरिया, भटिंडा, राजोला, लानेरा, पांचवाखुर्द, चौपड़ा आदि गांव शामिल है।
दाती अभियान जल बचाओ के अंतर्गत लोगों की वीडिय़ों क्लिप, बैनरस, पोस्टर्स द्वारा समय-समय पर जानकारियां दी जाती है व जल संचय के नवीन प्रणाली व विधियों के बारे में अवगत कराया जाता है।water-footprint

  
 
WORLD’S WATER DAYWORLD’S WATER DAY
 

22ND MARCH  WORLD’S WATER DAY!

The feat of mustering strength for a renewed effort of conserving water!

Time to act!

Our earth, our habitat, our home!

Our earth, our future, save it!

GOALS OF       WATER PROGRAM BY DAATI---------------------

Imparting timely information regarding leakages, bursting of pipelines to Jal Board and eliciting quick response to ensure effective and efficient functioning of the water distribution system to all levels.

  • Educating all citizens of rural areas regarding water conservation methods and techniques to bring about greater water efficiency and thus bring about an effective increase in supply of filtered water.
  • Inculcating an awareness of the rapid depletion of ground water level and the need to harvest rainwater through simple rain water harvesting structures.

ACTIVITIES CARRIED BY NETWORK OF SHANI DHAM TRUST UNDER THE GUIDELINES OF DAATI JI MAHARAJ

  • Ø On World water day and other occasions like during onset of monsoon rallies are taken out to arouse enthusiasm and education among rural communities. Van of Shani Dham Trust visits to nearby villages of Pali Distt. Rajasthan e.g. Roopawas, Chopra, Ragura, Beerawas, Kanhawas, Bhatinda, Lolawas, Gagura, Ghangarwas, Naya Gaonv etc. to inculcate awareness about water conservation and rain Harvestation among poor communities.
  • Ø Educational programs like skits, display of boards, distribution of banners, display of models, promotion of rain water harvesting and recharge of wells are conducted by team of social workers of Shani Dham Trust
  • .water-footprint

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  
 
The image of Eternal spirit and counterpart of Universe
 

The image of Eternal spirit and counterpart of Universe

Its clearly mentioned in religious scriptures that supreme divine has created human being identical to his image. Along with the divine lord has imparted such unique qualities which other animates are devoid of. It has been described in epics that soul is no other entity but a fraction of supreme divine only, his image only and the human embodiment is counterpart of entire universe. The elements which constitute universe, the shape in which does universe exist, the rules by which universe is directed and conducted. The same elements in same shape are present in human embodiment and are directed by same rules. These facts are not only described in religious epics but are the personal experiences of accomplished ascetics.

The ascetics who have attained the highest position of devotion on the path of adorations have advocated that ,dks czã f}rh;ks ukfLr aiko brahm dvitayo naasti!, which implies that besides the eternal spirit nothing has any existence. The above declaration of sages neither relies on any concocted hypothesis nor has been stated with a motive of propaganda or spreading of virtuous facts described in scriptures. Since ancient times various sages, seers and devotees have expressed their experiences in their own languages and style, they also give a proof of this fact that only by the desire of one and only one immortal power the entire universe is created, nurtured and destroyed.

  
 
FOR ATTAINING ULTIMATE BLISS NECESSARY IS TO REALISE VOIDANCE
 

FOR ATTAINING ULTIMATE BLISS NECESSARY IS TO REALISE VOIDANCE----

In this world various kinds of situations befall and we keep refuting each one of them on the basis of our mind & intellect. But few troubles are not easy to overcome by simple remedies. In fact the basic cause of our internal turbulence, restlessness, disharmony is our desire to fulfill our needs, to fill the voidance which finally doesn’t succeed. Either evil or good each individual is suffering from the disease of filling his voidance since ancient days. Until man would suffer from this urge to fill his voidance till then restlessness, disharmony, unsteadiness would not come to an end. The reason is apparent that basically we are the fraction of same supreme divine which is complete and absolute from all point of views.

Its quite evident that we are inherently complete and absolute. Thus, whenever we tend to fill our voidance that is unnatural. This is the cause of our mental distress. Therefore, if we really wish to realize that ultimate bliss then every moment we would have to practice for voidance. Not even the virtuous men of present time but the common people also those who have accepted this fact and immersed in process of voiding themselves, instantly they start achieving results.

The biggest recognition of learned man of present time is that he has fully accepted the useful or useless resources in his life style, conduct & temperament, mortal and immortal eminence. They had risen high in the process of emptying themselves. They had gained enlightenment in course of realizing self voidance, they not only believe voidance as their part of life but in course of accepting this fact they themselves turn into evident example of voidance. Because, they are well aware that for experiencing ultimate bliss the realization of complete voidance is necessary.

 

  
 
समस्त बुनियादी सवालों का जवाब
 
समस्त बुनियादी सवालों का जवाब
भगवान, भक्ति और भक्त तीनों का अस्तित्व अलग - अलग होते हुए भी अंततः तीनो एकाकार हो जाते है। ज्ञेय-ज्ञान-ज्ञाता का भेद भी साधना अंतिम चरण में पूरी तरह मिट जाता है। जो भी षेष रह जाता है, वह एक अलौकिक अनुभूति होती है जिसे कुछ भी नाम दे दिया जाये उसकी अस्मिता और अस्तित्व में कोई अंतर नहीं होता।
आमतौर पर परमसत्य परमात्मा का यह तेजोमय स्वरुप, उसमें लगा हुआ साधन रुप साधक का मन और साधना करने वाला साधक- ये तीन अलग-अलग चीजें हो गयी। ये तीनो ही चीजें जिस बिन्दू पर एक साथ मिल जाती है, उसी क्षण एक अति महत्वपूर्ण घटना घट जाती  हैै। हमारे लिए इस सृष्टि और सृष्टिकर्ता का रहस्य पूरी समग्रता से उजागर हो जाता है। हाथ में रखे आंवले की तरह साधक, साधन व साध्य का हर पहलू पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। हमें समस्त बुनियादी सवालों का जवाब हासिल हो जाता है।
  
 
सर्व खल्वमिदं ब्रह्म
 
सर्व खल्वमिदं ब्रह्म
जिस अविनाषी परमसत्ता के संकल्प से अखिल ब्रह्मांड का अणु-अणु थिरक रहा है और प्रत्येक प्राणी में जीवनी षक्ति का संचार भी हो रहा है। वह कौन है, कैसा है- ठीक- ठाक कहा नहीं जा सकता है। वह अगोचर और मन-वाणी से परे मात्र निज अनुभव से ही जाना जा सकता है। यही वजह है कि श्रुतियों में ” कस्मे देवाय हविषा विधेम।“ यानी उस कौन देव की पूजा-अर्चना कर आहुति देने आदि की चर्चा बड़े विस्तार से की गयी है। वह अविनाषी सत्ता वास्तव में अकथ, अनादि और अपरिभाषेय है। वह एक ऐसी अविनाषी सत्ता है जिसे सत्, चित व आनंदमय भी कहा गया है, वही जगत, जीव व ब्रह्म के स्वरुप में प्रत्येक जड़-चेतन में सदा सर्वत्र प्रकाषित हो रहा है।
उस सच्चिादानंद परमात्मा का ही सत् रुप जगत के प्रत्येक अणु-परमाणु में विचरण कर रहा है। उसी का चित् रुप हर प्राणी के अंदर चेतना का संचार कर रहा है और उसी का आनंद स्वरुप घट-घट में रमकर राम बन गया है। वह सबको आकर्षित करने के गुणों से युक्त होने के कारण कृष्ण और सर्वव्यामकता आदि गुणों से युक्त होकर विष्णु नाम धारण कर नार अर्थात जल में अपना अयन बनाने वाला नारायण बन बैठा है।
उसे ही ऊॅ, तत्, सत् आदि के द्वारा इंगित किया गया है। किंतु यहां एक बात स्पष्ट रुप से समझ लेने की जरुरत है कि वह परम अविनाषी सत्ता मानव षरीर में ही अपनी पूरी क्षमता और प्रभु सत्ता से इस प्रकार से विराजमान है कि यदि जीव चाहे तो वह इस षरीर के माध्यम से उस परम सत्ता का उसकी पूर्णता के साथ अनुभव कर सकता है। ऐसा करने में कोई अन्य प्राणी सक्षम नहीं है। क्योंकि उस परम सत्ता ने मनुष्य का निर्माण ही इस तरीके से किया है कि इस षरीर में ऐसी साधना व कर्म किया जा सकता है जिसके फलस्वरुप मनुष्य को उस परमसत्ता के परमानंद व सच्चिादानंद स्वरुप का उसकी पूर्णता व समग्रता के साथ परिचय व सानिध्य लाभ मिल सकता है। मनुष्य को उसका प्रत्यक्ष अनुभव व साक्षात्कार बड़ी आसानी से हो सकता है। क्योंकि बनाने वाले ब्रह्म ने मनुष्य को अपने स्वरुप में गढ़कर ब्रह्मांड के ही छोटे सांचो में ढाला है। इन तथ्य को अनुभवी संतो ने अपने अनुभव के तराजु पर तौला है और श्रुतियों की इस घोषणा से सहमति व्यक्त की है कि सर्व खल्वमिदं ब्रह्म यानी अखिल ब्रह्मांड में जो कुछ भी है वह सब उस एकमेव अविनाषी सत्ता की ही अभिव्यक्ति की विविध षैलियां व मुद्राएं है। उसे तत्व से जानकर ही मनुष्य जीवन सार्थक होता है।
  
 
मंत्र -दीक्षा की अहमियत..
 

मंत्र -दीक्षा की अहमियत..

हमारे प्राचीन मनीषियों ने बिना किसी पूर्व तैयारी के एकाएक मंत्र साधना में कूद पड़ने की इजाजत नहीं दी है। उसके पहले किसी अनुभवी मार्गदर्षक द्वारा विधिवत दीक्षा ग्रहण कर उसके द्वारा बतायी गयी विधियों का अनुसरण करना आवषयक बताया गया है।

जिज्ञासु मंत्र-साधको को सर्वप्रथम समय के मार्गदर्षक से मंत्र- दीक्षा लेने के साथ मंत्र के विनियोग और न्यासों की जानकारी हासिल करनी होती है जिनके माध्यम से वे अपने षरीर को भी मंत्र-साधना के लिए अपेक्षित परिवेष में सुस्थिर रहने का अभ्यासी बना सकें। देष, काल, पात्र और परिस्थिति भेद से मार्गदर्षक जिज्ञासुओं को आवष्यक यम,  नियम, आसन, बंध, मुद्राओं व प्राणायाम आदि का सहारा लेने का निदेष देता है। कुछ लोग किताबें पढ़कर या दूसरों की देखा-देखी स्वतः मंत्रसाधना के क्षेत्र में कूद पड़ते है। किंतु वैसे लोगों को कभी भी लक्ष्य तक पंहुचते नहीं देखा गया है। अधिकतर लोग लाभ के बदले हानि उठाते है और लक्ष्य भ्रष्ट होकर इधर-उधर भटक जाते है।

 

  
 
Preaches of all sages convey same meaning------------
 

Even though the symbols and modes may vary but preaches of all sages and seers convey same meaning. None of the saint tries to hurt emotions of others. Religion is either old or new each one conveys that this world is transformable and mortal also elucidates that none of the commodity in this universe stays stable. Language may be any or mode of explaining can be any but all virtuous saints have described that Rahna nahi desh birana hai! i.e. the stay of every individual in this world is unsteady.

Not even this, almost all ancient sages and seers have tried to inspire each individual in their own mode of approach to attain enlightenment about the real form of supreme divine. But due to variation in time, region, place and situations their verses signify different visions. But fundamentally preaches of all saints are alike. Verses of virtuous saints inspire and encourage everyone to progress on the path of self welfare.

  
 
मेरा दर्द: दाती महाराज
 

नमो नारायण,

पता नहीं आज कुछ दिल की बात करने का आपसे मन हुआ। और मैंने कलम उठाई। और जो हकीकत थी, जो मेरा अनुभव था उसे लेखनी के माध्यम से आपके सामने रखने जा रहा हूं। मित्रो, संभव है कुछ बातें आपको अच्छी नहीं लगेगी। क्षमा करना, पिछले कई वर्षों में यही सत्य नजर आ रहा है। इसलिए इस बात को आपके सामने रखना पड़ रहा है।

एक बार मुझसे मिलने के लिए वृद्ध माता-पिता आये। वें बहुत ही परेशान थे। अपनी संतान के विरह में आंखों से उनके आंसू छलक रहे थे। मुझ से वे कुछ कहना चाहते थे, अपनी समस्याओं को मेरे सामने रखना चाहते थे। परंतु उनका बार-बार गला भरा जा रहा था। इसलिए वे मुझ से अपनी पीड़ा कह नहीं पा रहे थे। कहते-कहते फिर रुक जाते थे। मैंने प्रेम से उन्हें अपने पास बिठाया। दोनों को जल पिलाया। थोड़ी देर रुके और कहने लगे कि क्या यही जीवन हैं? जिनको सुखी करने के लिए मैंने अपना संपूर्ण जीवन लगा दिया, जिनको बड़ा करने में मैंने अपने पास कुछ भी नहीं बचाया। न मैंने रात देखी, न मैंने दिन देखा। बस उनके लिए सुविधा जुटाने में दिन रात लगा रहा। इतना सब कुछ करने के बावजूद भी क्या पाया मैंने इस जीवन में? आपसे कुछ पूछने का दिल कर रहा है। क्या यही जीवन हैं? क्या यही जीवन का अर्थ हैं? क्षमा करें, आप बुरा नहीं मानें। जीवन में भटक गया हूं, राह दिख नहीं रही है, समझ में कुछ नहीं आ रहा है, चारों ओर अंधेरा हैं। जिनको हमने सूखे में सुलाया और हम खुद गीले में सोएं। उन्हें भोजन कराया और हम भूखे सोए। आज उन्होंने ही हमें घर से बाहर निकाल दिया है। उन्होंने हमें कह दिया है कि हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। जिन्हें हम ने अपनी अंगुली पकड़ कर चलना सिखाया, आज उन्होंने अपनी अंगुलियां हमसे खींच ली। शब्दों में इतना दर्द, इतनी पीड़ा थी कि मैं खुद अपने आप को संभाल नहीं पा रहा था। मेरा मन किया कि मैं इस संसार में सबका मित्र बनकर, सबकी संतान बनकर उन सभी को गले लगा लूं जिन्हें इन दुनिया वालों ने ठुकरा दिया। और मैंने यह कदम बढ़ा दिया। श्री सिद्धशक्ति पीठ शनिधाम नाम से छोटा सा घरौंदा बनाया जिसमें हम सभी लोग रह रहे हैं। हजारों ऐसे परिवार हैं जिनसे दिन रात मैं जुड़ा रहता हूं। मैं यह तो नहीं कह रहा हूं कि मैंने उन सबको वह लौटा दिया है जो उन्होंने खो दिया। लेकिन एक छोटा सा प्रयास कर रहा हूं कि उनके चेहरे पर खुशियां ला सकूं।

मैं राष्ट्र के उन सभी सुशिक्षित नौजवानों भाई-बहनों से एक बात कहना चाहता हूं कि क्या यह बात ठीक हैं कि जिनकी अंगुली हम पकड़कर चलना सीखे, आज उन्हें अपनी अंगुली पकड़वाने में हमें शर्म आए? जिनकी गोद में खेलकर आज हम बडे हुए हैं, उनके पास बैठने में हमें शर्म आती है। यह कहां की शिक्षा है? यह कहां का बड़प्पन है? यह कहां की महानता है, जो हमें अपनों से दूर कर दें। अरे, वह भाग्यशाली जीव होता है जिन्हें अपने मां-बाप का आशीर्वाद

प्राप्त होता है। वह बहुत ही सुखी जीव होता है जिन्हें मां-बाप की दुआएं मिलती हैं। इसीलिए मां-बाप की उपेक्षा मत करो। मां-बाप तो अद्भुत अनुभव से भरा हुआ ग्रंथ हैं। उनके चेहरों की झुर्रियों पर हजारों-हजारों अनुभव लिखें है। मेरा विश्वास करो यह अनुभव किसी कॉलेज, यूनिवर्सिटी में पढ़ने से आपको नहीं मिलेंगे। पढ़ सको तो पढ़ लेना क्योंकि यह वह पढ़ाई होगी जिसके आगे बड़े-बड़े कॉलेज, यूनिवर्सिटी की डिग्रियां फेल होती नजर आएंगी, बौनी नजर आएंगी, खोखली नजर आएंगी, नीरस नजर आएंगी। उन डिग्रियों में, जीवन का अनुभव नहीं होगा, मात्र खोखलें शब्द होंगे। इन डिग्रियाें से आपको सुविधा तो मिल जाएगी लेकिन सुख नहीं मिलेगा। क्योंकि जिन्होंने अपने संपूर्ण सुख को त्यागकर आपको सुखी बनाया, आज वे दुखी हैं। और यह कैसे हो गया कि कदम बढ़ाया तो सुख के लिए और दुख का दामन पकड़ लिया? उन्होंने  तो संपूर्ण जीवन आपके लिए न्यौछावर कर दिया कि उनका भविष्य सुरक्षित हो रहा है पर आज वे खुद असुरक्षित हो गये हैं। यह तो निर्दोष को सजा मिल गयी है। यह तो ऐसा हो गया है कि जीवन भर की पूंजी एक पल में नष्ट हो गयी हैं। यह तो ठीक उसी तरह हो गया है जैसे खेत बोया, मेहनत की फसल उगी और जब फसल पक कर तैयार हुई तो पता चला कि फसल ही खराब हो गई। समझो, मेरे मित्रो, यदि यही आपके साथ होगा तो कैसा लगेगा?

मैंने बुजुर्गों से एक कहानी सुनी है जो यहां सुनाना जरूरी समझ रहा हूं।

एक व्यक्ति को उनके मां-बाप ने बहुत पढ़ालिखाकर अफसर बनाया। मां-बाप वृद्ध हो गये। और वह व्यक्ति बहुत बड़ा अफसर हो गया। जिले का मालिक हो गया। अब रहने के लिए सरकारी मकान मिल गया और मां-बाप को नौकरों के मकान में रख दिया। जिस तरह नौकरों को रखा जाता है- वैसे ही उनको रख दिया। उनकी भी संतानें हुईं। संतानों को दादा-दादी से बहुत प्यार था। वह हमेशा दादा-दादी के साथ ही रहते थे। कहानी बहुत लंबी है। मैं उसे बहुत संक्षिप्त में बताना चाहता हूं। पोता स्कूल गया हुआ था और दादा-दादी का देहांत हो गया था। उनको दोनों को श्मशान घाट लेकर गये तो पीछे से जब पोता स्कूल से आया तो देखा दादा-दादी नहीं हैं। तो नौकरों से पूछा तो पता चला कि उनका तो देहांत हो गया है। पोते ने दादा-दादी का पुराना सामान बरतन गिलास, कटोरी, थाली, रजाई, गद्दा आदि सामान समेट कर अपने शयनकक्ष में लाकर रख दिया। बेटा और बहू को जब सारे संस्कार निपट गये तो उस कमरे को किसी और नौकर को देना था। और सामान भी देखना था कि सामान कहां है। पोता साथ में था कमरा खोला तो कुछ सामान नहीं है। नौकरों से पूछा तो बरतन, थाली, गद्दा, रजाई कहां है? नौकर जवाब नहीं दे पाएं। बेटा साथ में था। वे तुरंत बोला- पिताजी मैंने सारा सामान संभाल कर रखा है। पिता ने पूछा- कहां रखा हैं? क्यों रखा है? बेटा बोला- बाद में यह सामान आपके काम आएगा। मुझे खरीदना नहीं पड़ेगा।

कहना यह चाहता हूं कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होए। जो आपने बोया वह पेड़ आपके सामने खड़ा है। समझो मेरी बात को, कद्र करो अपने माता-पिता की। बुढ़ापे में मां-बाप की उपेक्षा मत करो। उनका आशीर्वाद आपके जीवन में सदा बहार लाएंगा। और फिर यह सुंदर देह, जवानी, यह तामझाम कब तक संभाल कर रखोगे आप? एक दिन आपको भी बूढ़ा होना है। जिन मां-बाप को आप वृद्धाश्रम में छोड़कर आ रहे हैं कहीं तुम्हें भी अपना अंतिम दम वहां नहीं छोड़ना पड़ें, इस बात का ध्यान रखना। ऐसा इसीलिए क्योंकि जो आप अपने मां-बापों के लिए करते हैं, वही आपकी संतान आपके साथ करने के लिए तैयार रहेगी।

जिन मां-बाप को तुम अकेले अपने घर में छोड़ कर या वृद्धाश्रम में डालकर इस जवानी पर गरूर कर रहे हो तो एक बात कहना चाहता हूं कि आपने मां-बाप को वृद्धाश्रम में नहीं डाला बल्कि अपनी जड़ों को वृद्धाश्रम में रोप कर आ रहे हो। मां-बाप तो हमारे जीवन की जड़ हैं। जड़ को यदि हमने वृद्धाश्रम में रोप दी तो इस जीवन के वृक्ष का अंत भी वहीं होगा जहां इस वृक्ष की जड़ें हैं।

मेरे मित्रो, मां-बाप हमारी जड़ हैं। हम उसके तने हैं। हमारी औलाद टहनियां हैं। और यह क्यों भूल जाते हो कि टहनियां तने को वहीं झुकायेगी जहां पर जड़े हैं। मैं कहना यह चाहता हूं कि बूढ़े मां-बाप को वृद्धाश्रम भेजते समय यह मत भूल जाना कि आपको भी वृद्धाश्रम अवश्य जाना होगा।

इसलिए हे राष्ट्र के नौजवानो, हे मेरे मित्रो, जब इस धरा धाम पर पहली बार जहां आपने अपनी श्वास ली थी, तो वह मां-बाप की गोद थी। तो क्या मां-बाप की अंतिम श्वास तुम्हारी गोद में नहीं होनी चाहिए। एक बात और याद रखना, बिना मां-बाप का घर खुशहाल नहीं रहता। घर में मां-बाप जहां सुखी नहीं रहते हैं, वह घर हमेशा दुखों से भरा रहता है, कष्टों से भरा रहता है, पीड़ा से भरा रहता है। मैं तो यही कहूंगा कि जिस घर में मां-बाप नहीं वह घर नहीं है, वह तो मात्र ईंट और पत्थरों का खंडहर है जो ढह जाएगा। जैसे किसी मंदिर में मूर्ति नहीं हो तो उस मंदिर में कोई नहीं जाता है। ऐसे ही जिस घर में मां-बाप नहीं हो, उस घर में कोई नहीं जाता है। घर तो वह है जहां एक दिल दूसरे दिल से जुड़ता है। जहां रिश्तों का सुंदर वट वृक्ष हैं। मकान बनाना बहुत आसान है लेकिन घर बनाना बहुत कठिन हैं।

आज हमारे देश में बहुत ऊंचे-ऊंचे महल और बंगले बनाएं जा रहे हैं। ईंट पत्थर का मकान बनाने की होड़ तो लगी हुई है, लेकिन घर उजड़ते जा रहे हैं। और किसी ने कहा है कि

पत्थर के सब मकान बनाने लगे हैं लोग,

दिल के मकान किंतु गिराने लगे हैं लोग।

रखते हैं अपने बच्चों से जो सुख की कामना,

बूढ़ों को मगर रोज रुलाने लगे हैं लोग॥

सोचो न क्या हो गया है हमको। यह वह भारत है जहां रिश्तों का सुंदर वट वृक्ष था। कहां से यह पश्चिमी सभ्यता हावी हो गई।       वहां नहीं थे रिश्ते। लेकिन यहां संपूर्ण रिश्तों का वट वृक्ष था। उनको क्यों दोष दें, स्वीकार तो हम कर रहे हैं उस सभ्यता को। उनका क्या दोष हैं? आज हमारी नजर मां-बाप पर नहीं, उनकी दौलत पर रहती है। आज दो भाई दौलत को लेकर मां-बाप को कटघरे में खड़ा कर देते हैं।  कोई इसके लिए नहीं लड़ रहा है कि मां-बाप को मैं अपने पास रखूंगा। बल्कि इस लिए लड़ रहा है कि उनकी दौलत उनके पास रहे। आज की यह संतान मां-बाप से दौलत तो चहाती है लेकिन मां-बाप नहीं। आश्चर्य है, जिस भारत के प्राचीन शास्त्रों में देवताओं से ऊपर मां-बाप को माना गया है। उस भारत में आज मां-बाप को तो रुलाया जाता है, क्या देवता उस व्यक्ति का प्रसाद ग्रहण करेंगे जो अपने मां-बाप का सत्कार नहीं करते हैं। मैं तो यही कहता हूं कि जो अपने मां-बाप की सेवा करता है उसका प्रसाद देवता भी ग्रहण नहीं करेंगे। जो मां-बाप का नहीं है वो जीवन में किसी का भी नहीं हो सकता है। जो मां-बाप का आदर नहीं करते हैं उनका देवता भी पूजा स्वीकार नहीं करते हैं।

एक बात याद रखना- आपकी सेवा, पूजा, जप-तप, साधना, तीर्थ, पुण्य सारे सत्कर्म समाप्त हो जाएंगे जिस दिन आपने अपने मां-बाप की आंखों में आसूं ला दिया। उनके आंसुओं में सारे सत्कर्म बह जाएंगे। अरे नादानो,  हे मंदिर में दीप जलाने वालो, जिन मां-बापों ने तुम्हें रोशनी दी है, उन आंखों में अंधेरा मत करो। जिन्होंने तुम्हें गोद दी है उन्हें गाली कैसे दे सकते हो? जिन्होंने तुम्हें बोलना सिखाया है, उसे बुढ़ापे में चुप कहने में शर्म करो। भगवान शनिदेव का कलश में तेल भरकर तेलाभिषेक करने वालो, एक गिलास पानी प्रेम से अपने मां-बाप को तो पिलाकर देखो। संपूर्ण अभिषेक हो जाएगा। नहीं तो यह सारा अभिषेक व्यर्थ जाएगा। तुम्हारे द्वारा किया गया यह अभिषेक अभिशापित होगा। और यह अभिषेक तुम्हारे जीवन को नरक बना देगा। इसीलिए समय है जागो। शनिदेव के संदेश को अपने जीवन में उतारो। शनिदेव को अपने जीवन में उतारने के तीन सूत्र हैं।

1. मां-बाप की सेवा करो।

2. पति-पत्नी धर्मानुकूल आचरण करो।

3. राष्ट्र के प्रति प्रेम रखो।

यदि इतना तुम कर लेते हो तो तुम्हारा जीवन खुशियों से भर जाएगा। लेकिन यह हो कहां रहा है। अपनी संपूर्ण जीवन की संपदा का मालिक वे मां-बाप हैं जो अपनी संपूर्ण संपदा आपको सौंप कर आज बेबसी के आंसू बहा रहे हैं, फटे हुए कपड़ों में, टूटी हुई खटिया में तड़प रहे हैं। और यह तड़प आपको कहीं का नहीं छोड़ेगी, याद रखना।

अपनी लेखनी को विराम देने जा रहा हूं लेकिन जाते-जाते उन देश के कर्णधारों और देश के कानून बनाने वालों से प्रार्थना करना चाहता हूं कि ऐसा कुछ कानून बना दीजिए जिससे मां-बाप सुरक्षित हो जाएं। और आपके इस कानून में फेरबदल तो होना चाहिए। यह कैसा कानून है कि जो मां-बाप की दौलत पर तो बच्चों का हक मानता है। परंतु बच्चों की दौलत पर मां-बाप का हक नहीं मानता है ऐसा क्यों?  क्यों नहीं, मां-बाप को बच्चों की दौलत मिलनी चाहिए। जो ऐसा नहीं कर रहा है, उसे कानूनी दंड मिलना चाहिए। कई बार मैं देखता हूं तो बड़ा दु:ख होता है, जब यह देखता हूं कि मां-बाप तो बच्चों के साथ रहते हैं परंतु वैसे नहीं, जैसे बच्चे मां-बाप के साथ रहते हैं। यह घोर अपराध है, अत्याचार है, धर्म के खिलाफ है, संपूर्ण मर्यादाओं के खिलाफ हैं। अब भी समय है, जागो।

तब पछताय होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत।

यह तो सामाजिक स्तर पर तथ्य था जो मैंने आपके सामने अपने हृदय के भाव रखें। और यह अंतिम सत्य भी है। फकीर होने के नाते, इस राष्ट्र का सेवक होने के नाते, मैं आत्मा जाग्रति के तथ्य पर कहता हूं कि - हम जीवन में एक भूल कर रहे है। और इस भूल की हमें कभी कोई माफी नहीं मिलेगी।

हमारा संबध बस सुख सुविधा तक है, हम अपने स्वार्थ के लिए संबध बनाते हैं। प्रेम तो है ही नहीं। जिस पुत्र ने माता-पिता को ठुकरा दिया, वह तैयार रहे कि उसका भी पुत्र उसके साथ यही व्यवहार करेगा। इस अवस्था से सबको एक बार गुजरना है। हमने कभी प्रेम किया ही नहीं। संबध बनाते हैं अपने सुख के लिए कि भविष्य में हमें सुख मिलेगा।

एक घर में मैं मेहमान बनकर गया। घर का स्वामी मुझसे शिकायत करने लगा कि मैंने अपने बेटे से इतना प्रेम किया और मेरा बेटा मुझे  देखता ही नहीं है। मैंने कहा कि यदि वह तुम्हें देखेगा तो उसकी तरफ कौन देखेगा? मैं तुमसे पूछता हूं कि यदि उसने तुम्हें प्रेम नहीं किया , क्या तुमने अपने बाप से प्रेम किया? तुम्हारे बाप भी यही शिकायत करते हुए मरे होंगे। उस घर का स्वामी बोला, आपको कैसे पता चला? पता चलने की कोई बात नहीं है, सीधा गणित है।

प्रेम तो आगे की तरफ जा रहा है। क्योंकि यह जिसको हम प्रेम कहते हैं, केवल बायोलाजिकल है। यह केवल जीवशास्त्रीय है और जीवन आगे की तरफ जा रहा है। बाप को तो बचना नहीं है, बेटों को बचना है। जीवन की फिक्र बूढ़ों को बचाने की नहीं, बच्चों को बचाने की नहीं। तब बाप की तरफ प्रेम डालना फिजूल है। सूखे वृक्ष पर पानी डालने से क्या लाभ? वह अंकुरित होने से रहा। जीवन तो इक नोमिकल है न्यूनतम से अधिकतम लेने का प्रयास करता है। फिजूल तो कुछ देना ही नहीं चाहता। बाप का बेटे की तरफ प्रेम होता है। परंतु बेटे का बाप की तरफ कर्तव्य होता है। वहर् कत्तव्य निभा ले, उतना काफी है। उतना भी काफी है। प्रेम तो हो नहीं सकता। दुश्मनी न हो, यह भी बहुत है। घृणा न हो, यह भी बहुत है।

जीवन एक गणित हो गया है, जीवन इकनोमिकल हो गया है। अपना लाभ हानि ही सोचता है। सच्चा प्रेम की तालाश करेंगें तो नहीं मिलेगा। प्रेम इस जीवन के तथ्यों से परे है। इस जीवन के विपरीत है। प्रेम त्याग है। सबको अपने जीवन से प्रेम होता है कि  यह चलता रहे, जीव किसी भी स्थिति में अपना सुख नहीं खोना चाहता परंतु जीवन जिसने दिया, जो जीवन में सहयोगी बनें, उन्हें याद करना समय की बर्बादी समझते हैं। जीव न तो आगे बढ़ता जा रहा है, समय के साथ। प्रेम बहुत अलग विषय है। प्रेम में सबसे आलोचना झेलनी पड़ती है, वह तो हृदय की बात है। आज का कल जीवन तो एक सौदा बन गया है पर प्रेम में कोई सौदा नहीं होता। यदि मेरी बात आपको अच्छी लगी तो इसे जीवन में जरूर उतारना। और मेरी बात अच्छी नहीं लगे तो छोटा भाई समझ कर माफ कर देना। लेखनी को विराम नहीं दे पाया क्योंकि विषय ऐसा था कि अपने आपको रोक नहीं पाया। बस अब इतना ही।